शरीर के लिए समय निकालें

वरना शरीर निकल जाएगा

– डॉ. दीपक आचार्य

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मन, मस्तिष्क और शरीर तीनों को स्वस्थ, मस्त और फुर्तीला बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि इन्हें पर्याप्त पोषण और समय मिले तथा इनकी निरन्तरता के लिए प्रत्येक प्रकार की ऊर्जाओं की प्राप्ति नियमित रूप से होती रहे।

इसीलिये नीति कहती है – शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्। शरीर है तो सब कुछ है।  शरीर रहेगा तब ही धर्म-कर्म और लोक व्यवहार रहेंगे। शरीर ही नहीं रहेगा अथवा क्षीण और रूग्ण होगा तो ये हसीन दुनिया किस काम की ?

कुछ दशकों पहले तक लोगों को शरीर धर्म के शाश्वत सत्य का भान था और शारीरिक भविष्य की चिंता हुआ करती थी और इसलिए सब लोग शरीर पर ध्यान दिया करते थे। ऎसे में शरीर भी उनका पूरा-पूरा ध्यान रखता था।

आज हमारा सारा ध्यान भागमभाग और पैसे कमाने के पीछे लगा हुआ है। लगता है जैसे दिमाग और पैसों की महाभूख तेज से तेज भाग रही है और शरीर काफी पीछे छूटा हुआ रेंग रहा है।

आदमी आजकल आदमी न होकर पैसे कमाने की मशीन होकर रह गया है और ऎसे में शरीर के प्रति उसका ध्यान तब ही जाता है जब बीमारियाँ घेर लिया करती हैं। अन्यथा शैशव से लेकर यौवनावस्था तक तो अधिकांश लोगों को शरीर की चिंता रहती ही नहीं।

शरीर के बारे में हमारी चिंता रहती भी है तो सिर्फ इस बात की कि उसका लुक अच्छा दिखे, बाल काले और घने रहें, चेहरे का तेज बना रहे शक्ली  सौंदर्य आकर्षण से भरा रहे, ब्यूटी की तारीफ हो, स्लीम दिखें और फिगर ऎसे हों कि सामने वालों के मन और तन दोनाेंं को भा जाएं।

शरीर को लेकर आजकल हम जो कुछ कर रहे हैं वह सामने वालों को दिखाने भर के लिए कर रहे हैं, शरीर की भीतरी संरचनाओं की ओर हम उदासीन बने रहते हैं और तब तक लापरवाह रहा करते हैं जब तक कि डायबिटिज, ब्लडप्रेशर, हार्ट, किडनी या दूसरे प्रकार की घातक बीमारियां घेर न लें।

शरीर के प्रति हमारे उपेक्षित बर्ताव का ही परिणाम है कि आज बच्चों की आँखों पर मोटे-मोटे चश्मे चढ़े हुए हैं, कोई खूब मोटे हैं तो कोई जरूरत से ज्यादा दुबले। कइयों की पीठ झुक गई है, तो कितने ही लोग ऎसे हैं जिनका पूरा शरीर कहीं से भी संतुलन नहीं बना पा रहा है और बेड़ौल हो चले हैं।

असमय बुढ़ापे का प्रवेश हो चला है और लगता है जैसे पैसे कमाने की इन मशीनों की जिन्दगी किसी ने छीन ली हो। यही स्थिति हम सभी की है जिनके लिए शरीर की रक्षा गौण हो गयी है और धन-दौलत का यह भूत इस कदर सवार हो गया है कि जाने कब यह भूत हमें निगल जाए।

शारीरिक क्षमताओं के हिसाब से आदमी का औसत स्वास्थ्य आज खत्म होता जा रहा है और चालीस पार होते-होते जाने कौन-कौन सी बीमारियां घेरने लग गई हैं। शारीरिक क्षरण के सारे रास्ते हमने खुले रखे हैं। भीतरी और बाहरी, मानसिक और दैहिक सैक्स के साथ ही भोग-विलास के तमाम आधुनिक और पुरातन तरीकों और उपकरणों का इस्तेमाल हम बिना सोचे-समझे पूरी स्वच्छन्दता और उन्मुक्तता के साथ करते हुए क्षणिक-क्षणिक आनंद में डूबने और बाहर निकलने के आदी होते जा रहे हैं।

जीवनरस और जीवनीशक्ति के निरन्तर क्षरण तथा क्षरण के लायक माहौल ने हम सभी को इतना रिक्त कर दिया है कि हमारा ओज गायब हो चला है और मर्दानगी का स्थान ले लिया है मुर्दानगी ने। हम नाम मात्र के मर्द होकर रह गये हैं जिनका उद्देश्य खुद का पेट भरना और भोगों में रमे रहना ही हो गया है। हमें न समाज की चिंता है, न देश की। गैर मर्दों की स्थिति भी कमोबेश ऎसी ही है।

ऊर्वरकों के अंधाधुंध और मूर्खतापूर्ण उपयोग की वजह से फसलों की मिठास और ताकत खो चुकी है, उत्पादन भले ही बढ़ा हुआ लगता हो मगर जमीन ऊसर होती जा रही है, जो हम खा-पी रहे हैं वह सारा का सारा प्रदूषित है और ऎसा है जो हमें बड़े ही प्रेम से धीरे-धीरे मौत के पंजों में पहुंचा रहा है और हम खुश हो रहे हैं फास्टफूड़ और बाहर के खाने के नाम पर।

शरीर की दुरावस्था के प्रति गंभीरता बरतें और रोजाना पर्याप्त समय निकालें, वर्जिश करें, योग-व्यायाम पर ध्यान दें और नियमित भ्रमण तथा कसरत को अनिवार्य अंग बनाएं। तभी और तभी शरीर हमारा ख्याल रख पाएगा अन्यथा यह शरीर समय से पहले ही छूटने में कोई देर नहीं करने वाला।

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