म्यांमार में सेना के शासन का आगाज

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

म्यांमार में 2008 में सेना ने जो संविधान बनाया था, उसके अनुसार संसद के 25 प्रतिशत सदस्य फौजी होने अनिवार्य थे और कोई चुनी हुई लोकप्रिय सरकार भी बने तो भी उसके गृह, रक्षा और सीमा- इन तीनों मंत्रालयों का फौज के पास रखा जाना अनिवार्य था।

भारत के पड़ोसी देश म्यांमार (बर्मा या ब्रह्मदेश) में सुबह-सुबह तख्ता-पलट हो गया। उसके राष्ट्रपति बिन मिन्त और सर्वोच्च नेता श्रीमती आंग सान सू की को नजरबंद कर दिया गया है और फौज ने देश पर कब्जा कर लिया है। यह फौजी तख्ता-पलट सुबह-सुबह हुआ है जबकि अन्य देशों में यह प्रायः रात को होता है। म्यांमार की फौज ने यह तख्ता इतनी आसानी से इसीलिए पलट दिया है कि वह पहले से ही सत्ता के तख्त के नीचे घुसी हुई थी।

2008 में उसने जो संविधान बनाया था, उसके अनुसार संसद के 25 प्रतिशत सदस्य फौजी होने अनिवार्य थे और कोई चुनी हुई लोकप्रिय सरकार भी बने तो भी उसके गृह, रक्षा और सीमा- इन तीनों मंत्रालयों का फौज के पास रखा जाना अनिवार्य था। 20 साल के फौजी राज्य के बावजूद जब 2011 में चुनाव हुए तो सू की की पार्टी ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ को स्पष्ट बहुमत मिला और उसने सरकार बना ली। फौज की अड़ंगेबाजी के बावजूद सू की की पार्टी ने सरकार चला ली लेकिन फौज ने सू की पर ऐसे प्रतिबंध लगा दिए कि सरकार में वह कोई औपचारिक पद नहीं ले सकीं लेकिन उनकी पार्टी फौजी संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करती रही।

नवंबर 2020 में जो संसद के चुनाव हुए तो उनकी पार्टी ने 440 में से 315 सीटें 80 प्रतिशत वोटों के आधार पर जीत लीं। फौज समर्थक पार्टी और नेतागण देखते रह गए। अब 1 फरवरी को जबकि नई संसद को समवेत होना था, सुबह-सुबह फौज ने तख्ता-पलट कर दिया। कई मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और मुखर नेताओं को भी उसने पकड़ कर अंदर कर दिया है। यह आपातकाल उसने अभी अगले एक साल के लिए घोषित किया है। उसका आरोप है कि नवंबर 2020 के संसदीय चुनाव में भयंकर धांधली हुई है। लगभग एक करोड़ फर्जी वोट डाले गए हैं। म्यांमार के चुनाव आयोग ने इस आरोप को एकदम रद्द किया है और कहा है कि चुनाव बिल्कुल साफ-सुथरा हुआ है। अभी तक फौज के विरुद्ध कोई बड़े प्रदर्शन आदि नहीं हुए हैं लेकिन दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने इस फौजी तख्ता-पलट की कड़ी भर्त्सना की है और फौज से कहा है कि वह तुरंत लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करे, वरना उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे।

भारत ने भी दबी जुबान से लोकतंत्र की हिमायत की है लेकिन चीन साफ़-साफ़ बचकर निकल गया है। वह एकदम तटस्थ है। उसने बर्मी फौज के साथ लंबे समय से गहरी सांठ-गांठ कर रखी है। बर्मा 1937 तक भारत का ही एक प्रांत था। भारत सरकार का विशेष दायित्व है कि वह म्यांमार के लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी हो।

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