चौरी चौरा कांड और इतिहास की चार भूलें

इतिहास केवल वह नही हैं जो हमें पढ़ाया गया वरन असल इतिहास वह हैं जो हमसे छुपाया गया। उन्ही में से एक हैं चौरी चौरा कांड।

ये इतिहास की भयंकर भूले ही कही जाएंगी कि 4 फरवरी 1922 में घटित घटना में उन अंग्रेजी हुकूमत के पुलिस कर्मियों के शहीद स्मारक बना दिए गये जिन्होंने उक्त घटना में आजादी के परवानों की गोली मारकर हत्या की थी।

किँतु उन 19 देशभक्तों को भुला दिया गया जो चौरी चौरा कांड में अभियुक्त बनकर फांसी के फंदे पर झूल गये। उन 11 वीरों को भी इतिहास में कोई जगह नही दी गई जिनकी अंग्रेजी हुकूमत पुलिसकर्मियों की गोली से जान चली गई।
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बहुत कम लोग जानते होंगे चौरी चौरा क्रान्तिकारियो ने कितनी पीड़ाए सही। चौरी चौरा कांड के बाद गाँधी जी ने घटना को हिंसक बताकर असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। जिससे देश मे सन्देश गया कि ये क्रांतिकारी(चौरीचौरा) आजादी के दुश्मन हैं।

तथाकथित “अहिंसा के पक्षधर” इन पर टूट पड़े। सभी ने इनका साथ छोड़ दिया। ये जेलों में पड़े-पड़े प्रतीक्षा करते रह गए कोई तो अपना(कांग्रेस, गांधी) आकर बस इतना कह दे आपने अंग्रेजी पुलिसकर्मियों को मारकर कुछ गलत नही किया।
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“अहिंसा के पुजारीयो ने इनके सँग ऐसा तिरस्कृत व्यवहार किया कि अंग्रेज भी पीछे छूट गए। जेलों में बन्द आजादी के परवाने सहायतार्थ हेतु अपने नायक बापू की बांट जोहते ही रह गए जिनके लिए उन्होंने सर्वस्व दांव पर लगा दिया। ये कैसी विडंबना थी देश के लिए फांसी झूलने वाले वीरों के परिवारों को सम्मान की बजाए हत्यारों के परिवार कहकर जीवनभर अपमानित किया गया।

चौरीचौरा घटना के एक वर्ष बाद “9 जनवरी 1923” को अंग्रेजी अदालत द्वारा करीब 170 से अधिक सत्याग्रहियों को फाँसी की सजा सुनाई गई। अनेकों को उम्रकैद व कालापानी की सजा दी गई। लेकिन इनकीं मदद के लिए न महात्मा गांधी आगे आये और न ही तत्कालीन कांग्रेस।

जीने की आशा छोड़ चुके देशभक्तों के लिए देवदूत बनकर महामना #पण्डित_मदनमोहन_मालवीय आए। उन्होंने फैसले को ऊंची अदालत में चुनौती दी। “30 अप्रैल 1923” को आये अदालत के फैसले में अपने कौशल से महामना ने 151 फाँसी को रद्द करवाया तथा अनेक कालापानी सजा भी बदलवाई। किँतु इतिहास के पन्नो से मालवीय जी के समूचे प्रयास को सिरे से गायब कर दिया गया।

यदि मालवीय जी मुकदमा नही लड़ते तो गाँधीजी की जिद व अदूरदर्शिता के चलते 151 निर्दोष फांसी के फंदे पर झूल गये होते। इनकीं बलि वैसी ही चढ़ गई होती जैसे भगतसिंह, चंद्रशेखर जैसे अनगिनत क्रान्तिकारियो की चढ़ी। जिन्हें बचाया जा सकता था।
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आइए इतिहास के पन्नों पर सवार होकर आज से 99 वर्ष पीछे चलते हैं।

सन 1922 में गाँधीजी का असहयोग आंदोलन चरम पर था। बापू का नशा आजादी के परवानों पर सिर चढ़कर बोल रहा था। 4 फ़रवरी 1922 के दिन उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के गांव “चौरी चौरा” में आंदोलन के समर्थन में करीब 4 हजार सत्याग्रहियों का शांतिपूर्ण मार्च थाने के सामने निकला। लेकिन अंग्रेजी पुलिस कर्मियों ने इन्हें रोककर जबर्दस्ती सिर पर पहनी गाँधी टोपियों को फेंककर पैरों से कुचल दिया।

गांधी के अपमान पर भीड़ आक्रोशित हो गई परिणामस्वरूप पुलिस ने गोलियों की बौछार कर दी। जिसमें 3 लोग घटनास्थल पर मारे गए। पचासों घायल हुए जिसमे अन्य 8 ने बाद में दम तोड़ दिया।

गोलिया खत्म होने के बाद अंग्रेजी पुलिसकर्मी थाने में छिप गए। साथियों की मौत से गुस्साई भीड़ ने समीप की दुकान से मिट्टी का तेल लेकर थाने में आग लगा दी। जिसमे 22 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई।

घटना की जानकारी लगते ही गाँधीजी ने इसे हिंसा करार दिया तथा सत्याग्रहियों को हत्यारा कहकर असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। उनके इस कदम की कांग्रेस के ही नेता महान क्रांतिकारी #रामप्रसाद_बिस्मिल व #प्रेमकृष्ण_खन्ना ने कड़ी आलोचना की। भगतसिंह के रास्ते भी इसके बाद गाँधी से अलग हो गये। इसी घटना से कांग्रेस दो फाड़ हो गई जिसे इतिहास में “नरम दल”(नेहरू,गांधी) और गरम दल(क्रांतिकारी) के रूप में जाना जाता हैं।

लेकिन इतिहास के पन्ने नरम दल की गाथाओं से भर दिए गए। किन्तु क्रान्तिकारियो को आतंकवादी, उग्रवादी शब्दों से संबोधित किया गया।
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ये देश का कैसा दुर्भाग्य हैं ??… 4 फ़रवरी के दिन अंग्रेजों की गोली से दम तोड़ने वाले 11 स्वातंत्रत्य वीर और फाँसी पर झूलने वाले 19 बलिदानियो के स्मारक बनाकर सम्मान देना तो दूर उन्हें इतिहास में हत्यारों(अंग्रेजी पुलिसकर्मियों) का हत्यारा कहकर अपमानित किया जाता हैं… लेकिन अंग्रेजों के इशारे पर देशभक्तों की हत्या करने वाले पुलिसकर्मियों के शहीद स्मारक बनाकर आजाद भारत मे भी उन्हें सम्मानपूर्वक श्रद्धांजलि दी जाती हैं।

इतिहास की भयंकर भूलों का “इतिहास” शायद ही दुनिया में अन्यत्र मिलता हो।

स्वयं इतिहास भी इन भूलों को पढ़े तो इतिहास के पन्नो की आँखे भी नम हो जाए।
🙏🙏

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