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संपादकीय

धर्म युद्ध, राजनीति, मीडिया और देश का संविधान

एक न्यूज़ चैनल के एंकर महोदय कल शाम एक कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल के आगामी चुनाव के संदर्भ में कह रहे थे कि वहां जिस प्रकार ‘जय श्री राम’ के नारे पर राजनीति हो रही है , उससे लगता है कि यह चुनावी युद्ध न होकर ‘धर्म युद्ध’ हो गया है । एंकर महोदय का संकेत कुछ ऐसा था कि चुनावी युद्ध को या राजनीति को धर्म युद्ध में परिवर्तित करना बहुत बड़ा पाप है।
वास्तव में ऐसे लोग इस समय भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक परंपराओं की व्याख्या कर रहे हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति की प्रारंभिक जानकारी भी कभी प्राप्त नहीं की है। यह स्वयंभू बुद्धिजीवी हैं और अपने आपको बहुत बड़े विद्वान समझकर प्रस्तुत करते रहते हैं। क्योंकि इनके निजी चैनल होते हैं, इसलिए इन्हें टोकने या धमकाने वाला कोई नहीं होता और यदि इन्हें टोकने व धमकाने की बात की गई तो यह इसे प्रेस पर हमला कहकर इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं जैसे कोई बहुत बड़ा संविधानिक अपराध हो गया है ? जबकि सच्चाई यह है कि इन्हें न केवल टोका जाए अपितु आवश्यकता हो तो धमकाया भी जाए। क्योंकि इनके काम चलाऊ ज्ञान से देश के गंभीर सांस्कृतिक ज्ञान का उपहास करवाया जाना उचित नहीं है। यह देश के पैसा को लूट कर देश के लोगों के समय और ऊर्जा को नष्ट करते हैं और ऊपर से राष्ट्र निर्माण की डींगें मारते हैं। अब यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि आख़िर इनको गलत व्याख्या प्रस्तुत करने का अधिकार दे किसने दिया?
जैसे नेताओं ने देश के विधान मंडलों का सदस्य बनने के लिए किसी भी व्यक्ति की 25 वर्ष की अवस्था का होना ,उसका कोढ़ी, पागल, दिवालिया न होना, और सजायाफ्ता मुजरिम ना होना व भारत का नागरिक मात्र होना स्थापित कर अपने लिए मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने का चोर दरवाजा बनाया हुआ है और वह नहीं चाहते कि इन योग्यताओं के साथ किसी भी जनप्रतिनिधि का उच्च शिक्षित होना, विद्वान होना, धर्मज्ञ होना, वेदों का ज्ञाता होना, बुद्धिमान होना, त्यागी, तपस्वी, ईमानदार, राष्ट्रभक्त होना और कर्तव्यनिष्ठ होना भी जोड़े जाएं , वैसे ही यह निजी चैनल वाले लोग भी एंकर होने या किसी चैनल का संपादक होने के लिए अपनी योग्यताएं अपने आप बनाए हुए हैं । जैसे-जैसे उनके पास आय के स्रोत बढ़ते जाते हैं मंत्री, मुख्यमंत्री या न्यायाधीश या अन्य दूसरे लोग उनके संपर्क और दबाव में आते जाते हैं, वैसे वैसे ही ये उन्हें धमकाने की स्थिति में आते जाते हैं । जितना ही इन लोगों को धमकाने की नौटंकी ये लोग करते हैं उतना ही जनता पर इनका रौब पड़ता है। जिसे ये मोटे पैसे के रूप में कैश करते हैं। यह भ्रष्टाचारियों के इसलिए नहीं धमकाते कि वह भ्रष्टाचार छोड़कर देश सेवा का संकल्प लें बल्कि इसलिए धमकाते हैं कि वह भ्रष्टाचार से कमाए पैसे में से कुछ इन्हें भी दें, इस प्रकार ‘मंथली’ लेने वाले लोग मीडिया में बहुत बड़ी मात्रा में घुस गए हैं।
जहां भारतवर्ष के सभी समाचार पत्रों का रजिस्ट्रेशन होता है दिल्ली के उस आर एन आई कार्यालय में बहुत बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। लेकिन कभी किसी एक भी मीडिया कर्मी ने वहां के इस भ्रष्टाचार पर कलम नहीं चलाई है । कारण केवल एक है कि उस भ्रष्टाचार से उन्हें भी कमाने का अवसर प्राप्त होता है।
आज जब देश अपना 72 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तब कुछ बातों पर चिंतन करने की आवश्यकता है। धर्म युद्ध के विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि धर्म युद्ध भारतीय संस्कृति का बहुत ही पवित्र और एक पुरानी परंपरा को प्रकट करने वाला शब्द है । रामचंद्र जी ने भी धर्म युद्ध किया था, और कृष्ण जी ने भी धर्म युद्ध ही किया था। इसलिए कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहकर उन्होंने उसकी महत्ता प्रकट की थी। धर्म युद्ध का अभिप्राय है अनैतिक, अधर्मी, अत्याचारी, दुराचारी, दुष्ट, देशद्रोही, राष्ट्रविरोधी लोगों के विरुद्ध संघर्ष । मानवता और नैतिकता का उपहास करने वाले लोगों का सफाया करने के संकल्प का नाम भी धर्म युद्ध है । जो लोग किसी भी प्रकार से मानवता का अहित करते हैं ,उनका विनाश करना भी इसी धर्म युद्ध की श्रेणी में आता है।
मीडिया में कुछ ऐसे मूर्ख भी घुस चुके हैं जो जिहाद और धर्म युद्ध को एक जैसा मानते हैं । इन मूर्खों को यह समझना चाहिए कि जिहाद विपरीत संप्रदाय शरीफ लोगों के विरुद्ध किया जाने पाशविक युद्ध है, जबकि धर्म युद्ध पापी लोगों के संहार का नाम है।

भारतीय परंपरा में धर्म युद्ध की इस परिभाषा को समझकर उपरोक्त एंकर महोदय को यह समझना चाहिए कि ऐसे में यदि पश्चिमी बंगाल का चुनाव युद्ध उन देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, अत्याचारी और अनाचारी लोगों की सफाई के अभियान के रूप में परिवर्तित होकर धर्म युद्ध बन जाता है जो इस पवित्र भूमि को अपनी आतंकी सोच से अपवित्र करते रहे हैं और एक वर्ग विशेष पर अत्याचार करने को अपना राजनीतिक अधिकार मान चुके हैं तो यह बहुत अच्छी बात होगी। हमारा मानना है कि पश्चिम बंगाल के चुनावी युद्ध को यथाशीघ्र धर्म युद्ध बन ही जाना चाहिए।
आज जबकि देश अपना 72 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तो सारे देश में देशविरोधी, राष्ट्रद्रोही, आतंकी और अनाचारी लोगों के विरुद्ध अपने संकल्प को भी केंद्र सरकार को आज से धर्म युद्ध की संज्ञा देनी चाहिए।
जिन लोगों को जय श्रीराम के नारे से अपनी बेज्जती अनुभव होती है वे नहीं जानते कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम राजनीति और राजधर्म के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। क्योंकि उन्होंने मर्यादा कभी नहीं और ना कभी छोड़ी । उन्होंने अपने विरोधी रावण तक से सिर झुका कर राजनीति का उपदेश लिया था।
जबकि आज हम देख रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जाते हैं तो टीएमसी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उनसे अभिवादन तक करने से अपने आपको बचाने का प्रयास करती हैं। वे स्वयं देश के प्रधानमंत्री का अपमान करती हैं और फिर जनता में आकर कहती हैं कि जय श्रीराम के नारे से उनको जानबूझकर अपमानित किया गया।
हमारा मानना है कि राजनीतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करना बहुत शर्मनाक है। ये घटनाएं देश के गणतंत्र के लिए काला दाग हैं। सारी राजनीति को और राजनेताओं को आज अपने गिरेबान में झांककर यह अनुभव करना चाहिए कि राजनीतिक मर्यादा यदि भंग होती रहेंगी तो इनका देश की एकता और अखंडता पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? हमारे संविधान निर्माताओं ने कहीं पर भी यह नहीं लिखा है कि केंद्र में यदि किसी अन्य पार्टी की सरकार है और प्रदेश में किसी अन्य पार्टी की सरकार है तो ऐसे में राजनीतिक मर्यादा और राजनीतिक शिष्टाचार का पालन नहीं किया जाएगा । देश की हर संविधानिक परंपरा रही है कि प्रधानमंत्री चाहे किसी भी पार्टी का हो और किसी प्रान्त का मुख्यमंत्री भी चाहे किसी भी पार्टी का हो, उन्हें किन्हीं विशेष अवसरों पर एक साथ आने पर राजनीतिक शिष्टाचार को निभाना ही पड़ेगा।
वास्तव में हमारे देश की वर्तमान राजनीति उस दलदल में फंसी खड़ी है जिसमें से उसे निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा। इसका कारण केवल एक है कि हमारे देश के नेता संविधान की शपथ लेकर संविधान की ही धज्जियां उड़ाते रहते हैं। उसी का एक अशोभनीय उदाहरण पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री श्री मोदी का अपमान करके और जय श्री राम के नारों को अपनी बेइज्जती समझकर प्रस्तुत किया है।
पंडित नेहरू के शासनकाल में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जब उन्होंने अपने धुर राजनीतिक विरोधियों को भी गले लगाने का काम किया था। यदि उस समय वह किसी ऐसे प्रदेश में जाते थे जहां कांग्रेस की सरकार न होकर किसी अन्य पार्टी की सरकार होती थी तो वहां का मुख्यमंत्री भी उन्हें वैसा ही सम्मान देता था जैसा एक प्रधानमंत्री को मिलना अपेक्षित है। अतः जब प्रधानमंत्री मोदी ममता बनर्जी को बहन ममता बनर्जी कह रहे थे तब यदि ममता बनर्जी भी अपनी ओर से उन्हें वैसा ही ममतामयी संबोधन देकर पीएम को ‘बड़े भैया’ कहकर संबोधित कर देती तो राजनीति के उत्कृष्ट उदाहरण पर सारा देश तालियां बजाता। पर ममता बनर्जी तो अपने घर आए अतिथियों का अपमान करने के लिए पहले से ही प्रसिद्ध रही हैं । उन्होंने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति जब हठीला दृष्टिकोण अपनाकर उनकी सरकार को अस्थिर करने का प्रयास किया था तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी स्वयं चलकर उनके घर गए थे और उनकी मां के पैर छुए थे। तब भी प्रधानमंत्री की इस दरियादिली का निर्मम ममता के हृदय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
देश के 72 वें गणतंत्र दिवस के इस पवित्र अवसर पर आज देश के लोगों को अपने नेताओं के इस प्रकार के आचरण पर भी चिंतन करना चाहिए और राजनीतिक दलों पर इस बात के लिए दबाव बनाना चाहिए कि वे संवैधानिक मर्यादाओं का पालन हर स्थिति में करेंगे , तभी देश के संविधान की रक्षा हो सकती है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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