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कविता

वृक्ष की व्यथा

वृक्ष की व्यथा

वृक्ष हूं रोता हुआ, प्यारी मां की गोद में,
एक दिन बोया गया, इस धरा की गोद में।
धरा के दुलार से, सूर्य के प्रकाश से,
पवन की पुकार से, जल की प्रभाव से।
आंखें खुली हर्षा गया, सभी के दुलार से,
सांस ली तो दम घुटा, अपने ही संसार में।
सोचा था मां वसुंधरा, की गोद में मैं पलूंगा,
हर्षित पल्लवित रहूंगा, प्यारी मां की गोद में।
बचपन से योवन आया, सांस थी अटकी अटकी,
घर मेरा दूषित हुआ, इंसा के व्यवहार से।
फूलों संग सुगंध दी, फल दिए भरपूर,
सभी को जीवित रखा, अब सास गई है फूल।
कभी कुछ मांगा नहीं, और प्यार दिया भरपूर,
सोचा था संकट गया अब जीऊंगा भरपूर।
सब शान गई पहचान गई, अब जीना हो गया दूर,
अब हाय रे! किस्मत फूटी, सब बच्चे हो गए दूर।

नरेन्द्र कुमार शर्मा

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