हिन्दू राष्ट्र मन्दिर के उद्घोषक – स्वामी श्रद्धानन्द

संसार के महा पुरुषों को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है। एक तो वे जिनका जीवन प्रारम्भ से अन्त तक निष्कलंक रहा और दूसरे वे जिनके प्रारम्भिक जीवन में तो पतन कारी प्रवृतियां दिखाई दीं किन्तु बाद में वे अपनी प्रवल ईच्छा शक्ति व आत्म साधना के बल पर जीवन को ऊंचाइयों तक ले जाने में सफ़ल हुए। पहली कोटि के महा पुरुषों में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम व योगी राज श्री कृष्ण आदि अनेक नाम आते हैं तो दूसरी कोटि के महा पुरुषों में महर्षि वाल्मीकि 21_12_2012-sradhanndsamiतथा स्वामी श्रद्धानन्द का नाम प्रमुखता से आता है। यूं तो विश्व के प्रत्येक महा पुरुष के जीवन से हमें मार्ग दर्शन मिलता है किन्तु, दूसरी कोटि के महा पुरुष सर्व साधारण की अवस्था के अधिक निकट हैं। इनसे हमें ये प्रेरणा मिलती है कि हमारी कितनी ही गिरी अवस्था क्यों न हो, हम भी उनके समान अपने जीवन को नई ऊचाइयों तक ले जा सकते है।

मानव जीवन में कब और क्या उतार चढाब आएंगे और उनका क्या प्रतिफ़ल होगा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। राजा से रंक व रंक से राजा बनते हुए तो बहुत देखे हैं किन्तु एक ऐसे व्यक्ति को, जो व्यभिचारी व मदिरा में आकंठ डूबा रहता हो, को प्रकाण्ड विद्वान संत, समाज सुधारक व राष्ट्र द्रष्टा बनते हुए शायद ही कभी सुना होगा। मानव जीवन में कभी कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जब मात्र एक सत्संग से ही व्यक्ति का जीवन बदल जाता है। काशी विश्व नाथ मंदिर के कपाट सिर्फ़ रीवाँ की रानी हेतु खोल कर, साधारण जनता के लिए बन्द किए जाने तथा एक कैथोलिक पादरी के द्वारा किए गए व्यभिचार का द्र्श्य देख मुंशी राम का विश्वास धर्म से उठ गया और वे बुरी संगत में पड़ गए। किन्तु, स्वामी दयानंद सरस्वती के बरेली में हुए एक ही सत्संग ने उन्हें जीवन का जो अनमोल आनंद दिया उसे न सिर्फ़ उन्होंने स्वयं अनुभव किया वल्कि सारे संसार को वितरित किया।

स्वामी श्रद्धानन्द उन महापुरुषों में से एक थे जिनका जन्म ऊंचे कुल में होने के बावजूद प्रारंभिक जीवन बुरी लतों के कारण बहुत ही निकृष्ट किस्म का था। बचपन के बृहस्पति, मुंशी राम से स्वामी श्रद्धानन्द तक का सफ़र पूरे विश्व के लिए प्रेरणा दायी है। श्रावणी 14, सम्वत 1936 को स्वामी दयानंद सरस्वती से बरेली में हुई एक भेंट तथा पत्नि के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को क्या से क्या बना दिया।

समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि प्रबल विरोध के बावजूद स्त्री शिक्षा के लिए उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई। स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने “ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल” गाते सुना तो उनके कान खडे हो गए। इस ओर पहल करते हुए घर घर जा कर चंदा इकट्ठा कर अपनी समस्त सम्पत्ति समर्पित करते हुए हरिद्वार में गुरुकुल कांगडी विश्व विद्यालय की स्थापना की और अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले भर्ती करवाया।

स्वामी जी का विचार था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती। उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैं, प्रोफ़ेसर हैं, प्रिन्सीपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं पर आचार्य नहीं हैं। आचार्य, अर्थात् आचारवान व्यक्ति, की महती आवश्यकता है। चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं। वे स्वयं लिखते हैं कि “मैंने भी उसी विद्यालय में शिक्षा पाई थी जिसने हिन्दू युवकों को अपनी प्राचीन संस्कृति का शत्रु बना दिया था।”

जाति-पांति व ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर समग्र हिंदू समाज के कल्याण के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए। प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत कला, बेटे  हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जाति-पांति के समस्त बंधनों को तोड कर कराया। उनका विचार था कि छूआ-छूत के कारण हमारे देश में अनेक जटिलताओं ने जन्म लिया है तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था के द्वारा ही इसका अंत कर अछूतोद्धार संभव है।

वे हिन्दी को राष्ट्र भाषा और देवनागरी को राष्ट्र लिपि के रुप में अपनाने के पक्षधर थे। सतधर्म प्रचारक नामक पत्र उन दिनों उर्दू में छपता था। एक दिन अचानक ग्राहकों के पास जब यह पत्र हिंदी में पहुंचा तो सभी दंग रह गए क्योंकि उन दिनों उर्दू का ही चलन था और स्वामी जी हिन्दी के प्रचार प्रसार को राष्ट्रीयता एकता के मूल मंत्र के रूप में देखते थे। वर्तमान समय के हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जन सत्ता जैसे अनेक अखवारों की पृष्ठ भूमि में स्वामी श्रद्धानन्द और उनके शिष्यों का विशेष योगदान निहित है।

त्याग व अटूट संकल्प के धनी स्वामी श्रद्धानन्द ने 1868 में यह घोषणा की कि जब तक गुरुकुल के लिए तीस हजार रुपए इकट्ठे नहीं हो जाते तब तक वे घर में पैर नहीं रखेंगे। इसके बाद उन्होंने भिक्षा की झोली डाल कर न सिर्फ़ घर-घर घूम चालीस हजार रुपये इकट्ठे किए बल्कि गुरुकुल कांगडी में ही डेरा डाल कर अपना पूरा पुस्तकालय, प्रिंटिंग प्रेस तथा जालंधर स्थित कोठी भी उस पर न्यौछावर कर दी।

उनका अटूट प्रेम व सेवा भाव अविस्मर्णीय है। गुरुकुल में एक ब्रह्मचारी के रुग्ण होने पर जब उसने उल्टी की इच्छा जताई तब स्वामी जी द्वारा स्वयं की हथेली में उल्टियों को लेते देख सभी हत्प्रभ रह गए। ऐसी सेवा और सहानुभूति भला और कहां मिलेगी?

स्वामी जी ने भारतीय हिंदू शुद्धि सभा की स्थापना कर दो लाख से अधिक मलकानों  की शुद्धी कर अपने स्वधर्म (हिन्दू) में लौटाया। स्वामी श्रद्धानन्द का विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ, प्रलोभन व उत्पीडन के कारण धर्मांतरणकर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत बनाने के लिये परम आवश्यक है। एक बार शुद्धि सभा के प्रधान को उन्होंने पत्र लिख कर कहा कि ‘अब तो यही इच्छा है कि दूसरा शरीर धारण कर शुद्धि के अधूरे काम को पूरा करूं’।

राष्ट्र सेवा का मूलमंत्र लेकर महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की। कहा कि ‘हमें और आपको उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, और आगे भी होगा, उसकी उन्नति तन मन धन से सब मिलकर प्रीति से करें’। स्वामी श्रद्धानन्द ने इसी बीज मंत्र को अपने जीवन का मूलाधार बनाया।

वे निराले वीर थे। लोह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने एक बार कहा था ’स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते ही 1919 का द्र्श्य आंखों के आगे आ जाता है। सिपाही फ़ायर करने की तैयारी में हैं। स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं-‘लो, चलाओ गोलियां’। इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा?’’ महात्मा गांधी के अनुसार ‘वे वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग शैया पर नहीं, परंतु रणांगण में मरना पसंद करते हैं। वे वीर के समान जीए तथा वीर के समान मरे’। महात्मा गांधी से ही उनको महात्मा मुंशीराम का नाम मिला।

राष्ट्र धर्म को बढ़ाने के लिए वे चाहते थे कि प्रत्येक नगर में एक हिंदू-राष्ट्र मंदिर होना चाहिए जिसमें पच्चीस हजार व्यक्ति एक साथ बैठ सकें और वहां वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत आदि की कथा हुआ करे। मंदिर में अखाड़े भी हों जहां व्यायाम के द्वारा शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई जाए। प्रत्येक हिन्दू राष्ट्र मंदिर पर गायत्री मंत्र भी अंकित हो।

देश की अनेक समस्याओं तथा हिंदोद्धार हेतु उनकी एक पुस्तक ‘हिंदू सोलिडेरिटी-सेवियर ओफ़ डाइंग रेस’अर्थात् ‘हिंदू संगठन – मरणोन्मुख जाति का रक्षक’ आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है लीडरों की नहीं। धोखे से अब्दुल रशीद नामक एक मुस्लिम धर्मांध युवक की गोलियों ने 23 दिसम्बर सन् 1926 को स्वामी जी की अदभुत जीवन लीला को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। वे उस समय स्वास्थ्य लाभ के लिए गुरुकुल में विश्राम कर रहे थे।

कहा जाता है कि सत्संग में बडी शक्ति होती है। श्रद्धा व विश्वास से सुना सत्संग किस प्रकार एक नास्तिक को आस्तिक व व्यभिचारी को सदाचारी बना देता है, यह स्वामी श्रद्धानन्द की जीवन लीला से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। वे सच्चे अर्थों में एक तपस्वी व निष्काम कर्म योगी थे जो भोगी से योगी बने और राष्ट्र की सेवा के लिए तिल-तिल कर जले। उन्होंने देश व समाज को जो कुछ दिया वह चिरकाल तक विश्व को मार्गदर्शित करता रहेगा।

 

329, द्वितीय तल, संत नगर, ईस्ट आँफ़ कैलाश, नई दिल्ली-110065

–         विनोद बंसल

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