शील स्वभाव हो मनुष्य का, तो जेवर का क्या काम
अति गुणी गुणगान के,
लक्ष्मी करे न निवास।
उन्मत गौ की भांति ये,
कहीं कहीं करें प्रवास ।। 387।।

नारी की गति तीन हैं,
कन्या मां और सास।
धन की गति भी तीन हैं,vijender-singh-arya1 (1)
दान भोग और नाश ।। 388।।

लज्जा, भय, शंका उठे,
मन में पश्चाताप।
ये लक्षण नही धर्म के,
किया है कोई पाप ।। 389।।

निडरता और निर्भीकता,
मन में अति उत्साह।
ये लक्षण हैं धर्म के,
सरल स्वर्ग की राह।। 390।।

धर्म त्याग के धन मिले,
शत्रु को शीश नवाय।
ऐसे धन की प्राप्ति,
अपयश को फेेलाय ।। 391।।

सुरापान के व्यसन को,
सुरा से जीता न जाए।
जैसे ईंधन डाल कै,
आग न वश में आय ।। 392।।

दान से वश मित्र हो,
शत्रु को युद्घ में जीत।
स्त्री का पोषण करे,
सफल मनुष्य की रीत।। 393।।

विवेकशून्य को त्याग दे,
एक दिन बुद्घिमान।
मूरख का तो संग हो,
ढके कूप के समान ।। 394।।

भाव यह है कि मूर्ख व्यक्ति का संग ढके हुए कुएं के समान होता है जैसे ढके कुएं में गिरकर व्यक्ति नही निकल पाता है ठीक इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति को सौबत के दुष्परिणामों से सज्जन भी बच नही पाता है।
प्रारब्ध और पुरूषार्थ जब,
होवें एकाकार।
सफलता चरणों को चूमती,
होवे जय जयकार ।। 395।।

शील स्वभाव हो मनुष्य का,
तो जेवर का क्या काम।
पहुंचना चाहे जो शिखर पर,
लगै आराम हराम ।। 396।।

बुरों के साथ कठोरता,
सज्ज्नों से अनुराग।
शत्रु के संग वीरता,
भक्ति के लिए वैराग ।। 397।।

उदित होय प्रारब्ध जब,
बनत न लागै देर।
गैरों के बदलें नजरिए,
खोलै खजाने कुबेर।। 398।।

पुण्य कर्म कभी तृण बनें,
कभी नौका बनें विशाल।
संकट के ये समुद्र से,
सुरक्षित देय निकाल ।। 399।।

मौसम हो माकूल जब,
तो पादक मुस्काय।
संचित पुण्य के कारनै,
गम की घटा छंट जाए।। 400।।
क्रमश:

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