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इतिहास के पन्नों से

भारत का इतिहास देता है आर्थिक समस्याओं का भी समाधान

 

रवि शंकर

आज भारत की आर्थिक व्यवस्था डगमगा रही है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त डालर के मुकाबले में रुपया अत्यन्त कमजोर हो रहा है। उद्योग-धन्धों में खलबली मच रही है। एक प्रकार से देश में अराजकता का माहौल जैसा दिखाई पड़ रहा है। अभी संसद के मानसून सत्र में भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने वक्तव्य दिया था, वास्तव में देश के मुखिया से ऐसे समय में सभी अपेक्षा करते हैं कि वह संकट निदान बताएंगे, समस्या का समाधान रखेंगे। किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। जितना प्रधानमंत्री ने देश को बताया जनता तो शायद उससे अधिक जानती है तो बताने का कोई लाभ नहीं हुआ।
भारत में आर्थिक संकट कोई पहली बार नहीं आया हंै। अति प्राचीन भारत को ऐसी परिस्थितियों से दो चार होना पड़ा होगा। तभी प्राचीन भारत के अर्थशास्त्रियों ने संकटकालीन नीतियों पर विचार किया है। इन नीतियों को युगानुकूल परिर्वन करके हम उनका उपभोग कर सकते हैं। पहली बात तो यह है कि प्राचीन भारत के संविधान निर्माताओं ने देश के आर्थिक विकास के लिए बुद्धिमान शक्ति सम्पन्न शासक की आवश्यकता बताई थी। आचार्य भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को कहा था कि जनता का पहला कर्तव्य होता है कि वह अपना योग्य शासक चुनें, यदि शासक निस्तेज होगा तो निश्चित ही वहां अराजकता का वातावरण होगा, समाज विरोधी, चोर, डाकू, जनता का शोषण करने लगेंगे। देश को अराजकता से केवल शासक ही बचा सकता है।

इतना ही नहीं, महाभारत के शान्ति पर्व में राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए कहा गया है कि राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए धन अत्यन्त आवश्यक है। कोई भी देश वैभव सम्पन्न तभी बन सकता है जब देश के निवासियों को उनकी योग्यता के अनुसार कार्य और आजीविका दी जाए जिससे जीवन यापन में कोई कठिनाई न हो। लोग अपनी शक्ति, योग्यता, कुशलता और उद्योगों से सम्पन्न हों। उनकी सम्पन्नता ही किसी देश की सम्पन्नता का आधार होती है।
आधुनिक नीति नियन्ताओं को भी शायद ऐसे सारे उपायों का पता होगा किन्तु यह तो सब पुरानी बातें हैं, आज भारत चांद पर पहुंच चुका है, जैसी बातें सोच कर नए उपायों को अपनाने की योजना बनाते हैं और अमल में भी लाते हैं जो अस्थाई सिद्ध होती हैं। प्राचीन भारत में मुद्रास्फीति के विषय में पर्याप्त विचार किया गया था। इसके नियन्त्रण हेतु उपाय भी सुझाए गए थे। मुद्रा स्फीति से देश के अनुमानित व्यय अत्यधिक बढ़ जाते हैं। ऐसी दशा में देश की उन्नति के लिए चल रही बड़ी-बड़ी योजनाओं में कटौती करनी पड़ती है। जब कटौती होती है तो बेरोजगारी एवं कर वृद्धि में बढ़ोत्तरी की जाती है। इसका परिणाम जनता को भोगना पड़ता है इसलिए भारत के प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने मुद्रास्फीति का विशेष ध्यान रखा था।
आचार्य शुक्र ने लेखा-जोखा रखने के विषय में कहा है कि सबसे पहले आय उस के बाद व्यय की योजना बनानी चाहिए। उत्पादन के अनुसार ही उपभोग करना चाहिए। मनुष्य की जितनी आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति के लिए उसे उतना ही श्रम करना होगा। आय-व्यय, उत्पादन, उपभोग दोनों पक्षों का समान रूप से विचार करना चाहिए।
प्राचीन आर्थिक विचारक आचार्य कौटिल्य ने कहा है कि गरीब, शक्तिहीन, बालक, वृद्ध, रोगी, कष्ट में पड़े हुए लोगों का भार शासक पर होता है और इनकी जिम्मेदारी शासक को ठीक ढंग से उठानी चाहिए। अर्थशास्त्री कामन्द ने देश की समृद्धि के लिए कुछ सुझाव बताए हैं। भारत कृषि प्रधान देश है अत: यहां की राष्ट्र समृद्धि कृषि एवं प्रकृति पर निर्भर है इसलिए पशु पालन व कृषि से उत्पादित वस्तुओं से अधिक व्यापार करना चाहिए। आज के आर्थिक संकट के निवारण के लिए प्राचीन भारत के अर्थशास्त्रियों ने भारत की खुशहाली के जो मूल मंत्र दिये हैं उन पर विचार करना अत्यंत आवश्यक हो गया है।

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