बेकार है हमारा जीना
यदि औरों को खुशी न मिले
– डॉ. दीपक आचार्य
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कुछ लोगों के बारे में यह आम धारणा होती है कि ये लोग जहाँ मौजूद रहते हैं वहाँ मस्ती भरा सुकून अपने आप पसर जाता है और ऐसे में उन सभी लोगों को दिली आनंद और प्रसन्नता का अनुभव होता है जो उनके इर्द-गिर्द हुआ करते हैं।
ऐसे लोग जिस किसी काम में जुटते हैं वहाँ का सारा माहौल अपने आप सकारात्मक और रचनात्मक हो उठता है। इस स्थिति में जो लोग इनके साथ या सान्निध्य में काम करते हैं, जो इनके सहकर्मी हैं अथवा जो-जो लोग इनके संपर्क में आते हैं उन सभी को खुशी होती है।
खासकर अछे लोगों को इनसे मिलकर और इनके साथ काम करते हुए आनंद की अनुभूति होती है और अ’छे लोग यही चाहते हैं कि जब भी मौका मिले, इनके साथ ही काम करें ताकि प्रसन्नता और मस्ती भरा सुकून पाते हुए गुणवत्तायुक्त कर्मयोग को साकार कर सकें।
ऐसे भाग्यशाली और सुकूनदायी लोग हालांकि अब कम ही दिखने में आते हैं लेकिन जहाँ कहीं इनकी मौजूदगी होती है, लोग वहीं पर स्वर्ग महसूस करने लग जाते हैं। इसके ठीक उलट आदमियों की एक ऐसी प्रजाति भी होती है जो जहाँ पर होगी वहाँ से आनंद और सुकून अपने आप दूर होता चला जाएगा तथा इनके संपर्क में आने वाले लोग सायास ऐसे लोगों से दूर जाने की कोशिश करते रहते हैं।
ऐसे लोगों के पास आने वाले लोगों का मन उचट जाता है और यही प्रयास करते हैं चाहे जिस तरह भी हो सके, इनसे दूरी बना ली जाए। लेकिन यह स्थिति बुरे लोगों के साथ नहीं होती है। मनहूस शल लिये हुए लोगों के पास उन्हीं की किस्म के दुर्भाग्यशाली और मनहूस लोग जमा हो जाएंगे, तब इन सभी को अनिर्वचनीय सुकून प्राप्त होगा लेकिन अ’छे लोगों को नहीं।
पर इतना जरूर है कि जिनके मन और मस्तिष्क में कोयले और काजल से भी ‘यादा काली मलीनताएं भरी होती हैं उनका सामीप्य और सान्निध्य आत्मघाती ही होता है। ऐसे लोग जिस दुकान-दफ्तर या संस्थाओं में होते हैं वहाँ न प्रसन्नता रह पाती है, न काम करने और रहने का कोई सुकून।
आजकल ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनके पास जाने से प्रसन्नता की बजाय घृणा के भाव आकार लेने लगते हैं और जी चाहता है कि जैसे-तैसे अपना काम निकाल कर ऐसे लोगों से पिण्ड छुड़ा लिया जाए। इसका मूल कारण यह है कि आजकल आदमी से आदमी का रिश्ता मानवीय धरातल का न होकर धंधेबाजी मानसिकता वाला होकर रह गया है।
ऐसे में आदमी दूसरे आदमी को आदमी न मानकर लेन-देन और स्वार्थ पूरे करने-कराने वाली दुकान मानने लगा है। मानवीय मूल्यों के इसी क्षरण का परिणाम है कि हमें बड़े-बड़े औरा महान लोकप्रिय कहे जाने वाले लोगों के पास जाने और उनका सान्निध्य पाने में किसी प्रकार की प्रसन्नता का अनुभव नहीं होता बल्कि खिन्नता का प्रभाव कुछ ‘यादा ही दिखता है।
अपने पास आने वाले हर व्यक्ति ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी को आनंद और सुकून प्राप्त नहीं हो, तब यह अ’छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारे भीतर से इंसानियत की गंध समाप्त हो गई है और ईश्वर ने जिस मानवी गंध के साथ हमें धरा पर भेजा है, उन उद्देश्यों को हम भुला चुके हैं।
अपने संपर्क में आने के बाद भी प्रत्येक प्राणी को सुख-चैन के सुकून का अहसास न हो, तो हमारा जीना व्यर्थ है। ऐसी स्थिति में अपने आपका मूल्यांकन करना चाहिए।
हमारे जीने की सार्थकता इसी में है कि समाज और परिवेश के काम आएं, अपने संपर्क में आने वाले हरेक प्राणी को मस्तीभरा सुकून मिले और जो एक बार अपने संपर्क में आ जाए, वह बार-बार हमारा सान्निध्य पाने के लिए आतुर बना रहे। ऐसा नहीं हो पाए तो …ये जीना भी कोई जीना है …….।