दूसरों की सफलता को भी स्वीकार करें

*दूसरों की सफलता देखकर जलें नहीं, उसको स्वीकार करें। आप सुखी रहेंगे।*
सभी लोग कर्म करने में स्वतंत्र हैं। अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए सब लोग पुरुषार्थ करते हैं, जीवन में आगे बढ़ते हैं। *सबके पूर्व जन्मों के संस्कार एक जैसे नहीं हैं। वर्तमान जीवन में बचपन में माता पिता द्वारा दिए गए संस्कार भी अलग-अलग प्रकार के हैं, जिनके कारण प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग क्षेत्र में रुचि रखता है, और पुरुषार्थ करता है।*
*बहुत से लोग एक क्षेत्र में भी काम करते हैं। जैसे डाॅक्टरी इंजीनियरिंग आदि की पढ़ाई में, या कपड़े मिठाई आदि के व्यापार में। परंतु संस्कारों की भिन्नता, बुद्धि और पुरुषार्थ की भिन्नता आदि कारणों से उनकी प्रगति या सफलता में अंतर होता है।* इस बात का उदाहरण, आप किसी भी स्कूल में, किसी भी कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को देख कर समझ सकते हैं। *जैसे कि एक अध्यापक गणित विषय को पढ़ाते हैं. एक ही कक्षा में 50 विद्यार्थी उनसे पढ़ते हैं। फिर भी सबकी प्रगति गणित विषय में एक समान नहीं होती।*
इसी प्रकार से वे विद्यार्थी पढ़ते जाते हैं, बड़े होकर बी. ए., एम.ए. भी पास कर लेते हैं। और नौकरी व्यापार आदि में भी लग जाते हैं। उसके बाद भी जो उनको अपने कार्य क्षेत्र में सफलताएं मिलती हैं, वे भी एक जैसी नहीं होती। वहां भी अनेक व्यक्ति जब एक दूसरे की प्रगति या सफलता को देखते हैं, तो पूर्व संस्कारों के कारण, कम अधिक सफलता देखकर, उन्हें द्वेष होता है। प्रायः लोग दूसरे की उन्नति को शुद्ध मन से स्वीकार नहीं कर पाते, और मन ही मन उनसे जलते रहते हैं, ईर्ष्या करते हैं। *जबकि दूसरे लोगों ने उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ा। वे अपना काम करते हैं। पूरी ईमानदारी बुद्धिमत्ता और मेहनत से काम करते हैं। परंतु घर के या बाहर के दूसरे अनेक लोग, उनकी सफलता को हृदय से स्वीकार नहीं कर पाते। तो जो लोग इस प्रकार से दूसरों की सफलता को स्वीकार नहीं करते, वे सदा दुखी रहते हैं।*
जो लोग दूसरों की सफलता को हृदय से स्वीकार कर लेते हैं; और ऐसा सोचते हैं कि *उनकी योग्यता बुद्धि संस्कार पुरुषार्थ हम से अधिक है, इसलिए वे हम से अधिक सफल हैं, हमसे अधिक आगे हैं। हमारी योग्यता बुद्धि पुरुषार्थ संस्कार आदि उनकी तुलना में कम हैं, इसलिए हम उनकी तुलना में कम सफल हैं।*
तो ऐसा स्वीकार करने वाले लोग, कम मात्रा में सफल होते हुए भी, बहुत प्रसन्न और आनंदित रहते हैं। इसलिए सारी बात का सार यह हुआ कि, *यदि आप दूसरों की सफलता को हृदय से स्वीकार नहीं करेंगे, तो हमेशा दुखी रहेंगे। यदि स्वीकार कर लेंगे, तो सदा प्रसन्न रहेंगे। अब दोनों मार्ग आपके सामने हैं, आपको जो अच्छा लगे, उस पर चलिए।*
– *स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक*

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