नोटिस की एंट्री के नाम पर किसान बनाम सरकार की लड़ाई में आया नया मोड़

 

किसान बिल के विरोध में लगातार दिल्ली की सीमा डटे हुए हैं। जिनकी कई बार सरकार से चर्चा भी हो चुकी लेकिन परिणाम जस के तस बने हुए हैं। क्योंकि न सरकार बिल को वापस लेने के लिए तैयार हो रही और न ही बार्ड़र पर डटे हुए किसान सरकार की नीति से सहमत हो रहे हैं। बड़ी ही उहापोह की स्थिति बनी हुई है। जिसमें कई किसानों की मौतें भी हो चुकी हैं। दोनों ओर के अपनी-अपनी नीति और भविष्य है। सरकार लगातार बिल को किसानों के हित के लिए अत्यंत लाभकारी बता रही है। वहीं किसान सराकर के द्वारा बनाए हुए बिल में पूर्ण रूप से हानि की बात कह रहे हैं। जिसमें किसान नेताओं के अपने तर्क हैं। सरकार ने किसानों को कई बार बात करने का निमंत्रण भी दिया लेकिन बात अबतक नहीं बनी। जिसमें किसान लगातार दिल्ली की सीमा पर बैठे हुए हैं। दिल्ली की सीमा पर किसान सरकार के द्वारा पारित किए गए बिल के खिलाफ अपना विरोध लगातार दर्ज करवा रहे हैं। लेकिन इस आंदोलन में एक अहम मोड़ आ गया क्योंकि देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी उतर गई। जिसमें कारण यह है कि देश विरोधी ताकतों के द्वारा किसान आंदोलन को फंडिंग किए जाने की कोई सूचना जाँच एजिंसी को लगी है। जिसके संदर्भ का संज्ञान लेते हुए देश की जाँच एजिंसी ने किसान आंदोलन से जुड़े हुए कुछ लोगों के खिलाफ नोटिस जारी किया है। जिसमें जाँच के बाद ही सच्चाई का पता चलेगा। क्योंकि जाँच से पहले कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि देश सर्वप्रथम है। अतः देश की सुरक्षा व्यवस्था सबसे ऊपर है। खास बात यह है कि यह नोटिस ऐसे समय पर आया है जिसकी टाईमिंग को लेकर सियासत का बाजार भी गर्म हो चला है। क्योंकि किसान अपने प्रदर्शन को और आगे बढ़ाने की बात कह रहे थे। जोकि दिल्ली के अंदर 26 जनवरी को ट्रैक्टर मार्च के रूप में विरोध प्रदर्शन की बात कह रहे थे। जिसमें किसानों का कहना है कि ट्रैक्टर मार्च एक ऐताहिक मार्च होगा जिसके माध्यम से हम अपना विरोध दर्ज करवाएंगें।

खास बात यह है कि एनआईए की नोटिस के बाद किसानों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने का मौका भी धरे धराए विपक्ष को मिल गया। विपक्ष और तेजी के साथ सरकार पर हमलावर हो गया। एनआईए के समन में किसान आंदोलन से जुड़े कई किसान नेताओं समेत कई लोगों को समन भेजा गया है। संगठनों के प्रमुखों के साथ-साथ कलाकार ट्रांसपोर्टर आढ़तिए पेट्रोल पंप संचालक तथा जत्थेदारों को भी शामिल किया गया है। इनसे पूछताछ के सिलसिले की शुरुआत एनआईए अलग-अलग तारीखों पर करने जा रही है। उधर सरकार से भी किसानों की अगली वार्ता 19 जनवरी को होने वाली है। इस नोटिस पर किसानों के अपने तर्क भी हैं। किसान नेताओं का मानना है कि आनन-फानन में इसलिए एनआईए ने पूछताछ के लिए तलब किया है ताकि इस नोटिस को कोर्ट की सुनवाई का आधार बनाया जा सके। जिसको आधार बनाकर किसान प्रदर्शन को बंद करवाया जा सके।

किसानों के अगर पूर्व में हुए आंदोलन पर नजर डालें तो भारत के स्वाधीनता आंदोलन में जिन लोगों ने शीर्ष स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई उनमें किसानों का अहम योगदान रहा है। देश में नील पैदा करने वाले किसानों का आंदोलन चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली में जो आंदोलन हुए थे इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं ने किया। किसानों के आंदोलन की शुरुआत सन् 1859 में हुई थी। अंग्रेजों के द्वारा गढ़ी जाने वाली नीतियों के कारण सबसे ज्यादा किसान ही प्रभावित हुए थे। सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला था क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से ही उपजे थे। वास्तव में जितने भी किसान आंदोलन हुए उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। उस समय के समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण तथा उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। सन् 1859-1860 में अपनी आर्थिक मांगों के संदर्भ में किसानों के द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस समय का एक विशाल आंदोलन था। इसका मुख्य कारण यह था कि अंग्रेज अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली-सी रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। अंग्रेजों के द्वारा किया जाने वाला यह एक भयानक शोषण था। जिसमें भारतीय किसान पूरी तरह से पिस रहा था क्योंकि हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी मेहनत मजदूरी भी नहीं प्राप्त होती थी। साथ ही अंग्रेजों की बरबरता और झेलनी पड़ती थी। जिसके बाद सन् 1873 में पाबना के यूसुफ सराय में किसानों ने मिलकर एक कृषक संघ का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य सभाएं आयोजित करना होता था ताकि किसान आधिकाधिक रूप से अपने अधिकारों के लिए सजग हो सकें।

इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो दक्कन का विद्रोह एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा वरन देश के विभिन्न भागों में फैला। यह आग दक्षिण में भी लगी क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का भरपूर शोषण कर रहे थे। किसानों के साथ हो रहे अन्याय की पराकाष्ठा यह थी कि दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर ने किसान के खिलाफ अदालत से उसके घर की नीलामी की डिग्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में करडाह गांव से हुई।

उत्तर प्रदेश की धरती पर अगर नजर डालें तो फरवरी सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में ‘किसान सभा का गठन किया गया। सन् 1919 के अं‍तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने एका आंदोलन नामक आंदोलन चलाया। इसी तरह केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में विद्रोह किया गया। जिसकी अगुआई महात्मा गांधी तथा शौकत अली एवं मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं नेताओं ने किया।

अतः किसान आंदोलन तो सदियों से चला आ रहा है। जोकि समय-समय पर अपनी समस्याओं को लेकर देश के सामने आता है लेकिन समस्याओं का मूल निराकरण अबतक नहीं हो सका। मध्य प्रदेश का किसान आंदोलन इतिहास के पन्नों में एक काले अध्धाय के रूप में सदैव के लिए दर्ज हो गया जिसमें किसानों को गोलियों का निशाना बनाया गया। देश के फटेहाल किसान की तस्वीर किसी से भी छिपी हुई नहीं है। आर्थिक स्थिति से पूरी तरह से तंग किसान कर्ज के बोझ में दबा हुआ है। पक्ष और विपक्ष की राजनीति में किसानों की बलि देना किसी भी दृष्टि से सही नहीं है। क्योंकि पक्ष और विपक्ष की सियासी खेमे बंदी से अबतक किसानों का किसी भी प्रकार का कोई भला नहीं हुआ। बात अगर एमएसपी की जाए तो एक कड़ुआ सत्य यह भी है कि देश के किसानों की अधिकतर आबादी एमएसपी मूल्य का नाम भी नहीं जानती। क्योंकि मंडियों में एमएसपी पर किसानों की फसलों की खरीद ही नहीं होती। जोकि किसान एमएसपी के बारे जानता है वह मंडियों के चक्कर लगाकर थक जाता है। अंत में उसे किसी साहूकार के हाथों ही अपनी उपज बेचनी पड़ती है। जिससे किसानों के हालात दिन प्रतिदिन और बदतर होती चली जा रही है। किसानों की यह स्थिति कोई आज की नई परिस्थिति नहीं है। किसानों की यह समस्या सदियों से चली आ रही है। जिसके लिए किसी भी प्रकार की कोई ठोस योजना अबतक किसी भी सरकार ने नहीं बनाई। किसानों के मुद्दे पर किसी भी राजनीतिक पार्टी का ठोस स्टैंण्ड नहीं रहा। आजादी से लेकर आजतक सियासत ने अपनी सत्ता तो चमकाई लेकिन वोट लेने के बाद किसानों की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। अगर सरकार हकीकत में किसानों को एमएसपी देना चाहती है तो सरकार के पास बिना किसी प्रकार का अतरिक्त खर्च किये हुए भी समस्या के निराकरण का विकल्प खुला हुआ है। सरकार को चाहिए कि सरकारी राशन की दुकान पर किसानों की फसलों की खरीद को सुनिश्चत कर दे। जिससे कि किसानों को कहीं चक्कर भी नहीं लगाना पड़ेगा साथ ही सरकार का किसी भी प्रकार का अतरिक्त व्यय भी नहीं होगा। क्योंकि सरकारी गल्ले की दुकान प्रत्येक ग्राम पंचायत में होती है। जिसका लाभ सरकार और किसान दोनों को मिल सकता है। इस फार्मूले पर नीति आयोग को विचार करना चाहिए।

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