राम मंदिर निर्माण की वास्तविक नींव

आचार्या रेखा कल्पदेव

आज हर ओर अयोध्या और भगवान राम की धूम है। अयोध्या में राम मम्दिर भूमिपूजन के अनुष्ठान ३ अगस्त से शुरु हो चुके है। चारों ओर उत्सव का माहौल है। भूमि पूजन को लेकर संपूर्ण भारत में उत्साह की लहर हैं। वास्तव में राम मंदिर निर्माण भूमि पूजन मात्र एक हिन्दु मंदिर के निर्माण की नींव मात्र न होकर “राम राज्य” की नींव रखने जैसा है। देश में रामराज्य स्थापित हों, ऐसी सभी की कामना हैं। भगवान राम के शासन के समय में जिस प्रकार का राज्य था, ठीक उसी प्रकार का राज्य बन सकें, इस दिशा में हमारा प्रयास रहेगा।

राम राज्य में ऐसी कौन सी विशेषताएं थी, जिनकी सराहना आज भी की जाती है। आईये जानें-

रामचरितमानस में रामराज्य का वर्णन किया गया है। श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में अनेक चौपाई यह स्पष्ट करती हैं कि उस समय क्या खास था।

॥ दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥

सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

एक चौपाई में कहा गया है कि रामराज्य में किसी व्यक्ति को दैहिक, दैविक और भौतिक कष्ट किसी को नहीं होते थे। सभी व्यक्ति आपस में प्रेम पूर्वक मिलकर रहते थे, तथा धर्म वेदों में बताई गई नीति नियमों के अनुसार जीवनयापन करते थे, धर्म शास्त्रों में बताए गए मार्ग पर चलने के लिए तत्पर रहते थे, अपने धर्म का पालन करते थे।

॥ चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥

राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी॥

एक अन्य चौपाई में यह कहा गया है कि धर्म अपने चारों चरणों पर टिका हुआ था, दूर दूर तक कहीं भी पाप देखने को नहीं मिलता था। स्त्री एवं पुरुष सभी अपने कर्तव्यों में लीन थे, सभी मोक्ष के अधिकारी थे।

॥ अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥

किसी भी व्यक्ति की असमय मृत्यु नहीं होती थी, किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं था, सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। सभी स्वस्थ और निरोगी थे, कोई भी बुद्धिहीन और अशुभ कार्यों में संलग्न नहीं था।

॥ सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥

सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥

भगवान राम के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति निर्भय था, सभी धर्म का पालन करने वाले थे। स्त्री और पुरुष सभी चतुर और गुणवान थे, सभी ग्यानियों का आदर करने आले और पंडितों का सम्मान करने वाले थे। सभी जनों में दूसरों के द्वारा किए गए उपकार की भावना थी। कपट और धूर्तता दूर दूर तक नहीं थी।

॥ राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।

काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं॥

रामचरितमानस में यह भी वर्णन है कि भगवान राम के राज्य में सजीव और निर्जीव सभी सुखी थे, जड़, चेतन और आकाश में सभी कर्मवादी थें, बंधनों से मुक्त होकर जीवनयापन करते थें।

॥ भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला॥

भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू॥

भगवान राम का राज्य सात समुद्र तक फेला हुआ था। संपूर्ण पृथ्वी पर उनका ही राज्य फैला हुआ था, और उनके राज्य के कण कण में भगवान राम का वास था। उनके गुणों और शौर्य को देखते हुए उनके लिए सात समुद्रों तक फैला उनका राज्य अधिक नहीं था।

॥ सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी॥

सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी॥ फिरि एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी॥

सात समुद्रों तक फैली सात दीपों से युक्त राज्य के भगवान राम एक मात्र राजा थे। उनकी महिमा को जान कर सभी उनसे प्रेम करते थे, किसी को भगवान राम के राज्य में हीनता महसूस नहीं होती थी।

॥ सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला॥

राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा॥

भगवान राम के राज्य की महिमा इतनी अद्भुत है कि उनकी महिमा इंद्रियों का दमन करने वाली है। रामराज्य के समय में प्रजा के सुख और संपत्ति का वर्णन करना सहज नहीं है। स्वयं सरस्वतीजी भी नहीं कर सकती है।

सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी॥

एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी॥

रामराज्य में सभी नर और नारी उदार व्यक्तित्व के स्वामी है, सभी परोपकार की भावना से युक्त है, सभी ब्राहम्णों की सेवा को आतुर हैं। सभी पुरुष एक पत्नी धारी है और सभी स्त्रियां अपने पति के प्रति मन, वचन और कर्म से समर्पित है।

॥ दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।

जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥

राम राज्य में कोई किसी का शत्रु नहीं हैं, जीत शब्द का प्रयोग वहां केवल मन जीतने के लिए किया जाता है। उस राज्य में कोई अपराध नहीं करता है। इसलिए किसी को दण्ड नहीं दिया जाता है। भेदनीति का वहां प्रयोग ही नहीं किया जाता है। सुर ताल में समन्वय के लिए ही भेद शब्द प्रयोग किया जाता है।

॥ फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पंचानन॥

खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥

वृक्ष सदैव फल और फूलों से लदे रहते हैं। हाथी और शेर एक साथ विचरण करते हैं। पशु और पक्षी अपना बैर भूलकर आपस में स्नेह पूर्वक रहते हैं।

॥ कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा॥

सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंदा॥

भगवान राम के राज्य में पक्षी मधुर वाणी में कूकते रहते हैं। अनेकों पशु निर्भय होकर आनन्द के साथ रहते हैं। ठ्ण्डी, सुगंधित वायु प्रवाहित होती है एवं भंवरें फूलों के रस का आनंद लेते हैं ।

॥ लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्रवहीं॥

ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी॥

इस चौपाई का भावार्थ है कि रामराज्य में वृक्ष और बेलें मांगने पर ही अपने फल और शहद दे देते हैं। गाय भी मन चाहा दूध देती है। भूमि सदा अन्न से भरी रहती है। त्रेतायुग में सतयुग जैसा माहौल है।

॥ प्रगटीं गिरिन्ह बिबिधि मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥

सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी॥

रामराज्य के पर्वत अनेक प्रकार की मणियों से युक्त है। सारी धरा का स्वामी भगवान राम को मानकर प्रकृति उनके राज्य को सभी कुछ दे रही हैं। नदियों में मीठा, ठण्डा और स्वादयुक्त जल बहता है।

॥ सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥

सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥

उस राज्य में सागर अपनी मर्यादा में रहते थे। समुद्र लहरों द्वारा ही रत्न किनारों पर छोड़ दिया करते थे, जो सरलता से मनुष्य को प्राप्त हो जाते थें। सभी तालाब कमल पुष्यों से परिपूर्ण थे, सभी दिशाओं में आनंद का वास था।

॥ बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।

मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज॥

रामराज्य का वर्णन करते हुए बाबा तुलसी कहते हैं कि भगवान श्री राम चंद्र जी के राज्य में चंद्र अपनी अमृत किरणों से सारी धरा को पवित्र करते थे। सूर्य अपना ताप उतना ही देते थे, जितना आवश्यक होता था, और बादल भी वहीं वर्षा करते थे जहां जल की आवश्यकता होती थी।

॥ कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे॥

श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर॥

भगवान श्रीराम ने अनेकों अश्वमेघ यग्य किये, अनेकों ब्राह्मणॊं को दान किया। वे सदैव वेदमार्ग का पालन करते हैं, धर्मानुसार चलते हैं, धर्म की धूरी हैं, सात्विक, राजसिक और तामसिक युक्त हैं और इंद्र के समान भोगों को भोगते हैं।

आचार्या रेखा कल्पदेव
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ज्योतिष आचार्या रेखा कल्पदेव

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