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आज का चिंतन

धर्मविहीन राजनीति पतन का कारण है

🔥 ओ३म् 🔥

भूपेश आर्य

प्राचीन काल में हमने देखा कि जितने भी धर्म का पालन करनेवाले राजा हुए, उनका राज्य काफी समय तक चला और सुदृढ़ता युक्त चला। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, योगीराज श्रीकृष्णजी, महाराज दशरथ, महाराज अश्वपति, राजा विक्रमादित्य, महाराज युधिष्ठिर आदि अनेक धार्मिक राजाओं ने अपने राज्य को धर्म की मर्यादा में रहकर चलाया और इसी कारण वे सफल हुए। जो राजा धार्मिक होगा, वह प्रजा को भी धार्मिक बनाने में सफल होगा और प्रजा जब राजा की सहानुभूति प्राप्त करेगी तो प्रजा भी राजा से खुश रहेगी क्योंकि धार्मिक राजा स्वयं दुःख उठाकर भी प्रजा को दुःखी नहीं होने देगा। धार्मिक राजा का ही राज्य फलता-फूलता है। उदाहरण के लिये, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने धर्म का पालन किया इसलिए उनका राज्य दीर्घकालीन चला जबकि रावण ने धर्म छोड़कर राज्य किया, परिणाम सबके सामने है। रावण परिवार सहित मारा गया। दूसरी तरफ इतिहास की ओर देखें, दुर्योधन ने धर्म को छोड़कर राज्य चलाना चाहा, परन्तु अन्त में परिजनों सहित मारा गया। घर में कोई पानी देनेवाला भी नहीं बचा। उधर महाराज युधिष्ठिर ने धर्म का पालन करके चक्रवर्ती राजा बने और दीर्घकालीन राज्य किया। ऐसे ही इतिहास के और भी प्रमाण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि राजनीति की रीढ़ धर्म है। धर्म के बिना राजनीति लंगड़ी व अन्धी हो जाती है।

वेद, महाभारत, मनुस्मृति, विदुर-नीति आदि अनेक ग्रन्थों में यही बात को विशेषता दी गई है कि राजा को धर्म का भी पालन करना चाहिए। आइये कुछ प्रमाण देखते हैं।
अथर्ववेद में कहा है, लूटने वाला हमारा शासक न हो―
ओ३म् रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत मा नो दुशंस ईशत ।
मा नो अद्य गवां स्तेनो मावीनां वृक ईशत ।। (अथर्ववेद)
अर्थ― हे ईश्वर आप हमारी रक्षा करें। कोई भी दुष्ट दुराचारी अन्यायकारी हम पर शासन न करे (अर्थात् हमारा राजा धार्मिक, सदाचारी हो)। हमारी वाणी पर पाबन्दी लगानेवाला, हम किसानों से हमारी भूमि छीननेवाला तथा हम पशु पालकों से हमारे गौ आदि पशु छीननेवाला व्यक्ति हमारा शासक न बने। भेड़िया बकरियों का राजा न हो।
उपरोक्त वेद-मन्त्र में बताया है कि किस प्रकार के व्यक्ति को अपना शासक नहीं बनने देना चाहिए। यानि किस प्रकार के व्यक्ति को हमें वोट नहीं देनी चाहिए।

मनुस्मृति के ये श्लोक भी बताते हैं कि राजा को धार्मिक होना चाहिए―
यत्र धर्मों ह्यधर्मेण सत्यं यत्रान्रतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासद:।। मनु०।।
जिस सभा में अधर्म से धर्म,असत्य से सत्य सब सभासदों के देखते हुए मारा जाता है उस सभा में सब मरे हुए के समान हैं। जानो उनमें कोई भी नहीं जीता।
यस्य स्तेन: पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक्।
न साहसिकदण्डघ्नौ स राजा श्ऋलोकभाक्।। मनु०।।
जिस राजा के राज्य में न चोर,न परस्त्रीगामी,न दुष्ट वचन बोलने हारा न साहसिक (दुष्ट) डाकू, और न दण्डघ्न अर्थात राजा की आज्ञा का भंग करने वाला है वह राजा अतीव श्रेष्ठ है।
छान्दोग्य उपनिषद् में राजा अश्वपति अपनी धार्मिकता का प्रमाण देते हुए कहते हैं―
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः ।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।। (छान्दोग्य उपनिषद्)
अर्थ― कैकेय देश का राजा अश्वपति घोषणा करता है–मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है। कोई गरीब और कन्जूस नहीं है। कोई शराबी नहीं है। कोई ऐसा घर नहीं है जहाँ हवन (अग्निहोत्र) न होता हो। कोई मूर्ख नहीं है। कोई व्यभिचारी नहीं है तो फिर व्यभिचारिणी कैसे हो सकती है?
ऐसा उसी राजा के राज्य में ही सम्भव है जो स्वयं बुराईयों से परे हो और धार्मिक हो। जब राजा धार्मिक होगा तो प्रजा भी धार्मिक होगी, दुराचारी नहीं होगी―
यथा राजा तथा प्रजा―
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः ।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।। (मनुस्मृति)
अर्थ― यदि राजा यानि शासकवर्ग सदाचारी और न्यायकारी होंगे तो प्रजा भी सदाचारी और न्यायकारी बन जाती है। यदि शासकवर्ग दुराचारी हो तो प्रजा भी दुराचारी बन जाती है। प्रजा तो अपने शासकों के पीछे ही चलती है।
मनुस्मति के इस श्लोक से स्पष्ट है कि राजा यदि सदाचारी व न्यायकारी अर्थात् धर्म का पालन करनेवाला है तो प्रजा भी धर्म का पालन करेगी। और यदि राजा दुराचारी, अन्यायकारी है अर्थात् धर्मयुक्त आचरण नहीं करता तो प्रजा भी धर्म से हीन दुराचार में प्रवृत्त होगी, तो फिर जब राजा, प्रजा ही अधार्मिक हो गये तो राष्ट्र के पतन में सन्देह ही क्या है?

महात्मा विदुर ने भी राजा को बुराईयों को राजा के नाश का कारण बताया है―
सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः ।
प्रायशो यैर्विनश्यन्ति कृतमूला अपीश्वराः ।।
स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम् ।
महश्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च ।।
―(विदुरनी० १।८९-९०)
अर्थ― स्त्रियों में आसक्ति, जुआ खेलना, शिकार खेलना, शराब पीना, कठोर भाषण, अत्यन्त कठोर दण्ड और धन का दुरुपयोग करना―ये सात दुःखोत्पादक दोष राजा को सदा छोड़ देने चाहिएँ, क्योंकि इन दोषों के कारण प्रायः दृढ़मूल राजा भी नष्ट हो जाते हैं।

ये बुराईयाँ किसी धार्मिक राजा में नहीं हो सकती। अतः राजा का धर्मरहित होना उसके तथा प्रजा के पतन का कारण है।

।। ओ३म् ।।

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