Categories
धर्म-अध्यात्म

सुनो जगत अनुनय संदेश धनुष उठाओ हे अवधेश

डॉ अवधेश कुमार अवध

संत कबीर की उक्ति “दु:ख में सुमिरन सब करै….” आज भी प्रयोजन युक्त है। दुखिया है कौन! कबीर बाबा बताते हैं कि, “…….दुखिया दास कबीर है…..”। अर्थात् जो समाज के बारे में सोचेगा, वह सामाजिक अवमूल्यन देखकर दुखी अवश्य होगा और एक सामाजिक प्राणी के नाते मनुष्य होने की यह निर्विवाद शर्त भी है। ऐसी विकट परिस्थिति में हर पुरुष पुरुषोत्तम को याद करता है….आह्वान करता है और उनके द्वारा पुनर्स्थापना की अपेक्षा भी।

भगवान श्रीराम सर्वशक्तिमान होते हुए भी पुरुषोत्तम हैं इसलिए हर सज्जन एवं कर्मशील मनुष्य उनकी ओर न केवल उन्मुख होता है बल्कि आशान्वित नज़रों से आस भी लगाता है। हर रिश्ते के मानक पर खरा उतरने वाले दशरथ नन्दन अवधेश करोड़ों लोगों के नाथ हैं, सहायक हैं, आस हैं। आदिकवि बाल्मीकि, भक्तकवि तुलसीदास, आचार्य केशव दास, कृतवास, कंबन और समीक्षक सहित सैकड़ों लोगों ने श्रीराम कथा को अपने मतानुसार लेखनी से गढ़ा। इसी अंतहीन श्रृंखला की एक कड़ी बनकर श्रीराम की ननिहाल से भक्तकवि श्री जगत प्रकाश शर्मा जगत जी ने “धनुष उठाओ हे अवधेश” की आर्त्त पुकार के साथ काव्यात्मक अलख जगाया है।

चौवालीस वर्षीय श्रीयुत् जगत प्रकाश शर्मा जगत जी उस सनातनी परम्परा के पोषक एवं वाहक हैं जहाँ सब कुछ राममय है। जीवन पर्यन्त राम होने की दिशा में बढ़ना सीखा और सिखाया जाता है। सिर्फ सुख-दुख ही नहीं अपितु अभिवादन भी ‘जै राम जी की’ से होता है। मनसा, वाचा और कर्मणा राम ही अनन्य राह होते हैं। भक्त पिता का संस्कारी पुत्र पिता की आज्ञा से श्रीराम पर कुछ लिखना शुरु किया। 20 वर्ष की लम्बी अवधि का आश्चर्यजनक सुखद परिणाम 108 भागों में विरचित “धनुष उठाओ हे अवधेश” है। इसके वाचन से पिता के हृदय में प्रस्फुटित संतुष्टि ही जगत के लिए अनमोल पारितोषिक है। कृतिकार इसको आह्वान कविता का नाम देता है। पद्मश्री महेश शर्मा जी आशीष देते हुए कहते हैं कि इसमें अवधेश रूप अवतार की प्रतिक्षा करने के स्थान पर सजग नागरिकों को चैतन्य रूप से पुकारा गया है और ललकारा भी गया है। सुश्री अंशु सिंह कहती हैं कि अब जबकि प्रकृति भी अपना पुनर्निर्माण कर रही है तो हमें भी अपनी मान्यताओं और परम्पराओं का पुनर्मूल्यांकन करना होगा, जिसका आह्वान जगत जी ने अपनी कविता के माध्यम से किया है।

शास्त्र और शस्त्र दोनों का एक साथ होना आवश्यक है। शास्त्र से शस्त्र की पात्रता आती है और शस्त्र से शास्त्र सुरक्षित रहता है। जब भी शास्त्र और शस्त्र में दूरी बढ़ायी गई, कभी समाज लाचार हुआ तो कभी समाज में अत्याचार हुआ। धर्ममूर्ति अवधेश श्रीराम और धनुष का अटूट सम्बंध रहा है। बायावस्था में ही शस्त्र और शास्त्र की पूर्णता के लिए गुरु विश्वामित्र घर से वन में ले जाते हैं। वहीं से धनुष की टंकार सुदूर लंका-साम्राज्य की नींद उड़ा देती है। जनक नन्दिनी का वरण भी धनुष भंगोपरान्त होता है। चौदह वर्ष के वनवास प्रवास में धनुष का बड़ा योगदान है। धानुषिक भय ने सिंधु के मन में प्रेम पैदा किया। आसुरी वृत्तियों के संहार का असल साक्षी धनुष ही रहा है। यही कारण है कि समाज में धर्म की उन्नति हेतु कवि बारम्बार अवधेश से धनुष उठाने हेतु अनुनय विनय करता है।

भक्ति ने सदैव मोह से दूर किया है। इस समीक्ष्य पुस्तक में रचनाकार छंद के मोह से मुक्त होकर अपने भावों को गेय बनाए रखा है। कहावतों का समुचित उपयोग किया है। अलंकारों के चमत्कार से स्वयं को बलात जोड़ने का कहीं भी प्रयत्न नहीं किया गया है। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया गया है। कुछ अन्य भाषाओं के शब्द भी हैं लेकिन उनके प्रयोग के पीछे बोलचाल में उनकी सहज उपस्थिति का होना है। दृष्टांत को उदाहरण द्वारा समझाने की चेष्टा परिलक्षित है। अति प्राचीन राम प्रसंग को नये युग में प्रयोजन जन्य बनाने का सफलीभूत प्रयास किया गया है। अत्याचार या अन्याय को चुप होकर सहने के बजाय मौन तोड़कर मुखर होने हेतु प्रयास सर्वदा देखा जा सकता है।

कुछ प्रमुख पंक्तियों द्वारा कवि का भाव समझा जा सकता है और साथ ही यह भी कि कवि श्रीअवधेश से धनुष उठाने की गुहार क्यों लगाता है! कुतर्क करने वाले हठी के सम्मुख मौन हो जाना ही सर्वाधिक सफल निदान है। इसी प्रकार लोभ के समक्ष सदैव तृप्ति को हारना पड़ता है। इसके लिए प्रयुक्त छंद देख सकते हैं-
“हठ के सम्मुख मौन सुनीति,
लोभ से तृप्ति कभी न जीती।”

सुरसा मुँह न केवल राम कथा तक सीमित है बल्कि एक लोकप्रिय मुहावरा भी बन चुका है। यह ऊँट के मुँह में जीरा से भी अधिक अंतर को प्रकट करता है। कवि ने समाज की विपत्ति को सुरसा-मुख के रूप में देखा है-
“सुरसा मुख खुलता ही जाए,
कब तक हनुमत देह बढ़ाएँ!
नहीं सूक्ष्मता में अब तृप्ति,
सुरसा बनी समाज विपत्ति।”

डॉक्टर को धरती का भगवान कहा जाता है और कहना भी चाहिए। आजके कोरोना काल में डॉक्टर की भूमिका और भी पूज्य हो गई है। इसके बावजूद भी कुछ डॉक्टर श्वेत पोश मात्र बनकर रह गए हैं। किसी भी जघन्य अपराधी से भी बदतर हो गए हैं। मानव अंगों की तस्करी में भी संलग्न हैं। इस संदर्भ में कवि कहता है कि-
“कहते थे देकर सम्मान,
जिन्हें धरा का हम भगवान।
‘जगत’ देखकर रहता दंग,
बेच रहे वह मानव अंग।”

रामायण में हनुमान भी भूमिका अवर्णनीय है, परिभाषा की सीमा से बाहर है, अनन्त है, असीम है, अशेष है। समाज को जाग्रत करने के लिए पुन: हनुमान जी को बुलाना होगा-
“घर घर अलख जगाने होंगे,
हनुमान कुछ लाने होंगे।”

किसी भी युग में राष्ट्र प्रेम सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। मातृभूमि को पूजनीया माता का दर्जा प्राप्त है और जन जागरण ही इसका उपचार है। इसके द्वारा ही इस भाव को व्यापक और हस्तान्तरित किया जा सकता है। कवि का आह्वान देखें-
“रामराज्य के सब आयाम,
जाग्रत पुन: करे आवाम।
ऐसी जनमत की गति हो प्रभु,
सबसे ऊपर रहे स्वदेश।
धनुष उठाओ हे अवधेश”

Comment:Cancel reply

Exit mobile version