शिक्षकीय स्वाभिमान ही है
राष्ट्रनिर्माण का मूलाधार

– डॉ. दीपक आचार्य
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शिक्षक समाज और राष्ट्र का निर्माता है जिसके जिम्मे उस पीढ़ी को तैयार करने का दायित्व है जो सृजन और विकास का इतिहास कायम करती है और समुदाय तथा देश के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करती है। इससे पाठशाला और समुदाय के साथ ही क्षेत्र को भी गौरव प्राप्त होता है। और शिक्षक को प्राप्त होने वाले गौरव की तो बात ही निराली है।शिक्षक और शिक्षार्थी का यह सदियों पुराना संबंध ही भारतीय संस्कृति और गर्वीली परंपराओं का मूलाधार है जिसकी वजह से सदियों से गुरुकुल की महिमा और गुरुओं का गौरवगान आज भी हो रहा है। बहुत ‘यादा दशक नहीं बीते हैं जब समाज में शिक्षकों को जो आदर सम्मान प्राप्त था वह सर्वोपरि था।

प्राचीनकाल, रियासती काल से लेकर आजाद भारत में शिक्षकों को उन सभी लोगों से ऊपर का ऐसा दर्जा प्राप्त था कि आदर सम्मान के मामले में दूसरे पदों पर काम करने वाले लोग गौण थे। शिक्षक के प्रति यह आदर सम्मान आज की तरह दिखाऊ नहीं था बल्कि लोग दिल से शिक्षकों का आदर सम्मान करते थे और उनके हर सुख-दु:ख में मददगार बनते हुए सहयोग किया करते थे।

उन दिनों शिक्षक को समाज का वह अभिन्न हिस्सा माना जाता था जिसे कभी लोक जीवन से पृथक करने की बात स्वप्न में भी नहीं सोची जा सकती थी। शिक्षक और समुदाय के बीच यह रिश्ता पारिवारिक और कौटुम्बिक संबंधों से कहीं ऊपर था और ऐसे में शिक्षक पूरे समाज का वह व्यक्ति हुआ करता था जो सिर्फ एक आदमी नहीं होकर संस्था हुआ करता था और वह भी ऐसी संस्था जो अपने बुद्धि बल और विवेक के बूते पूरे समाज को नियंत्रित करने तथा दिशा-दृष्टि प्रदान करने तक का माद्दा रखती थी और वह भी सर्वमान्य।

शिक्षकीय आदर्शों का चरम पुरानी पीढ़ी के शिक्षकों में खूब देखने को मिलता था। आज भी यह परंपरा कहीं-कहीं देखने को मिलती है और शिक्षकों की बहुत बड़ी संख्या ऐसी है जो शिक्षकीय जीवन को समाजोन्मुखी मानकर जी रहे हैं तथा अपने शिक्षकीय गौरव को कायम रखे हुए हैं लेकिन इस परंपरा का ह्रास अब आम हो गया है।

कालान्तर में शिक्षक और समाज के बीच रिश्ता तो रहा लेकिन इसके बीच से निष्काम आत्मीय रिश्तों की गंध गायब होने लगी और आज इन संबंधों में कहीं न कहीं ऐसी अदृश्य दूरी जरूर है जिससे ये रिश्ते दिखाऊ तथा औपचारिक ही होकर रह गए हैं।

समाज जिस दिशा में जा रहा है, जिस प्रकार बुरे लोगों को प्रश्रय मिल रहा है, गुणवžाा हाशिये पर जा रही है, मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है और सामाजिक नैतिक मूल्य दरक रहे हैं। ऐसे में समाज में प्रदूषण होना स्वाभाविक है। दूसरी ओर शिक्षकीय मूल्यों का भी ह्रास होता जा रहा है। इसे भले ही हम लोग स’चे मन से न भी स्वीकारें, तब भी सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता है।

सामाजिक क्षेत्र में जो मूल्यहीनता व्याप्त है उसे सभी लोग स्वीकारते हैं लेकिन शिक्षकीय आदर्शों का जो ह्रास हो रहा है उस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। आज विद्यार्थी शिक्षालय से निकलने के बाद शिक्षकों और पाठशालाओं तक को भूल जाता है। उसे लगता है कि जैसे ये सभी उसके जीवन निर्माण के लिए व्यवसायिक धरातल प्राप्त सीढ़ियां ही थीं मार्गदर्शक नहीं।

कुछ बरस पुराने समय में लौटें तो शिक्षक के प्रति विद्यार्थी का सम्मान और शिक्षक के प्रति समाज का आदर भाव देखने लायक हुआ करता था। इसका मूल कारण हमीं को तलाशना होगा। आज हम शिक्षकीय दायित्वों से कहीं अधिक दूसरे तीसरे कामों में मन लगाने लगे हैं।

हालांकि शिक्षण ही अब ऐसा एकमात्रा सेवा क्षेत्र है जिसमें नैतिकता, सदाचार और मानवीय मूल्य बचे हुए हैं। और ऐसा होना लाजमी भी है। लेकिन जब से शिक्षकीय सेवाओं ने पेशे का रूप इख्तियार कर लिया है तभी से हमारे परंपरागत आदर्श और आदर सम्मान की परंपराएं विलुप्त होने लगी हैं।

शिक्षक दिवस का यह पावन अवसर हम सभी को शिक्षकीय दायित्वों के प्रति गंभीर होने की याद दिलाता है। शिक्षक को शिक्षक रहना चाहिए कि शिक्षकीय दायित्वों के स्वाभिमान को छोड़कर अफसरी और दूसरे-तीसरे धंधों में मन लगाने की प्रवृतियों को त्यागना होगा। समाज और शिक्षक दोनों का यह दायित्व है कि शिक्षकीय गौरव और गर्वीला सम्मान मिलना चाहिए।

समस्त शिक्षक समुदाय को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं….

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