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कविता

रिश्ता मिट्टी का

रिश्ता मिट्टी का
न जाने पानी और मिट्टी का
क्या रिश्ता है,
न जाने कौन मसीहा है
न जाने कौन.फरिश्ता है।
पानी और मिट्टी का क्या
रिश्ता है


चले जाते है लोग दूर
गगन की छांव मे,
मिट्टी और पानी है पावन
मिट्टी और पानी रहते
एक दूजे के संग
बनकर बहती है गंगा
कलकल अपने जहां मे
दुनिया मे बहती बन एक धारा है
दोनो एक दूजे के जीवन का सहारा है।
धरा न होती पानी न होता इस जहाँ मे
धरा मे समाते है सारे सुख के सागर ,
मिटा देता है गगन प्यास धरा की
बरसके बूंद बूंद मे। बन जाता है
वो सागर।
गंगा बहती है श्री चरणो से
जा समाती शिव जटा मे
जब बरसे बन के धटा
तरसती है आज भी हर
एक आत्मा एक बूंद पाने
इनके प्यार की छटा।
देनेवाला कौई और है
लेनेवाला कौई और है
हम खडे इस ओर वो
खडे उस ओर है।

कृष्णा भिवानीवाला

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