डॉ डी के गर्ग
विशेषकर गुरु पूर्णिमा के दिन हिन्दू समाज में तथाकथित गुरु लोगों की लॉटरी लग जाती हैं। सभी तथाकथित गुरुओं के चेले अपने अपने गुरुओं के मठों, आश्रमों, गद्दियों पर पहुँच कर उनके दर्शन करने की हौड़ में लग जाते हैं। खूब दान, मान एकत्र हो जाता हैं। ऐसा लगता हैं की यह दिन गुरुओं ने अपनी प्रतिष्ठा के लिए प्रसिद्द किया हैं। भक्तों को यह विश्वास हैं की इस दिन गुरु के दर्शन करने से उनके जीवन का कल्याण होगा। धूर्त गुरुओ द्वारा भ्रान्ति पैदा करने के लिए कबीर के दोहे और संस्कृत के श्लोक के गलत भावार्थ, इत्यादि का सहाराः प्रयोग में लाये जाने वाले दोहे और इनके उल्टे सीधे भावार्थ देखिये:
सब धरती कागद करूँ लेखनी सब बन राय ।।
सात समुन्द्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।।’
और आगे देखो–
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय।।
गुरु समझता है कि उसके चेले चेली उन्हें कुछ न कुछ दक्षिणा माल पानी के रूप में जरूर देंगे। और चेला समझता है कि चलो गुरु झूठे सौगंध खाने पर भी उसे हजारो पाप से जरूर छुड़ाएगा। इसलिए लालच के वश में दोनों कपटी भवसागर के दुःख में डूबते हैं। जैसे पत्थर की नौका में बैठने वाले समुद्र में ही डूब मरते हैं वैसे ही ऐसे कपटी गुरु और चेलों के मुख पर धूल राख पड़े। उनके पास कोई भी खड़ा न रहे जो उनके साथ खड़ा होगा वह भी दुःखसागर में पड़ेगा।
जैसी पोपलीला पाखण्ड लीला पुजारी पौराणिकों ने चलाई है वैसी ही पाखण्ड की लीला इन गरेड़िये गुरुओं ने भी चलाई है। यह सब काम स्वार्थी लोगों का है। जो परमार्थी लोग हैं वे खुद कितना ही दुःख क्यों न पावें फिर भी वे जगत् का उपकार करना नहीं छोड़ते।
2. और संस्कृत का ये श्लोक सुनाकर भक्तो को भ्रमित किया जाता है:
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।
इसका उपयोग ये नकली गुरु अपनी महिमामंडल के लिए करते हैं और ब्रह्मा, विष्णु आदि ईश्वर के अनेक नामों से अपनी तुलना कराते हुए फूल कर कुप्पा होते रहते हैं। इसके आगे उनका ध्यान नहीं जाता।देखिये अधिकतम लोग इस श्लोक के अर्थ का अनर्थ करते हैं। कपटी गुरु इसका अर्थ ये बताते है –
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
यानि की -गु माने अन्धकार और रु माने प्रकाश। अर्थात जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करके प्रकाश की ओर ले चले वह गुरु है।गुरु तत्व बहुत श्रेष्ठ है और गुरु के शरीर का आदर इसलिए होता है क्योंकि शरीर में वह तत्व प्रगट हुआ है और हमें शिक्षा दे रहा है।
ऐसे गुरु शिष्यों के गुरु नहीं हैं बल्कि शिष्यों के धन के गुलाम हैं।आज तक कोई ऐसा गुरु कोई व्यक्ति नहीं मिला जो परम ज्ञानी हो ,केवल लच्छेदार ,अवैज्ञानिक गपोड़ों के ।इस बात को अधिकतम लोग अनदेखा कर देते हैं और इसीलिये शंका उत्पन्न होती है।
आगे भी ये नकली गुरु सुनाते है –गुरु तत्त्व हरि का दूसरा नाम है।भगवान ही परम गुरु हैं जो एक शरीर के माध्यम से आपको उपदेश कर रहे हैं। गुरु का शरीर भगवान् की महिमा के कारण पवित्र होता है। और जो गुरु तत्व मेरे गुरुदेव (शरीर) में व्याप्त है वह व्रह्मा है, विष्णु है, शिव है और परम ब्रह्म है।
कबीर साहब ने कहा है–
गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट,
अन्तर हाथ सहाय दे बाहर बाहै चोट ॥
कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है तो बाहर से उसे ठोकता-पीटता है, परन्तु भीतर हाथ से सहारा देता है कि कहीं घड़ा टूट न जाय क्योंकि उसका उद्देश्य घड़े को सुन्दर से सुन्दर बनाना होता है। इसी प्रकार कभी कभी गुरु की ताड़ना शिष्य को सुधारने के लिये होती है परन्तु वे उस दशा में भी अपनी कृपा रूपी हाथ शिष्य के ऊपर रखे रहते हैं। इसलिये गुरु भक्त के लिये गुरु कृपा ही सार वस्तु है। गुरु के चरण कमलों में प्रेम हो जाना ही जीवन की सबसे महान् उपलब्धि है। इस प्रकार कुछ पाखंडी लोग अपने को पुजाने लगते हैं।
वास्तविकता समझे : वास्तविक अर्थ में इस श्लोक से वेद में स्पष्ट आदेश है कि ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर एवं साक्षात् परमब्रह्म ही गुरु है। उन गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ। अगर ऐसा हैं तब तो इस जगत के सबसे बड़े गुरु के दर्शन करने से सबसे अधिक लाभ होना चाहिए। मगर शायद ही किसी भक्त ने यह सोचा होगा की इस जगत का सबसे बड़ा गुरु कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें योग दर्शन में मिलता हैं।
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् || ( योगदर्शन : 1-26 )
वह परमेश्वर कालद्वारा नष्ट न होने के कारण पूर्व ऋषि-महर्षियों का भी गुरु है ।
अर्थात ईश्वर गुरुओं का भी गुरु हैं। अब दूसरी शंका यह आती हैं की क्या सबसे बड़े गुरु को केवल गुरु पूर्णिमा के दिन स्मरण करना चाहिए। इसका स्पष्ट उत्तर हैं की नहीं ईश्वर को सदैव स्मरण रखना चाहिए और स्मरण रखते हुए ही सभी कर्म करने चाहिए।
वेद के नियमों के अनुसार- ‘‘श्रीब्रह्मा‘‘, ‘‘श्रीविष्णु‘‘ और ‘‘श्रीमहेश्वर‘ एवं साक्षात् ‘‘परम् ब्रह्म‘‘ ही गुरु हैं। परन्तु इस श्लोक के वैदिक अर्थ इसलिए बदलकर अवैदिक विधि से वर्तमान मानव-मनीषियों ने समझाया है कि शरीरधारी मनुष्य रूपी गुरु ही ब्रह्मा है और यही मनुष्य रूपी गुरु ही विष्णु है एवं मनुष्य रूपी गुरु ही महेश्वर है तथा मनुष्य रूपी गुरु ही साक्षात् परम् ब्रह्म परमेश्वर है। यदि कोई शरीरधारी मनुष्य स्वयं को गुरु के बहाने ही श्रीब्रह्मा, श्रीविष्णु और श्रीमहेश्वर तथा साक्षात् परम् ब्रह्म कहलवाता है, तो ‘‘महासरस्वती‘‘ और ‘‘महालक्ष्मी‘‘ एवं ‘‘महाकाली‘‘ का अपमान ही होगा, क्योंकि पिता के अलावा अन्य किसी मनुष्य को पिता स्वीकार करते है तब तो जिसे पिता मानेंगे वही माता का पति कहलायेगा।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः |
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म,तस्मै श्री गुरवे नम: ||
इस श्लोक का गलत अर्थ– जो शरीरधारी व्यक्ति हमारा गुरु है, वह ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश है । वही साक्षात् परमात्मा है, ऐसे महान् गुरु को हम नमस्ते = सम्मान करते हैं।
इस श्लोक का सही अर्थ = जो संसार का बनाने वाला सबका मालिक सर्वशक्तिमान् परमात्मा है, वह ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश है । वही साक्षात् परमात्मा ही हमारा गुरु है, ऐसे महान् गुरु परमात्मा को हम नमस्ते = सम्मान करते हैं।।
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