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कविता भारतीय संस्कृति

भक्ति रस में डूब जा जो चाहे कल्याण

 

भक्ति रस में डूब जा, जो चाहे कल्याण

भक्ति रस में डूब जा,
जो चाहे कल्याण।
रसना पै हरि -ओ३म् हो,
जब निकले तेरे प्राण॥ 1395॥

एक हरि का आसरा,
बाकी जग में भीड़।
सर सूखे हंसा उड़े ,
खाली होगा नीड़॥1396॥

न्याय करे संसार में,
ईश्वर का कानून ।
बिजली की तरह टूटता,
एक दिन देता भून॥ 1397॥

ब्रह्य – रूप धारण करो ,
जब हो मिलन की चाह।
भक्ति-भाव हो चित्त मे,
मिले प्रभु की रहा ॥1328॥

केश श्वेत होने लगे ,
चित को भी कर श्वेत।
काल चिरैया हंस रही,
पक़न लगा जब खेत॥1399॥

जीवन जिया जिस भाव से,
वैसी अन्त मति।
ब्रह्म भाव में जी सदा,
पावै परम गति ॥1400 ॥

सत्वारोहण रोज कर,
मन हो जाय समत्त्व।
सात्विक जीवन श्रेष्ठ है ,
अक्षुण्ण हो अस्तित्व ॥1401॥

आत्मस्वरूप में दो छिपे ,
एक असुर एक सन्त।
जगा ले अपने सन्त को ,
अच्छा होगा अन्त॥1402॥

बाहर क्रियाशील हो ,
अन्दर से हो शान्त।
पुराण – पुरुष को पायेगा,
ध्यान लगा एकांत ॥1403॥

नित्य सतत् हरि को भजै,
नित्य करै सत् काम।
सत् चिन्तन सत्कर्म से ,
पावै परम को धाम ॥1404॥

अणुरणियान अनुशास्ता,
कहते प्रभु को वेद।
महिमा प्रभु की अनंत है ,
योगी जानै भेद ॥1405 ॥
अणुरणियान अर्थात् – सूक्ष्म से भी सुक्ष्म
भेद अर्थात – रहस्य
अनुशास्ता अर्थात – सब पर शासन करने वाला

ब्रह्मार्पण कर्म से ,
मिले शांति प्रेम आरंभ।
आवृत्ति का अंत हो,
सुख हो सच्चिदानंद॥1406॥

आवृत्ति अर्थात आवागमन ब्रह्मर्पण अर्थात प्रभु को समर्पित

धनो मे धन है दिव्य – धन,
खोलें मुक्ति – द्वार ।
जो इसका संजय करें,
लेय परलोक सुधार॥ 1407॥

अनुवर्तन गुण का करे,
दुर्गुण का बहिष्कार ।
परम – पुरुष देता उसे ,
कृपा का पुरस्कार ॥1408॥

अनुवर्तन अर्थात आचरण में लाना

अन्त समय हिले,
बोले हरि का नाम।
पुण्यशील कोई आत्मा ,
पावै हरि का धाम ॥1409॥

अन्त समय हरी – नाम को,
लेता ऐसा जीव ।
जीवन भर जिसने जपा ,
केवल प्यारा पीव॥1410॥

आत्मिक – सौन्दर्य तेरा,
गहना रहे हमेश।
इस सौन्दर्य से मिले ,
स्वर्ग और सर्वेश ॥1411॥
क्रमशः

प्रो0 विजेंद्र सिंह आर्य

संरक्षक उगता भारत

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