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न्याय विभाग के प्रति सरकार की उपेक्षापूर्ण नीतियां

जागेन्द्र सिंह त्यागी
(ए.सी.जे.एम./सिविल जज)
प्रत्येक समाज में व्यक्तियों के आचार-विचार, आचरण व प्रवृत्तियों में अंतर होना स्वाभाविक है। समाज में कुछ व्यक्ति सजग होते हैं, जबकि दूसरे कुछ व्यक्ति इसके विपरीत अपने कत्र्तव्य पालन में अत्यधिक लापरवाह, मिथ्याभाषी तथा दुष्प्रवृत्ति वाले होते हैं। समाज में कुछ व्यक्ति आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं, तो कुछ लालची प्रकृति के भी होते हैं, जिनके मन में हमेशा दूसरे व्यक्तियों की संपत्ति हड़पने अथवा दूसरे व्यक्तियों को परेशान करने की इच्छा जाग्रत होती रहती है। उक्त प्रवृत्तियों की भिन्नता के कारण ही समाज में लड़ाई झगड़े होते रहते हैं, जिससे लोगों में मुकदमेबाजी बढ़ती है। प्राचीन इतिहास के प्रत्येक काल में कोर्ट कचहरी की व्यवस्था होने की जानकारी हमें मिलती है। प्रवृत्तियों की भिन्नता, सामाजिक असमानता एवं विद्वेष के कारण प्रत्येक समाज में, भले ही शासन व्यवस्था कितनी ही अच्छी क्यों न हो, व्यक्तियों के मध्य झगड़े फसाद होने व मुकदमेबाजी होने के प्रमाण मिलते हैं। इन झगड़े फंसादों व संपत्ति के मुकदमों को निर्णीत करने हेतु प्रत्येक शासन व्यवस्था में न्याय की व्यवस्था किया जाना आवश्यक रहा है।
न्यायालय में विवादों का अंतिम निर्णय हो जाने पर व्यक्ति एक सीमा तक संतुष्टï हो जाता है, तथा एक सीमा तक उसकी अन्य कोई अपराध करने की प्रवृत्ति शांत हो जाती है, अथवा उस पर एक सीमा तक रोक लग जाती है। अत: न्याय व्यवस्था का समाज को व्यवस्थित रूप में शांति पूर्वक चलाते रहने में महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि न्याय सस्ता व प्रत्येक व्यक्ति को सुलभ होना चाहिए। न्याय के लिए आवश्यक है कि वह त्वरित भी होना चाहिए। यह न्यायिक उक्तियां हैं, कि न्याय में देरी न्याय न देने के समान है। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वर्तमान समय में आम जनता को सस्ता, सुलभ व त्वरित न्याय मिल पा रहा है? उत्तर स्पष्टï रूप से नकारात्मक ही आता है। आप किसी ऐसे व्यक्ति से बात करिये जिसका कोई मामला न्यायालय में विचाराधीन है, तो वह आपसे यही शिकायत करेगा कि न्यायालयों में कोई काम नही होता, बस तारीख पर तारीख लगती जाती है। कई बार समाचार पत्रों में हम पढ़ते हैं कि बहुत उच्च पदों पर पदासीन व्यक्ति भी यह कहते हैं कि न्यायालयों में मुकदमों के अंबार लगे हैं, लोगों को सस्ता, सुलभ, व त्वरित न्याय मिलना चाहिए। ऐसा कहने वालों में वो लोग भी सम्मिलित होते हैं जो लोगों को न्याय दिलाने में स्वयं भी बहुत कुछ कर सकते हैं, पर करते नही हैं। ऐसे लोगों के वक्तव्य समाचार पत्रों में पढक़र आश्चर्यपूर्ण निराशा होती है।
प्रश्न ये है कि न्याय में देरी क्यों हो रही है? क्या वास्तव में न्यायालयों में सुनवाई का कार्य नहीं हो रहा है, या अत्यधिक धीमी गति से कार्य हो रहा है? क्या अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीश बहुत कम काम कर रहे हैं। अथवा अन्य कुछ कारण हैं जिनसे न्यायालयों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है।
यह उल्लेखनीय है कि न्याय विभाग एक ऐसा विभाग है जिससे जनसाधारण का सीधा संबंध है। परंतु इसके बावजूद आम आदमी को न्याय विभाग तथा न्यायाधीशों के कार्य व क्षेत्राधिकार के विषय में बहुत कम जानकारी है। आम आदमी सोचता है कि न्यायाधीश को किसी मुकदमे को नकारात्मक या सकारात्मक जैसा चाहे वैसा निर्णीत करने का असीम अधिकार है।
जबकि वास्तविकता यह है कि प्रत्येक न्यायाधीश को कानून के दायरे में रहते हुए और पत्रावली पर उपलब्ध मौखिक व दस्तावेजी साक्ष्य के आधार निर्णय करना होता है। इन्हीं से उसके क्षेत्राधिकार की सीमायें तय होती हैं। अधीनस्थ न्यायालयों को न्यायालय में लंबित वादों में से पुराने वादों को वरीयता से निर्णीत करने की बाध्यता भी होती है। प्रत्येक न्यायाधीश को माननीय उच्च न्यायालय द्वारा निधारित मानकों के अनुसार प्रत्येक मास के कार्यदिवसों के बराबर काम करने की भी बाध्यता होती है। प्रत्येक न्यायाधीश द्वारा महा में किये गये कार्य का नक्शा प्रत्येक माह की चार तारीख तक जिला जज के कार्यालय में पहुंचाना भी अनिवार्य होता है। इतना ही नही प्रत्येक अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा निर्णीत किये गये वादों का विवरण नक्शा सहित माननीय उच्च न्यायालय को भेजना आवश्यक होता है।
यदि माननीय उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार कार्य नही होता है तो ऐसे न्यायाधीश को प्रतिकूल प्रविष्टिï भी दे दी जाती है। इतना ही नही यदि किसी अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा माननीय उच्च न्यायालय के द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार लगातार दो तीन वर्ष तक कम काम किया जाता है तो उस स्थिति में उसे सेवा मुक्त किये जाने का दण्ड भी दिया जा सकता है। कई मामलों में ऐसा दण्ड दिया भी गया है। अत: अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा अपनी सेवा को उत्कृष्टï बनाये रखने हेतु तथा भविष्य में होने वाली पदोन्नति को ध्यान में रखते हुए अपनी पूर्ण क्षमता से माननीय उच्च न्यायालय के मानकों से अधिक कार्य करना पड़ता है।
विचारणीय प्रश्न यह भी है कि इस सब के बावजूद न्यायालयों में वादों का अंबार क्यों बढ़ रहा है?
वास्तविकता ये है कि आजादी के बाद न्याय विभाग की ओर सरकार ने उचित ध्यान नही दिया है। यह उल्लेखनीय है कि हमारे देश में न्यायाधीशों की संख्या दुनिया के सभी देशों से बहुत कम है। हमारे देश में उच्च न्यायालयों व माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों सहित न्यायाधीशों की कुल संख्या 18,8,71 है। दस लाख की जनसंख्या के लिए केवल 13.4 न्यायाधीश देश में तैनात हैं। सन 1985 में विधि आयोग द्वारा यहन् सुझाव सरकार को दिया गया था कि न्यायाधीशों की संख्या लगभग पांच गुनी की जानी आवश्यक है। लेकिन इस पर कोई कार्यवाही नही की गयी।
अब वर्तमान में एक न्यायाधीश के न्यायालय में दस न्यायाधीशों के बराबर वाद लंबित हैं। कुछ समय वादों में तारीख लगाने और कुछ पत्रावलियों को यथाशीघ्र निर्णीत कराने हेतु न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं का समय यूं ही गुजर जाता है। प्रत्येक कार्यदिवस में एक निश्चित संख्या में ही वाद नियत किये जाने की वाध्यता न्यायाधीश के सामने रहती है, जबकि अधिवक्ता कई बार अपने वादकारी के हित जल्दी की तारीख चाहते हैं, भारत की संसद तथा राज्यों की विधानसभाओं द्वारा समय समय पर कानून बनाये जा रहे हैं, इन कानूनों के अस्तित्व में आने पर न्यायालयों में हजारों मुकदमे योजित होते हैं। जिससे न्यायालयों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। न्यायालयों के कक्षों की स्थिति भी बहुत अच्छी नही है। वहां बहुत अधिक शोरगुल होता रहता है जिससे कार्यदिवस में लिपिक वर्ग को न्यायिक कार्य करने में बाधा होती है। ऐसे अनेकों कारण हैं जिनसे वादकारियों को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय नही मिल पाता। इनका प्रभाव कानून व्यवस्था पर भी पड़ता है। अत: यदि सरकार वास्तव में चाहती है कि आम जनता को त्वरित न्याय मिले तो उसे न्यायाधीशों की संख्या विधि आयोग की संस्तुति के अनुसार तुरंत बढ़ानी चाहिए, और उपरोक्त इंगित की गयी कमियों को दूर करने का प्रयास भी करना चाहिए।
ऑल इण्डिया जज एसोसिएशन बनाम भारत सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकार को पांच वर्ष में दस लाख जनसंख्या पर पचास जज नियुक्त किये जाने का निर्देश दिया गया था। परंतु सरकार ने उस पर कोई ध्यान नही दिया है, जिससे सरकार का न्याय विभाग के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया स्पष्टï होता है।
1970 तक न्यायालयों में इतने वाद लंबित नही थे। आजादी से पहले अंग्रेज कानून व्यवस्था को न्यायालयों के माध्यम से ठीक रखा करते थे। अनिवार्यत: वाद छह माह में निर्णीत हो जाता था, इससे समाज में न्यायालयों के प्रति एक अच्छा संदेश जाता था। परंतु अब स्थिति में भारी परिवर्तन आया है, जिस पर हम सभ्य समाज के लोगों को गंभीरता से विचार करना होगा। स्थिति को सुधारने के लिए सरकार सहित न्याय विभाग से जुड़े सभी लोगों को और अधिवक्ताओं को भी विचार करना होगा।
यदि सरकार द्वारा न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाते हुए ऐसी व्यवस्था कायम कर दी जाए कि छह माह के अंदर प्रत्येक फौजदारी के मुकदमे का निस्तारण हो जाए तो यह निश्चित है कि फौजदारी मुकदमों में अभियुक्तों को सजा होने की दर कई गुना बढ़ जाएगी, तथा इससे अभियुक्तों में अपराध न करने हेतु भय उत्पन्न होगा। जिससे समाज में अपराधों की संख्या में उल्लेखनीय कमी आएगी और समाज में शांति व्यवस्था स्थापित होगी।
अत: सरकार को आम जनता के हितों की ओर ध्यान देते हुए और बिना देरी किये हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्देशों व विधि आयोग की सिफारिशों के अनुसार अधीनस्थ न्यायाधीशों की संख्या में उचित वृद्घि करते हुए ऐसी न्यायव्यवस्था स्थापित करनी चाहिए जिससे लोगों को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय मिल सके। तभी देश के आम आदमी का विश्वास और आस्था न्याय और न्यायालयों के प्रति बढ़ाने में सहायता मिलेगी। लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह बहुत आवश्यक है।

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