ओउम् नाम की नाव से, तरे अनेकों संत 
आधी बीती नींद में,
कुछ रोग भोग में जाए।
पुण्य किया नही हरि भजा,
सारी बीती जाए ।। 415।।

धर्म कर्म का उपार्जन,
खोले सुखों के द्वार।
इनमें मत प्रमाद कर,
काल खड़यो है त्यार ।। 416।।

रसों में रस है ब्रह्मï रस,
रोज सवायो होय।
जितना हो रसपान कर,
सारे दुखड़ा खोय ।। 417।।

पग-पग पर यहां द्वंद्व है,
आदि हो या अंत।
ओउम् नाम की नाव से,
तरे अनेकों संत ।। 418।।

द्वंद्व से अभिप्राय है-संघर्ष,
आदि से अभिप्राय है-जन्म से,
अंत से अभिप्राय है-मृत्यु पर्यंत।
मन में तृष्णा की लहर,
और आशाओं की धार।
मोह माया के भंवर है,
कोई बिरला निकलै पार ।। 419।।
तृष्णा के वशीभूत हो,
करे पुण्य और पाप।
ये इतनी निर्लज्ज है,
बढ़े दिनोंदिन आप ।। 420।।

आजीविका आदर नही,
बंधु न रिश्तेदार।
विद्या, गुण की न प्राप्ति,
वहां रहना है बेकार ।। 421।।

उत्तम भोजन, भार्या,
किसी पुण्य का है प्रताप।
धनी होय और दान दे,
कहीं किसी हरि का जाप।। 422।।

पितृभक्त ही पुत्र है,
पोषण करै सो बाप।
सुख देवै सो भार्या,
और मित्र हरै संताप।। 423।।
क्रमश:

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