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संपादकीय

यदि आज महामति चाणक्य होते तो..भाग-३

downloadइनकी जानकारी होने पर स्वयं सेल्यूकस ने बुरा माना। किंतु राष्ट्रधर्म के समक्ष सेल्यूकस के बुरा मानने का चाणक्य ने बुरा नही माना। अपने कत्र्तव्य पथ पर यथावत आरूढ़ रहे। गुप्तचरों के पीछे गुप्तचर रखने की अनूठी परंपरा में घुसपैठ का प्रश्न ही नही था। आज प्रधानमंत्री की तो बात ही छोडिय़े पुलिसकर्मी तक के संबंधी स्वयं को सब कानूनों से ऊपर मानते हैं। दुख का विषय यह है कि वे स्वयं तो मानें तो उन्हें यह दर्जा हमारे राष्ट्ररक्षक और अन्य नौकरशाही के अधिकारी स्वयं भी देते हैं। इसमें तो चाणक्य का दर्शन कहीं भी नही झलकता। घुसपैठ होने का राष्ट्रधर्म के प्रतिप्रमाद का यही लक्षण प्रमुख कारण है।
भारत के समाज के विषय में यह तथ्य तो अब जगजाहिर होा चुका है कि यहां का अपराधी भयमुक्त है। भय, भूख और भ्रष्टाचार का समूल नाश करने का संकल्प लेने वाले किसी को भी नही मिटा पाये। सामान्य वर्ग में भय सर्वकालों से अधिक व्याप्त है। कारण ‘अपराधी का भयमुक्त होना।’ अपराधी को पहले राजनैतिक संरक्षण प्राप्त होता था। अब राजनीतिज्ञ को अपराधी का संरक्षण प्राप्त है। अपराधी का पहले कोई सामाजिक स्तर न ही होता था। आज उसका समाज में सम्मान होता है। इसलिए अपराध समाज में ‘स्टेटस-सिम्बल’ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करता जा रहा है। जेलों की सीखचों के पीछे होने वाले आज संसद और विधानसभाओं तक में प्रवेश कर गये हैं। पुलिस को जिनके पीछे होना चाहिए था, आज उसकी विवशता है कि वह उनकी सुरक्षा में उनके आगे-आगे चलती है।
पुलिस और अपराधी का संबंध जिस प्रकार प्रेम की पींगें बढ़ा रहा है वह भी सारे भारतीय समाज के लिए चिंता का विषय है। पहले पुलिस कुछ अपराधियों से मुखबिरी के नाम पर संबंध रखती थी। फिर अपराधियों से मासिक वसूलने लगी। इस पर उन्हें कुछ रियायत देना तो निश्चित ही था और आज—। आज तो पुलिस स्वयं अपराध कर रही है। पता नही कितनी ‘शिवानी’ पुलिस की हबस का शिकार होकर अकाल ही काल के विकाराल गाल में समा गयीं। वर्दी ने सारे ‘पाप’ क्षन्तव्य बना दिया। इसलिए भारतीय नेता और पुलिस दोनों की ही छवि भारत में जानसाधारण की दृष्टि में खराब है।
राजनीतिज्ञों और पुलिस के अधिकारियों द्वारा स्वयं अपराध में सम्मिलित हो जाने से ऐसाा नही है कि समाज में अपराधों का दायरा संकुचित हुआ है। अपितु वह पहले से और भी अधिक विस्तृत हो गया है। जिस राष्ट्र की विधायिका और कार्यपालिका इस प्रकार अपराधों के मामलों को प्रोत्साहन दे रही हो उसका भविष्य उज्जवल कैसे होगा। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका से ही भारत के लोगों की अपेक्षायें बढ़ी हैं। यही कारण है कि स्वतंत्रता के उपरांत हाल के वर्षों में हमारी न्यायपालिका अधिक मुखरित हुई है।
ऐसा भी नही है कि सारी पुलिस ही खराब हो गयी हो, और अपराधी को संरक्षण दे रही हो। किसी भी अपराधी के पकड़े जाने पर थाने में लीडरों के फोन धड़ाधड़ आने लगते हैं। सड़क छाप और गली-मौहल्ला छाप नेता तक अपनी पार्टी के अपराधी को छुड़ाने के लिए सक्रिय हो उठता है। पुलिस हाथ मलती रह जाती है, जब कोई उन्हीं का उच्चाधिकारी ऐसे अपराधी को छोडऩे के लिए कह डालता है। ऐसे उच्चाधिकारी को मनचाही जगह स्थानांतरण कराने अथवा भ्रष्टाचार करने का प्रमाणपत्र मिल जाता है-यह उसका सुविधा शुल्क अथवा पारितोषिक भी कहा जा सकता है।
पार्टी के आधार पर जब गली-मौहल्ला छाप कुकुरमुत्ते अर्थात पार्टी वर्कर को इतनी सुविधा है कि उसका पुलिस कुछ नही बिगाड़ सकती तो वह और भी भयमुक्त होकर पार्टी के लिए कार्य करता है। अर्थात सामाजिक अनाचार को और भी बढ़ावा देता है इससे भारतीय समाज में राजनैतिक गुणडागर्दी को बढ़ावा मिलता चला जा रहा है। पार्टी अपने राजनैतिक दर्शन और सिद्घांतों को जनसामान्य में पहुंचाकर अपने साथ उन्हें जोडऩे के कार्य में असफल रही है। इसीलिए सधे सधाये राजनैतिक कार्यकर्ताओं का हर राजनीतिक पार्टी के नाम अभाव है।
पहले राजनीतिक पार्टियां शिविरों में सधे सधाये राजनैतिक कार्यकर्ता उत्पन्न करती थी। आज यह बातें लोप होती जा रही हैं अथवा औपचारिकता के लिए हो रही हैं। आज पार्टी जनसेवक को नही अपितु जनभावनाओं से खिलवाड़ करने वाले और जनता को डरा धमका कर ‘वोट’ प्राप्त करने वाले किसी भी व्यक्ति को टिकट दे देती है। परिणाम स्वरूप अपराधों का बोलबाला बढ़ा है। वह स्वतंत्र और स्वच्छन्द है। उसकी यह स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता भारतीय समाज के लिए अभिशाप है।
आचार्य चाणक्य देश और राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की भावना रखने वालों को ही राजनीति में आने देते। चाणक्य निहित स्वार्थ के लिए राष्ट्र सेवा को तिलांजलि देने वालों को निश्चय ही राष्ट्रद्रोही सिद्घ कर फांसी चढ़वा देते। नेता यदि स्वयं आचरणशील और कत्र्तव्यवाद की राह पर चलने वाला होता है तो अनुचरों के लिए उस मार्ग का अनुसरण करना उनकी बाध्यता बन जाती है। यदि नायक का चरित्र राष्ट्रवाद की उत्तुंग भावना से भरा होता है तो जनसामान्य का उस पर यथानुसार आचरण करना अनिवार्यता बन जाती है।
आचार्य चाणक्य के आज होने पर राष्ट्रधर्म के प्रतिपूर्ण समर्पण ही हमारा सर्वोपरि कर्तव्य और धर्म होता।
राष्ट्रधर्म पर मर-मिटने और उस पर चलने की भावना ही हमारी वर्तमान सभी समस्याओं का एकमात्र समाधान है। आचार्य चाणक्य का दर्शन हमें यही शिक्षा देता है। इसे अपना लेने से हमारी राजनीति की सारी छल प्रपंच और कुटिलतापूर्ण कूटिनीति का प्रक्षालन संभाव्य है। राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर, अपनी नीति में राष्ट्र को केन्द्र बिन्दु मानकर शत्रु को हर क्षेत्र में परास्त करने की नीति ही चाणक्य नीति है। हमारे राजनेता जो छल, प्रपंच और कुटिल नीतियों में लगे रहते हैं, क्या चाणक्य नीति के इस सार को समझ सकेंगे?
आज के नेता अपने चुनावी घोषणापत्रों में जनता से लोकलुभावने वायदे करते हैं, और चुनाव जीतने के पश्चात उन्हें भूल जाते हैं, या कई बार वोट खरीदने के लालच में ऐसे वायदों को पूरा करने के लिए राजकोष को पानी की तरह लुटाने लगते हैं। इससे जनहित के लिए राज्य की ओर से जो समुचित कार्य होने चाहिए वह नही होते। हां, जनता नेता के नारों में और झूठे वायदों में उलझकर जरूर रह जाती है। राजनीतिज्ञों की इसी प्रवृत्ति के कारण देश का बेड़ा गर्क हो रहा है। देश में ऐसे राजनेताओं का अभाव है जो दूरदृष्टि के साथ कार्य करने के अभ्यासी हों, अधिकांश नेताओं को तात्कालिक लाभ चाहिए और उसी की सिद्घि के लिए ये लोग एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। चालों, कुचक्रों, षडयंत्रों और घात-प्रतिघातों की दूषित राजनीति को इन लोगों ने चाणक्य नीति का पर्याय मान लिया है। जबकि इस प्रकार की दूषित राजनीति का चाणक्य नीति से कोई लेना-देना नही है। राजधर्म के निर्वाह के लिए राजनीति उत्तम नीतियों को अपनाकर जनहित को साधने का एक अच्छा माध्यम है। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि राजनीतिज्ञों ने अपनी अपरिपक्वता, अपनी अज्ञानता, लोकतंत्र के प्रति अपने दुराग्रहों और अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति के लिए लोकतंत्र की गलत व्याख्या तो की ही है, साथ ही अपने ओछे हथकंडों को राजनीति के कुशल मानदण्डों में शामिल करा लिया है।
चाणक्य हमारे वह आदर्श हैं जिनके नाम से और जिनकी नीतियों से राष्ट्र का कण-कण मचल सकता है। उनकी शिक्षा नीति, उनकी राजनीति, उनका उपदेश और उनके जीवन का संदेश राष्ट्र के कण-कण में मचलन पैदा करने के लिए है। बस, इसी सत्य को आज के परिप्रेक्ष्य में और राजनीतिक संदर्भों में ग्रहण करने, समझने और जीवन में उसे अपनाकर तदानुसार आचरण करने की आवश्यकता है। इस लेखमाला को लिखने का हमारा उद्देश्य ही यही रहा है।

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