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आतंकवाद राजनीति

बंदूक गोली के सामने ‘हिंदू राजशाही’ की बात

*राष्ट्र-चिंतन*

*विष्णुगुप्त*

आश्चर्यजनक ढंग से नेपाल में बन्दूक गोली की कम्युनिस्ट तानाशाही के बीच हिन्दू राजशाही की बात क्यों जोर पकड रही है? इसके लिए आधुनिक युग में माक्र्स की विचारधारा जम्मेदार है?माक्र्सवाद एक अस्पष्ट विचारधारा है जिसमे पूंजी के अतिरंजित विरोध का आग्रह है। पूरा ध्यान मजदूरों के हितों पर केन्द्रित है, मजदूर को छोड़कर अन्य सभी प्रश्नों पर यह विचार धारा गौण होती है। अभी तक इस विचार का कोई स्पष्ट निष्कर्ष सामने नहीं आया है कि जब मजदूर हित ही सर्वोपरि होगी तब कोई पूंजी निवेश करेगा क्यों? अगर कोई पूंजीनिवेश नहीं करेगा तो फिर कोई उद्योग धंधा विकसित कैसे होगा? अगर कोई उद्योग धंधा विकसित नहीं होगा तो फिर मजदूरों को काम कहां मिलेगा? यही कारण है कि सोवियत संघ से लेकर चेकस्लोवाकिया तक जहां -जहां पर कम्युनिस्ट तानाशाही थी वहां-वहां पर प्रतिस्पद्र्धा के गौण होने के बाद विखंडन की प्रक्रिया सुनिश्चित हुई, कम्युनिस्ट तानाशाहियों के दफन होने की प्रक्रिया चली, जनता ने कम्युनिस्ट तानाशाहियों को उखाड़ फेंकने में ही अपनी भलाई समझी। चीन जरूर अपने आप को जनता के कोपभाजन बनने से रोक पाया पर चीन ने मजदूर हित को ही गौण कर दिया और पूंजीवाद से अपना हित सुरक्षित कर दिया। आज चीन में एक ऐसा कानून है जो सीधे तौर पर मजदूर हितों पर बुलडोजर चलाता है। हायर और फायर नामक कानून नियोक्ता को मजदूर की नियुक्ति और बर्खास्तगी का अधिकार देता है, इसमें राजसत्ता का हस्तक्षेप गौण हो जाता है।


आधुनिक समय में जहां-जहां भी कम्युनिस्ट सरकारें आयी वहां-वहां अराजकता, अर्थव्यवस्था विध्वंस और राजनीतिक हिंसा की बाढ आयी और लोकइच्छाएं या दमन हुई या फिर कम्युनिस्ट तानाशाही कायम करने के लिए लोकइच्छाओं का विध्वंस कर दिया गया। दुनिया में दो ऐसे देश है जो उपर्युक्त कसौटी पर खरे उतरते हैं। एक उदाहरण नेपाल का है और दूसरा उदाहरण अमेरिकी देश वेनजुएला का है। वेनजुएला के लोगों ने हयोगो चावेज नामक कम्युनिस्ट तानाशाह को सत्ता सौंप दी, वह कम्युनिस्ट तानाशाह घोर पूंजी विरोधी था और अमेरिका जैसे देश को नेस्तनाबूद करने की कसमें खाता था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वेनजुएला का भी वही हाल हुआ जो सोवियत संघ का हुआ था। वेनजुएला की अर्थव्यवस्था विध्वंस हो गयी, लोग भूख से तडप-तडप कर मरने लगे। वेनजुएला की एक तिहाई आबादी पडोसी देशों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो गयी। अब दूसरा उदाहरण नेपाल को ही देख लीजिये। नेपाल में माओवाद को मिली सफलता से दुनिया के अंदर में बवडर उठा था कि कार्ल माक्र्स और बन्दूक-गोली का जमाना लौट गया। माओवादी भी नेपाल को एक आदर्श कम्युनिस्ट देश में तब्दील करने की प्राथमिकता रखते थे। 240 साल से भी अधिक समय की राजशाही का नेपाल में अंत हुआ और माओवादी व अन्य कम्युनिस्टों ने मिल कर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनायी। नेपाली कांग्रेस की अराजकता और निरंकशुता के विकल्प के तौर पर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को सत्त्ता मिल गयी। पुराने माक्र्सवादी ओली प्रधानमंत्री बन गये। पर माक्र्स की पुरानी विचार धारा सर्वश्रेष्ठ हो गयी। पूंजी निवेश और संस्कृति के प्रश्न पर कम्युनिस्ट अपने आप को बदल नहीं सके। नेपाल के प्रधानमंत्री ओली और माओवादी नेता प्रंचड नेपाल के संस्कृति खोर बन गये। नेपाल में संवैधानिक तौर पर हिन्दुत्व का दमन पहले ही कर दिया गया था और धर्मनिरपेक्षता को प्रधान बना दिया गया था। नेपाल की जो संस्कृति थी उस पर भी राजनैतिक तौर पर चोट हुई, उस चीन के साथ जुगलबंदी करने की पूरी कोशिश हुई जो चीन अपने पडोसियों के दमन और उपनिवेशिक नीतियों को लागू करने वाला समझा जाता है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि नेपाल आज भ्रष्टचार और भूखमरी के केन्द्र में स्थापित हो गया है।
नेपाल में कम्युनिस्टों की बन्दूक-गोली की सरकार और तानशाही के सामने एक बार हिन्दू राजशाही की बात न सिर्फ हो रही है बल्कि उसके प्रति विशेष आग्रह भी देखा जा रहा है, यह अलग बात है कि माक्र्सवादी, लेनिनवादी और माओवादी विचार के तनाशाहों की ंिचता अभी विकराल रूप धारण करने से बची है। पिछले दो माह से नेपाल के अंदर में हिन्दू राजशाही की मांग जोर पकड़ रही है। नेपाल की राजधानी काठमान्डू ही नहीं बल्कि छोटे से लेकर बडे शहरों में भी हिन्दू राजशाही के पक्ष में प्रदर्शन हुए हैं। प्रदर्शन में बन्दूक गोली वाली कम्युनिस्ट तानाशही के खिलाफ आक्रोश भी देखा जा रहा है। नेपाल में राजशाही के अंत के बाद ऐसा आग्रह नहीं देखा जा रहा था। राजशाही के पक्ष में चंद वैसे लोग थे जो पुरातन विचार धारा के लोग थे, हम इन्हें पुरातन पीढी के वाहक भी कह सकते हैं। ऐसा इसलिए संभव हो सका था कि नेपाल की राजशाही में हुए अप्रिय घटनाओं के बाद राजशाही प्रेम पर प्रश्न चिन्ह खडा हुआ और नेपाल के लिए राजशाही को गैरजरूरी समझ लिया गया था। पर विचार करने वाली बात यह है कि प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले अधिकतर युवा लोग हैं। जब किसी आंदोलन में युवाओं की भागीदारी होने लगती है तब यह मान लिया जाता है कि आंदोलन न केवल आगे बढेगा बल्कि आंदोलन अपने लक्ष्य को भी प्राप्त कर लेगा। राजशाही की वापसी का समर्थन करने वाली नेपाल प्रजातंत्र पार्टी पहले की अपेक्षा में ज्यादा मजबूत होकर उभरी है।
क्या बन्दूक-गोली की कम्युनिस्ट तानाशाही को पराजित कर नेपाल में एक बार हिन्दू राजशाही की स्थापना हो सकती है? क्या नेपाल के हित में राजशाही की वापसी है? नेपाल क्या एक बार फिर अराजकता की ओर अग्रसर है? अगर नेपाल में एक बार फिर हिन्दू राजशाही कायम हुई तो फिर माओवादी क्या फिर बन्दूक और गोली की संस्कृति अपना सकते हैं? हमें ध्यान रखना चाहिए कि लोकतंत्र में कोई भी विचार रातोरत सत्ता के शिखर पर बैठ जाता है और राज शिखर से नीचे चला आता है। भारत इसका एक उदाहरण है। भारत में कभी हिन्दुत्व के विचार धारा को सांप्रदायिक कहा जाता था और यह स्थापित था कि हिन्दुत्व के विचार धारा से भारत की एकता व अखंडता खंडित होगी, इसलिए हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी और संघ को अक्षूत बना कर रखा जाना चाहिए। लेकिन हिन्दुत्व के प्रति अति रंजित सोच को लेकर प्रतिक्रिया हुई। प्रतिक्रिया जब हुई तब भारत के मुख्य धारा में हिन्दुत्व स्थापित हो गया। आज नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री पद दूसरी बार बैठना इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। ऐसा ही राष्ट्रवाद फ्रांस सहित अन्य यूरोपीय देशों में देखा जा रहा है। नेपाल की शासन व्यवस्था अभी लोकतांत्रिक है। क्युनिस्ट तानाशाही चाह कर भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधिर करने में सफलता हासिल नहीं कर सकते हैं। अगर साफसूथरी चुनाव प्रक्रिया आगे भी चलती रहेगी तो फिर नेपाल के अंदर में राजशाही की वापसी संभव भी हो सकती है। इधर कई ऐसी कम्युनिस्ट तानाशाही की राजनीतिक घटनाएं हुई हैं जिससे नेपाल के हिन्दुओं के मन में अपनी सुरक्षा और आयातित संस्कृति के खतरे को लेकर चिंता आगे बढी है। नेपाल आयातित संस्कृति की चपेट में है। आयातित संस्कृति की हिंसा बहुत ही खतरनाक है। कभी शांत रहने वाला नेपाल आज आयातित संस्कृति की हिंसा से दग्ध है। उधर अमेरिका और यूरोपीय देशों की मिशनरियां नेपाल की गरीबी और राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठा कर धर्मातंरण का खेल खेल रही है। आयातित संस्कृति की हिंसा और अमेरिका-यूरोप की मिशनरियों के खेल पर कम्युनिस्ट तानाशाही उदासीन ही नहीं बल्कि समर्थन में खडी है।
नेपाल के प्रधानमंत्री ओली और माओवादी नेता प्रचंड अपनी खुशफहमी छोड दे तो फिर नेपाल के राजशाही की वापसी रूक सकती है, राजशाही की वापसी को लेकर उठा बंवडर कमजोर पड सकता है। लेकिन उम्मीद नहीं है कि उनकी यह खुशफहमी टूटने वाली है। जब अराजकता कम नहीं होगी, रोजगार के प्रश्न पर माक्र्सवादी दृष्टि अपना कर निवेश और उद्योग घंघों पर चाबुक चलता रहेगा, भ्रष्टाचार चरम पर होगा, राजनीतिक अस्थिरता होगी तो ऐसी स्थिति में नेपाल की अर्थव्यवस्था भी गति नहीं पकडेगी। आम जनता में आक्रोश भी बंवडर कर रूप धारण करेगा। नेपाल में अभी दो ही राष्ट्रीय मुख्य धारा की पार्टियां हैं। एक नेपाली कांग्रेस और दूसरी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी। भ्रष्टचार और दूरदर्शिता के अभाव में नेपाली कांग्रेस को आम जनता ने पहले ही खारिज कर चुकी है पर अभी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में हैं। अगर राष्ट्रीय मुख्य धारा की दोनों पार्टियां जनता के बीच अलोकप्रिय होगी, असफल होगी तो फिर राजशाही पक्षधर प्रजातांत्रिक पार्टी के विस्तार को कौन रोक सकता है? यह खतरा नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के सिर पर मंडरा रहा है। कम्युनिस्ट-माओवादियों को इस खतरे के प्रति उदासीनता अपनाना नुकसानकुन साबित होगा, उनके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी साबित होगी

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*विष्णुगुप्त*
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