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किसने बनाया चीन को भारत का पड़ोसी, भाग – 3

लेखिका:- प्रो0 कुसुमलता केडिया

5 अप्रैल 1952 को चाउ एन लाई ने नेहरू जी के (भारत सरकार के) राजदूत से कहा कि हमें तिब्बत में अपनी सेनाओं के लिये खाद्यान की आपूर्ति के लिये भारत पर निर्भर रहना पड़ेगा। हम चाहते हैं कि भारत इस मामले में हमारी सहायता करे।
पणिक्कर ने नेहरू को यह बताया और यह कहा कि हमें यह आपूर्ति कर देनी चाहिये। नेहरू ने कहा कि ‘हम जानते हैं कि यह खाद्यान आपूर्ति तिब्बत में मौजूद चीनी सेना के लिये की जा रही है जिन्हें सभी दृष्टियों से इसकी अत्यन्त आवश्यकता है।’


मई 1952 में नेहरू जी ने चीनी सेनाओं के लिये 500 टन अनाज भेजने का आदेश दे दिया। साथ ही यह जोड़ दिया कि हमारे बीच तिब्बत में हमारे हितों के विषय में सामान्य समझौते की आवश्यकता है। 21 जून 1952 को एक पत्रकार सम्मेलन में जब यह पूछा गया कि क्या भारत से चीनी सेनाओं के लिये तिब्बत में चावल भेजा जा रहा है? नेहरू जी ने उत्तर दिया – ‘बहुत अधिक मात्रा में नहीं। सकरे रास्ते और सघन पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण खाद्यान की आपूर्ति अधिक मात्रा में नहीं की जा सकती। उनकी सेना को खाद्यान की अत्यधिक आवश्यकता है। हम उन्हें तिब्बत से बाहर देखना चाहते हैं और इसके लिये बातचीत का वातावरण बने रहना आवश्यक है तथा चीनी सैनिकों को तिब्बत में जीवित रहने में हमारी सहायता इस दृष्टि से ठीक ही है।’ (नेहरू के विशिष्ट कार्य, खंड 18, पृष्ठ 473 से 477)
जब माननीय सांसदों ने चीन में पणिक्कर की भूमिका को लेकर कुछ शंकायें व्यक्त कीं तो नेहरू जी ने उनकी जगह एन राघवन को राजदूत बनाकर भेजा। एन राघवन ने रिपोर्ट दी कि चीन का हमारे प्रति व्यवहार बहुत उदासीनता का है। नेहरू जी ने उत्तर दिया – ‘वे हमारे मित्रवत् हैं।’ फिर एक अन्य पत्र में उन्होंने लिखा – ‘चीन से हमें प्राप्त एक लाख टन चावल की आपूर्ति हम तिब्बत में उनकी सेनाओं के लिये करेंगे। इसके लिये हम परिवहन व्यवस्था बना रहे हैं। अन्य सामग्रियों के विषय में भी हम विचार विमर्श करेंगे।’ शीघ्र ही नेहरू जी ने चीनी सेना के लिये खाद्यान के साथ ही पेट्रोल और डीजल भी तिब्बत भेजे। (नेहरू के विशिष्ट कार्य, खंड 23, पृष्ठ 354-355 एवं खंड 26 पृष्ठ 483) इतना तो रिकार्ड में है। अनुमान है कि उन्होंने माओ के सैनिकों को तिब्बत पर कब्जा करने के लिए शस्त्रास्थ भी सुलभ कराए।
28 फरवरी 1952 को जब पत्रकार सम्मेलन में नेहरू जी से पूछा गया था कि क्या तिब्बत में चीनी सेनाओं ने कोई घुसपैठ की है, तो उनका उत्तर था – ‘मुझे इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है।’ (नेहरू के विशिष्ट कार्य, खंड 17, पृष्ठ 510)
12 अप्रैल 1952 को उन्होंने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि चाउ एन लाई तिब्बत में हमारे हितों की समस्या पर विचार-विमर्श नहीं करना चाहते। एक अन्य पत्राचार में उन्होंने कहा कि ‘भारत तिब्बत में किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहता क्योंकि ये विशेषाधिकार ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा लादी गई संधियों का परिणाम है।
सितंबर 1952 में भारत के शिष्ट मंडल ने ल्हासा से रिपोर्ट भेजी कि चीनी आक्रमण के विरूद्ध देशभक्त तिब्बतियों के कई दल सक्रिय हैं और उनमें से एक दल हमारे संपर्क में है जो हमसे केवल दो लाख रूपये की सहायता मांग रहा है। इस पर नेहरू जी भड़क गये और उन्होंने कहा कि यह व्यवहारिक रूप से भी गलत होगा और नैतिक रूप से भी। हमें तिब्बत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये और तिब्बतियों को अपनी समस्यायें चीनियों के साथ बैठकर सुलझाना चाहिये।
उल्लेखनीय है कि तिब्बत में नृशंस नरसंहार कर रही माओ की सेनाओं को चावल तथा अन्य खाद्यान और पेट्रोल तथा डीजल की आपूर्ति को जवाहरलाल नेहरू जो कुछ ही दिनों पहले तक स्वतंत्र तिब्बत राष्ट्र के प्रतिनिधि मंडल को दिल्ली में एशियाई सम्मेलन में बुला चुके थे, आंतरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं मानते। परंतु देशभक्त तिब्बतियों के एक समूह को माओ की सेनाओं द्वारा किये जा रहे नरसंहार को रोकने के लिये केवल दो लाख रूपये की सहायता को तिब्बत के मामले में आंतरिक हस्तक्षेप मानते हैं। डॉ. राममनोहर लोहिया ने ऐसे ही कार्यों के कारण जवाहरलाल नेहरू के ऐसे कामों को देशद्रोह की संज्ञा दी थी।
जब अनेक लोगों ने यह बात उठाई कि तिब्बत पर तो भारत का अधिराजत्व रहा है तो नेहरू ने उसे साम्राज्यवादी अंग्रेजों का काम बताया और कहा कि अब साम्राज्यवाद समाप्त हो चुका है।
जुलाई 1956 में कोलंबो में राष्ट्र मंडल के प्रधानमंत्रियों का सम्मेलन हुआ। जिसमें कई देशों ने राष्ट्रवादी चीनी सरकार का मुद्दा उठाया। इस पर श्री नेहरू ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन का प्रतिनिधित्व राष्ट्रवादी सरकार द्वारा किया जाना तथ्यतः एक निरर्थक बात है और ऐसा होना संपूर्ण एशिया के लिये शर्म की बात है। (नेहरू के विशिष्ट कार्य खंड 25, पृष्ठ 423 से 426)
फिर उन्होंने राघवन के द्वारा चाउ एन लाई को यह संदेश भी भिजवाया कि हमने कोलंबो सम्मेलन में चीन की स्थिति को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है। (नेहरू के विशिष्ट कार्य, खंड 28, पृष्ठ 167-168)
कुछ समय बात उन्होंने पुनः राघवन से कहा कि आप चाउ एन लाई के समक्ष यह स्पष्ट कर दें कि हम हर जगह उनकी स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन का प्रतिनिधित्व उनकी सरकार को मिले, यह प्रयास कर रहे हैं। हमने स्वयं अमेरिकी राजदूत से इस विषय में बात की है और कृष्णमेनन को लंदन, ओटावा और वाशिंगटन (इंग्लैंड, कनाडा और अमेरिका) में ऐसा ही करने का निर्देश दिया है।
माओ ने नेहरू से मिलीभगत कर दिखावे के लिए उन्हें ‘ब्रिटिश अमेरिकी साम्राज्यवाद का चापलूस अनुयायी’ कहा और आरोप लगाया कि नेहरू तिब्बत को अपने साथ मिलाने के लिये इंग्लैंड और अमेरिका की शह पर षड़यंत्र रच रहे हैं।
समाचार एजेंसी रायटर ने चीनी सेनाओं के विमानों की तिब्बत में बढ़ती संख्या पर समाचार छापा। भारत में नागरिकों और नेताओं ने अगस्त 1953 में इसके विरोध में ‘तिब्बत दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। इस पर जवाहरलाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव को लिखा कि ‘कोई भी कांग्रेसी न तो तिब्बत दिवस के समारोह में भाग लेगा और ना ही ऐसी किसी समिति में शामिल होगा’।
अगले महीने नेहरू जी ने चाउ एन लाई को एक संदेश भेजा कि ‘हमारे देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सहयोग का बढ़ना गहरे संतोष का विषय है। श्रीमान ने हमारे राजदूत से कहा था कि तिब्बत के विषय में भारत और चीन के दृष्टिकोण में कोई अंतर नहीं है। भारत सरकार लंबित मामलों के संदर्भ में एक निर्णायक समझौते पर पहुंचना चाहती है।’ (नेहरू के विशिष्ट कार्य, खंड 23, पृष्ठ 485-486)
इस बीच नेहरू ने यह वक्तव्य देने शुरू कर दिये कि ‘हम तिब्बत में सामंतवादी तत्वों का समर्थन नहीं कर सकते और हम तिब्बत में कोई हस्तक्षेप भी नहीं कर सकते।’ उन्होंने इस बीच निर्णय लिया कि सीमा पर पुलिस चौकियां बनाई जानी चाहिये। इस पर सेना के एक प्रमुख अधिकारी ने कहा कि वस्तुतः उन चौकियों की सुरक्षा सेना द्वारा की जानी चाहिये अन्यथा उन्हें एक ही आक्रमण में नष्ट कर दिया जायेगा परंतु नेहरू पुलिस चौकी बनाने के निर्णय पर टिके रहे।
चाउ एन लाई और माओ ने नेहरू के स्वभाव और मन को अच्छी तरह समझ लिया था और वे उनसे अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर अक्सर चर्चायें करने लगे। चाउ एन लाई भारत आये और कई दिनों तक नेहरू के साथ वार्तायें और साथ-साथ घूमने का क्रम चलता रहा। दोनों ने एक साथ आगरा में फिल्म झांसी की रानी देखी। श्री अरूण शौरी ने अपनी पुस्तक ‘भारत चीन संबंध’ मंे पृष्ठ 94 पर बताया है कि चाउ ने फिल्म झांसी की रानी की प्रशंसा की। इस पर नेहरू ने तत्काल उत्तर दिया कि इसकी पटकथा उतनी अच्छी नहीं है। इस पर चाउ ने कहा कि यह विदेशियों के विरूद्ध प्रतिरोध का चित्रण करती है। नेहरू ने तपाक से कहा ‘यह तो सामन्तवादी तत्वों का प्रतिरोध था’। चाउ ने कहा – ‘प्रतिरोध तो सदैव उच्च वर्ग से ही आरंभ होता है।’ नेहरू चुप रहे।
इसी प्रकार श्री शौरी बताते हैं कि नेहरू चाउ से लगातार अमेरिकी संविधान और अमेरिकी शासन की निंदा करते रहे। जिससे चाउ प्रसन्न होते रहे। इसके बाद नेहरू ने चाऊ को यह सलाह भी दी कि आज जो संवाददाता सम्मेलन होने वाला है उसमें संवाददाताओं के जिन प्रश्नों के उत्तर देने से बचना हो उनमें आप विनोदपूर्ण हो जायें। नेहरू को नापकर चाउ लौट गये और उन्होंने और भी अधिक उत्साह के साथ तिब्बत में नरसंहार तेज कर दिया।
27 जून 1954 को नेहरू ने बर्मा के यू.नू. को लिखा – ‘चाउ एन लाई एक स्पष्ट वक्ता और निष्कपट व्यक्ति हैं। मैंने उन्हें बर्मा के बारे में जानकारियां भी दीं।’ अरूण शौरी लिखते हैं कि तथ्य यह है कि चाउ ने नेहरू से बर्मा के बारे में कुछ भी नहीं पूछा था। एक जुलाई 1954 को उन्होंने भारत के मुख्यमंत्रियों को बीस पृष्ठों का एक पत्र भेजा और उसमें लिखा कि चाउ एन लाई की भारत यात्रा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। उल्लेखनीय है कि यह वह समय है जब चीन अक्साई चिन में सड़क बनाने की तैयारियां कर रहा था।
उन्होंने यह भी लिखा कि ‘चीन तिब्बत पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर लेगा। तिब्बत में हमारी स्थिति साम्राज्यवादी ब्रिटेन का स्मृति चिन्ह थी। हमें ब्रिटेन की विस्तारवादी नीतियों से प्राप्त विशेषाधिकारों को बनाये रखना उचित नहीं होगा। व्यवहारिक राजनीति यह है कि तिब्बत में चीनी शक्ति का प्रतिरोध कर पाना संभव नहीं है। वैसे भी हम एक सामंतवादी व्यवस्था का समर्थन नहीं कर सकते। चीनियों ने सड़कों और विमान क्षेत्रांे का निर्माण तिब्बत में शुरू कर दिया है और यह स्वभाविक ही है। हमें तिब्बत में चल रही इन सैन्य गतिविधियों की जानकारी मिलती रहती है। यद्यपि हम उन जानकारियों पर पूरा भरोसा नहीं कर सकते। तिब्बत एक दुर्गम क्षेत्र है और वहां की जलवायु चीन से भिन्न है अतः वहां बाहर से बड़ी संख्या में आकर रहना सहज बात नहीं है।’ मुख्यमंत्रियों को लिखे इस पत्र के अंश श्री अरूण शौरी ने अपनी पुस्तक में दिये हैं।
तिब्बत में माओ की सेनाओं के द्वारा किये जा रहे विनाश के विरूद्ध तिब्बतियों द्वारा तीव्र प्रतिरोध किया जाने लगा। यह प्रतिरोध भारत से लगी सीमा में भी हो रहा था। इसकी चर्चा भारत में हुई। इस पर श्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि हम अपने क्षेत्र में ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहित नहीं कर सकते। अगर ये गतिविधियां शांतिपूर्ण हों तो हम इन्हें सहन कर सकते हैं अन्यथा नहीं।
सिक्किम में भारत के राजनैतिक अधिकारी बी के कपूर ने माओ की कम्युनिस्ट पार्टी की आपत्तिजनक गतिविधियों के बारे में रिपोर्ट भेजी। इससे श्री नेहरू अप्रसन्न हुये और उन्होंने कहा कि श्री कपूर का चीन के कम्युनिस्टों के बारे में बात करना मुझे अच्छा नहीं लगा। उन्होंने यह भी कहा कि ‘हमंे तिब्बत में शासक वर्ग माना जाता है और यह अपेक्षा की जाती है कि हम चीनी विस्तारवाद के मार्ग में बाधा डालेंगे। परंतु हम ऐसा नहीं कर सकते।’
पूर्व में श्री नेहरू ने बारम्बार यह कहा था कि माओ और चाउ का कहना है कि हम जो मानचित्र छाप रहे हैं, जिसमें भारत के कुछ हिस्से चीनी सीमा के अंतर्गत दर्शायें जा रहे हैं (वस्तुतः ये तिब्बती सीमा के अंतर्गत प्राचीन नक्शे में कभी दर्शायें गये होंगे जब तिब्बत भारत का ही एक राज्य था और सीमायें घुली-मिली थीं), वे प्राचीन मानचित्र हैं और नये नक्शों में ऐसा कुछ नहीं होगा परंतु अब चाउ एन लाइ ने कहा कि हम उन नक्शों को सही मानते हैं। इस पर नेहरू कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सके। उन्होंने केवल यह कहा कि ‘मैं वास्तव में उन चीनी मानचित्रों के निरंतर प्रकाशन से थोड़ा चिंतित हूँ। जिनमें हमारे क्षेत्र को चीनी क्षेत्र बताया गया है।
इसी बीच सोवियत संघ ने भी इसी तरह के नक्शे प्रकाशित किये। इस पर नेहरू ने सफाई दी कि ऐसा लगता है कि सोवियत शासन चीनी नक्शों की ही प्रतिलिपि प्रकाशित कर रहा है। हमें सीमा पर पुलिस चौकियों को तैनात रखना चाहिये।
जब यह मांग की गई कि हमें अपनी वायु सेना अधिक सशक्त बनानी चाहिये और बमवर्षक विमानों की संख्या भी बढ़ानी चाहिये, तब नेहरू ने कहा कि ‘वे अत्यधिक महंगे हैं और उनमें धन लगाने से हमारा औद्योगिक विकास एक सीमा तक स्थगित हो जायेगा। साथ ही ऐसा करना हमारी सुरक्षा नीति के आधारभूत (शांतिवादी) दृष्टिकोण के विरूद्ध होगा।’
जब सिक्किम और भूटान के हमारे राजनैतिक अधिकारियों की रिपोर्ट आयी कि तिब्बत में सवा लाख से अधिक माओ के सैनिक मौजूद हैं तो नेहरू ने कहा कि यह संख्या अविश्वसनीय है। मेनन ने मुझे बताया है कि वहां माओ के सैनिक लगभग 45 हजार ही हैं। (नेहरू के विशिष्ट कार्य खंड 28, पृष्ठ 477-478)
इसके कुछ ही दिनों बाद नेहरू ने राष्ट्रमंडल प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में चीन की जमकर बड़ाई की परंतु वे सम्मेलन से दिल्ली लौटे तब तक बर्मा पर माओ की सेना ने आक्रमण कर दिया और उसके हजारों वर्गमील क्षेत्र पर कब्जा कर वहीं बस गये। बर्मा की सरकार ने नेहरू के पास अनुरोध भेजा कि इसे रोकने के लिये कुछ किया जाये। नेहरू ने भारतीय विदेश अधिकारियों से कह कर एक स्मरण पत्र तैयार करवाया परंतु निर्देश दिया कि इसमें तिब्बत या चीन के साथ भारतीय सीमा के प्रश्न को प्रत्यक्ष रूप से नहीं उठाया जाना चाहिये। (नेहरू के विशिष्ट कार्य खंड 34, पृष्ठ 250 से 259)
माओ ने घोषणा की कि हम पूर्ववर्ती संधियों और समझौतों से बंधे हुये नहीं हैं। इससे नेहरू कुछ परेशान दिखे। उधर चाउ एन लाई ने बर्मा के प्रधानमंत्री को वार्ता के लिए बीजिंग बुलाया। नेहरू ने अपने राजदूत के द्वारा सलाह दी कि बर्मा और चीन के बीच मैत्री पूर्ण और शांतिपूर्ण वार्ता होनी ही चाहिये।
इसी समय माओ की सेना ने लद्दाख के भी कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इस पर संसद में चिंता व्यक्त की गई तो नेहरू ने कहा – ‘वहां घास का एक पत्ता भी नहीं उग सकता। उन दिनों अखबारों में यह छपा था कि इस पर श्री महावीर त्यागी ने नेहरू से कहा कि मेरे सिर पर भी घास का कोई पत्ता नहीं उग सकता (वे गंजे थे) तो क्या हम इस सिर को भी दूसरों के हवाले कर दें। इस पर नेहरू चुप रह गये।
सितंबर 1956 में माओ की सेनायें हिमाचल का शिपकी-ला दर्रा पारकर भारतीय क्षेत्र में घुस आईं और शिमला तक गश्त करने की कोशिश करने लगीं। इस पर नेहरू ने केवल यह कहा कि यह एक गंभीर मामला है और हमारी पुलिस को अपनी चौकियों पर डटे रहना होगा। (नेहरू के विशिष्ट कार्य खंड 35, पृष्ठ 515-516)
दलाई लामा भारत आये और नेहरू ने 26 व 28 नवम्बर 1956 को उनसे भेंट की। दलाईलामा ने भी यही बताया कि माओ की सवा लाख सेनायें तिब्बत में तबाही मचा रही हैं। अतः भारत को सहायता करनी चाहिये। नेहरू ने उत्तर दिया – ‘न तो भारत और न ही कोई अन्य देश तिब्बत को किसी प्रकार की प्रभावपूर्ण सहायता करने की स्थिति में है।’ (नेहरू के विशिष्ट कार्य खंड 35, पृष्ठ 520 से 522)
जब दलाईलामा दिल्ली में थे तभी चाउ एन लाई दिल्ली आया और नेहरू ने स्वयं हवाईअड्डे पर जाकर उनका स्वागत किया। गुप्त वार्ताओं के बाद नेहरू ने आग्रह पूर्वक दलाईलामा को तिब्बत वापस भेज दिया। प्रकाशित अभिलेखों के अनुसार इस वार्ता में चाउ एन लाई ने स्वयं कहा कि तिब्बत अतीत में कभी भी चीन का प्रांत नहीं रहा था। इसीलिये हम उसकी स्वायत्ता को मान्यता देंगे। भारत को तिब्बत के विषय में अधिक जानकारी है। क्योंकि इतिहास में इन दोनों देशों का पुराना संबंध रहा है। इस पर श्री नेहरू ने कहा कि इतिहास बीत चुका है और मेरा मानना है कि सिद्धांत रूप से भले ही तिब्बत भारत का अंग रहा हो परंतु व्यावहारिक रूप से वह एक स्वायत्त क्षेत्र रहा है। अतः हम तिब्बत पर आपकी सरकार के अधिराजत्व को मान्यता देते हैं।
नेहरू ने चाउ से कहा कि तिब्बत में भारत की प्रमुख रूचि धर्म संबंधी है। कैलाश और मानसरोवर जैसे तीर्थस्थल वहां हैं। यहां उल्लेखनीय है कि नेहरू ने उन ऐतिहासिक तथ्यों का कोई उल्लेख नहीं किया, जिनका संकेत स्वयं चाउ अपनी वार्ता में कर रहा है कि आपको ऐतिहासिक रूप से तिब्बत की अधिक जानकारी है। तथ्य यह है कि हमारे पुराणों में सर्वत्र यह लिखा है कि ‘ये वसंति कुरूक्षेत्रे, ते वसंति त्रिविष्टपे’ (जो लोग कुरूक्षेत्र में रहते हैं वे ही भरतवंशी लोग तिब्बत में भी रहते हैं)। नेहरू ने इस सर्वविदित तथ्य का भी उल्लेख चाउ से नहीं किया कि तिब्बतियों ने सैकड़ों वर्षों तक चीन पर शासन किया और यह कि हूण, मंगोल, तुर्क शासन को तिब्बत के शासकों द्वारा जो वहां के सर्वोच्च धर्माचार्य भी होते रहे हैं, वैध मान्यता देने के बाद ही उनका राज्य वैध माना जाता था।
इस तरह माओ और चाउ के समक्ष समर्पणशील नेहरू ने पूरे होश हवास में और सब कुछ जानते हुये कम्युनिज्म को फैलाने के लिये माओ की सेनाओं द्वारा तिब्बत को हड़पने दिया और वहां भयंकर नरसंहार होने दिया।
इसी योजना के अंतर्गत नेहरू ने माओ की कम्युनिस्ट पार्टी का आधिपत्य फैलाने के लिये 1962 में छद्मयुद्ध का दिखावा करते हुये भारत का भी बड़ा भूभाग माओ को सौंप दिया। वस्तुतः नेहरू कश्मीर को भी उसी समय माओ के हवाले करने के इच्छुक थे, ऐसा लगता है। माओ अपनी ओर से भारत पर आक्रमण की कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था, यह चाउ और नेहरू की बातों से बारम्बार प्रमाणित होता है।
जब अक्टूबर 19़62 में क्यूबा में मिसाईल युद्ध की स्थिति थी और सोवियत संघ तथा अमेरिका दोनों वहां टकराव की स्थिति में उलझे हुये थे, ठीक उसी समय मौका देखकर छद्म युद्ध का यह नाटक किया गया और जैसे ही क्यूबा संकट की समाप्ति हुई, संयुक्त राज्य अमेरिका के हिन्द महासागर की ओर बढ़ने की बात हवा में आई और माओ की सेनायें एकतरफा युद्धविराम का नाटक करते हुये वापस चली गईं। टकराव की उस अवधि में नेहरू ने भारत की सेनाओं को आवश्यक साधनों से वंचित रखा और थलसेना को एअर कवर भी नहीं दिया। इससे भी प्रमाणित है कि नेहरू ने यह छद्म युद्ध भारत की सैन्य महत्व की इस भूमि को माओ को सौंपने के लिये ही छेड़ा था। यह भारत की भूमि को सौंपने की साजिशन मिली भगत थी जिसका अधिकार भारत की संसद और भारत के प्रधानमंत्री को भी कदापि नहीं है और यह भारत की सार्वभौमता और अखंडता के विरूद्ध किया गया देशद्रोह का कार्य है।
✍🏻प्रो0 कुसुमलता केडिया

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