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जूनागढ़ के लालच में क्या पाकिस्तान ने कश्मीर खो दिया था? – क्या कहती है बीबीसी?

तेजस वैद्य
बीबीसी गुजराती
15 अगस्त 2020
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने जूनागढ़ को पाकिस्तान का हिस्सा गिनाते हुए एक नक्शा जारी किया था, जो कुछ दिनों से विवादों में है.

जूनागढ़ का भारत में विलय 15 अगस्त को नहीं, बल्कि 9 नंवबर 1947 को हुआ था. इसलिए जूनागढ़ का स्वतंत्रता दिवस 9 नवंबर को मनाया जाता है.

भारत और पाकिस्तान के बीच में लटके हुए जूनागढ़ को आज़ादी दिलाने के लिए आरज़ी हुकूमत बनाया गया था.

आरज़ी हुकूमत की लड़ाई के बाद जूनागढ़ भारत का हिस्सा बन पाया.

हाल ही में जारी किए गए पाकिस्तान के नए नक्शे में जूनागढ़ और माणावदर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखाया गया है.

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भारत के विदेश मंत्रालय ने इसपर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि ये पाकिस्तान का निरर्थक प्रयास है.

जब भी भारत और पाकिस्तान के राजकीय इतिहास की चर्चा होती है, तब जूनागढ़ स्वतंत्रता संग्राम की चर्चा भी होती ही है.

जब भारत आज़ाद हुआ और रजवाड़ों का विलय हुआ, तब जूनागढ़ में नवाब महाबत खान तीसरे का शासन था.

15 अगस्त 1947 में जब भारत स्वतंत्रता के जश्न में डूबा हुआ था, तब जूनागढ़ की प्रजा असमंजस में थी क्योंकि उसी दिन जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने का निर्णय लिया गया था.

देश आज़ाद हुआ, उस वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 लागू किया था. जिसके तहत लैप्स ऑफ पैरामाउंसी विकल्प दिया गया था. जिसके ज़रिए राजा अपनी रियासत को भारत या पाकिस्तान से जोड़ सकते थे या फिर अपना स्वतंत्र राष्ट्र बना सकते थे.

लैप्स ऑफ पैरामाउंसी को ध्यान में रखते हुए, नवाब महाबत खान ने पाकिस्तान के साथ जाने का ऐलान कर दिया.

जूनागढ़ को पाकिस्तान के साथ मिलाने में मुख्य भूमिका जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज़ भुट्टो ने निभाई थी. जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने का सुझाव उन्होंने ही दिया था.

इतिहासकार और गांधी जी के पौत्र राजमोहन गांधी मानते हैं कि इसके पीछे मोहम्मद अली जिन्ना भी थे.

राजमोहन गांधी ने अपनी किताब: पटेल अ लाइफ़, में जूनागढ़ के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में लिखा है, “जूनागढ़ में तब सात लाख लोग रहते थे. जिनमें से 80% हिंदू थे. जूनागढ़ के नवाब जब यूरोप में थे, तब राजमहल में कुछ अनबन चल रही थी. सन 1947 के मई महीने में सिंध के मुस्लिम लीग के लीडर शाहनवाज़ भुट्टो जूनागढ़ के दीवान बनाए गए थे. भुट्टो और जिन्ना में गहरा संबंध था. खुद के द्विराष्ट्र सिद्धांत को तिलांजलि देते हुए हिंदू बहुमत वाले राज्यों को स्वीकार करने के लिए जिन्ना तैयार हो गए थे. जिन्ना की सलाह के अनुसार भुट्टो ने 15 अगस्त तक कुछ भी नहीं किया. जिस दिन पाकिस्तान बना, उसी दिन जूनागढ़ ने उसके साथ जाने का ऐलान कर दिया.”

जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाते वक़्त वहां की प्रजा की राय ली गई हो, इस बात का ज़िक्र कहीं नहीं मिलता.

काठियावाड़ के नेताओं की सलाह को भुट्टो ने नहीं माना
सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के सेवानिवृत अध्यापक और सौराष्ट्र कच्छ इतिहास परिषद के प्रमुख रह चुके एस वी जानी अपनी किताब: जूनागढ़ ना नवाबी शासननो अंत (जूनागढ़ के नवाबी शासन का अंत) में लिखते हैं कि:

“13 अगस्त को भुट्टो ने जूनागढ़ के कुछ अहम कारोबारियों को इकट्ठा किया था, जिसमें दया शंकर दवे नाम के एक नेता भी थे, जिन्होंने जूनागढ़ की प्रजा की ओर से ये कहा था कि जूनागढ़ को भारत के साथ जोड़ना चाहिए. इसके अलावा काठियावाड़ राजकीय परिषद के उच्छरंगराय ढेबर ने भी भुट्टो को समझाने की कोशिश की थी. लेकिन सारी तरकीबें नाकामयाब रही. आख़िर में 15 अगस्त 1947 को जूनागढ़ ने पाकिस्तान के साथ जुड़ने का ऐलान कर दिया.”

पाकिस्तान ने लगभग एक महीने तक कोई जवाब नहीं दिया. 13 सितंबर को एक तार भेजकर ये बताया गया कि पाकिस्तान ने जूनागढ़ को स्वीकार कर लिया है.

19 सितंबर को सरदार पटेल ने भारत सरकार के रजवाड़ा खाते के सचिव वी पी मेनन को जूनागढ़ भेजा.

उन्हें नवाब से तो नहीं मिलने दिया गया, लेकिन नवाब की ओर से उन्हें सारे जवाब भुट्टो ने दिए.

राजमोहन गांधी ने लिखा है कि भुट्टो ने गोल-मोल जवाब दिए. हालात दिन-ब-दिन और भी उलझ रहे थे. काठियावाड़ के नेता और मुंबई में बसे हुए कुछ काठियावाड़ी लोग इस बात से परेशान थे.

जूनागढ़ के लालच में क्या पाकिस्तान ने कश्मीर खो दिया था?
सरदार पटेल जूनागढ़ की जंग में सीधे क्यों नहीं उतरे
वी पी मेनन जूनागढ़ से राजकोट, और वहां से मुंबई होते हुए दिल्ली पहुंचे थे. मुंबई में मेनन काठियावाड़ के देशी राज्यों के प्रजामंडल के प्रतिनिधियों से मिले थे.

अपनी किताब: जूनागढ़ ना नवाबी शासननो अंत में एस वी जानी लिखते हैं कि “उच्छरंगराय ढेबर ने कहा था कि हालात ठीक नहीं हैं. लोगों को बहुत लंबे समय तक नियंत्रण में नहीं रख पाएंगे. जूनागढ़ के संग्राम में शुरुआत से ही अग्रणी रहे वंदे अख़बार के संपादक शामलदास गांधी ने कहा था कि लोग अपने हाथ में क़ानून लेकर खुद सरकार बनाने को तैयार हो गए थे. वी पी मेनन ने सरदार पटेल को ये सारी बातें बताईं. जूनागढ़ के लोगों की खुद सरकार बनाने की बात से सरदार पटेल खुश नहीं थे. ऐसी स्थिति आने वाले समय में और परेशानियां खड़ी कर सकती थी.”

“उस समय मुंबई के कुछ अहम कार्यकर्ताओं का मानना था कि इस मसले को सत्याग्रह से सुलझाया नहीं जा सकता. ढेबर भाई को 1938 में हुए राजकोट के सत्याग्रह से काठियावाड़ी राष्ट्रीय संग्राम में अपनी भूमिका के लिए जाना जाता था. सरदार पटेल और गांधी जी भी उनसे प्रभावित थे. ढेबर भाई पक्के गांधीवादी थे. हथियार उठाने की बात से वो कभी सहमत नहीं थे. सरदार पटेल ने उनसे कहा कि वो कुछ सत्याग्रह जैसा करें और बाद की बाद में देखी जाएगी.”

जूनागढ़ के मसले में भारत सरकार सीधे तरीक़े से कुछ भी नहीं कर सकती थी, क्योंकि लैप्स ऑफ पैरामांउसी का प्रावधान था. और इस प्रावधान के मुताबिक़, रजवाड़े जिसके साथ चाहे जुड़ सकते थे या अपना रास्ता खुद बना सकते थे.

ऐसे हालात में भारत सरकार के गृह मंत्री सरदार पटेल सीधा हस्ताक्षेप करते तो क़ानूनी अड़चन आ सकती थी.

इसके बाद आरज़ी हुकूमत को बनाया गया. और इस लोकसेना के सरसेनापति रतुभाई अदाणी ने कहा था कि सरदार पटेल मानते हैं कि जूनागढ़ के लोगों को ही ये जंग लड़नी चाहिए. यानी अगर जूनागढ़ के लोग और उनके प्रतिनिधि आवाज़ उठाएंगे तो ही जूनागढ़ भारत में रह पाएगा. और सारे प्रतिनिधि ये बात समझ चुके थे.

आरज़ी हुकूमत का निर्माण
वी पी मेनन ने मुंबई में काठियावाड़ी प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक की थी. इस बैठक में सारे प्रतिनिधि इस बात से सहमत हुए थे कि प्रजाकीय यानी लोगों के द्वारा एक संग्राम होना चाहिए.

और इसी संग्राम के चलते जूनागढ़ में समांतर सरकार के तौर पर आज़ी हुकूमत के विचार को स्थापित किया गया था.

शुरुआत में उच्छरंगराय ढेबर थोड़े असमंजस में थे, हालांकि बाद में उन्होंने इस विचार को स्वीकार कर लिया था.

जूनागढ़ के नवाब के साथ बेनतीजा रही तीन मुलाक़ातों के बाद एक सभा में ढेबर भाई ने आरज़ी हुकूमत बनाने का फैसला ले लिया. इसके लिए दस सदस्यों की एक समिति बनाई गई.

एस वी जानी की किताब में लिखा गया है कि “23 सितंबर 1947 को आरज़ी हुकूमत बनाने का फैसला हो चुका था. लेकिन उसका ऐलान होना बाक़ी थी. 24 सिंतबर 1947 को अपनी संध्या प्राथना में गांधी जी ने कहा था कि ‘काठियावाड़ में जो वेरावल का बंदरगाह है. वही जूनागढ़ का भी बंदरगाह है. जूनागढ़ तो पाकिस्तान में चला गया, लेकिन जूनागढ़ में पाकिस्तान कैसे बन सकता है, ये मेरी समझ नहीं आता. आस-पास की सारी रियासतें हिंदू हैं, और उसकी आबादी का बड़ा हिस्सा हिंदुओं का है, तो भी जूनागढ़ पाकिस्तान का हिस्सा बना, ये एक हैरान करने वाली बात है. लेकिन ऐसी घटनाएं तो हिंदुस्तान में हर जगह घट रही हैं. जूनागढ़ में से पाकिस्तान को चले जाना चाहिए.’ आरज़ा हुकूमत को बनाने वाले नेताओं के लिए गांधी जी के ये वाक्य आशीर्वाद समान थे.”

शामलदास गांधी आरज़ी हुकूमत के प्रधान बने. 25 सितंबर 1947 में आरज़ी हुकूमत की औपचारिक स्थापना हुई और एक प्रधानमंडल भी बनाया गया, जिसमें पुष्पा बेन मेहता, दुर्लभ जी खेतानी, भवानी शंकर ओझा, मणिलाल दोषी, सुरगभाई वरु और नरेंद्र नथवाणी थे.

आरज़ी हुकूमत का एक घोषणापत्र भी बनाया गया था, जिसे नाम दिया गया था – जूनागढ़ की प्रजा की आज़ादी का घोषणा पत्र, जिसे कैन्हया लाल मुंशी ने लिखा था.

25 सिंतबर 1947 में मुंबई में बसे हुए काठियावाड़ियों ने माधवबाग में एक सभा बुलाई, जहां शाम 6 बजकर 17 मिनट पर इस घोषणापत्र का अनावरण किया गया.

एस वी जानी की किताब में लिखा गया है कि “इस घोषणापत्र में कहा गया था कि जूनागढ़ के नवाब ने हिंदू बहुमत वाली प्रजा की भारत से जुड़ने की इच्छा को नज़रअंदाज़ करते हुए, जूनागढ़ को पाकिस्तान से मिलाने की भूल की है. साथ ही ऐसी मुश्किल परिस्थितियां पैदा कीं, जिससे प्रजा को ये फैसला कबूल करना पड़ा. ऐसा करके नवाब ने प्रजा की वफादारी को खो दिया. पाकिस्तान ने भी आत्म निर्णय के सिद्धांत को तोड़ा था और इस वजह से जूनागढ़ का पाकिस्तान में मिला अयोग्य था और गैर-क़ानूनी भी.”

इस घोषणापत्र में हिंदुस्तान में मिलने की बात भी लिखी गई थी. इसमें ये भी लिखा गया था कि जूनागढ़ के नवाब के पास जो सत्ता और अधिकार थे, वो आरज़ी सरकार को दे दिए गए थे.

जूनागढ़ के लोगों को इस हुकूमत का पालन करने की अपील की गई थी. घोषणापत्र के ज़रिए जूनागढ़ की प्रजा ने आज़ी हुकूमत की स्थापना का ऐलान किया था.

स्वतंत्र भारत के संविधान में दिए गए प्रजा की सर्वोपरिता के सिद्धांत को इसमें शामिल किया गया था.

आरज़ी सरकार का मुख्यालय राजकोट में बनाया गया था. चार हफ्तों तक सबकुछ शांतिपूर्ण था. वल्लभ भाई पटेल ने पाकिस्तान को समय दिया कि वो अपना ये कदम वापस ले ले.

आरज़ी हुकूमत ने अमरापुर, नवागढ़, गाधकड़ा जैसे गांवों पर नियंत्रण कर लिया था. आरज़ी हुकूमत के स्वयंसेवकों ने जैसे ही जूनागढ़ की सीमा में प्रवेश किया, तब नवाब महाबत खान वहीं से कराची भाग गए.
काठियावाड़ के मुसलमानों को पाकिस्तान में रुची नहीं
शम्भू प्रसाद देसाई सौराष्ट्र के जाने-माने इतिहासकार थे. उन्होंने जूनागढ़ और सोमनाथ पर संशोधन करके कुछ किताबें भी लिखी, जिसमें एक लेख है – जूनागढ़ सर्वसंग्रह. जिसमें वो लिखते हैं कि “जूनागढ़ पूरा उजड़ गया था. सभी रास्ते में विरानी फैली हुई थी. दीवान शाहनवाज़ भुट्टो और पुलिस कमिश्नर मोहम्मद हुसैन नकवी बल प्रयोग करके लोगों के गुस्से को शांत करने की और आरज़ी हुकूमत से लड़ने की कोशिश कर रहे थे. आरज़ी हुकूमत की सेना आगे बढ़ रही थी और शाहनवाज़ भुट्टो के पास कोई ख़ास विकल्प थे नहीं.”

राजमोहन गांधी ने अपनी किताब में लिखा है कि “27 अक्टूबर को भुट्टो ने जिन्ना को एक पत्र लिखा. उसमें लिखा था, हमारे पास कोई पैसे नहीं बचे हैं. अनाज इतना कम है कि अब चिंता हो रही है. नवाब साहब और उनके परिवार को चले जाना पड़ा है. काठियावाड़ के मुसलमानों को पाकिस्तान में कुछ दिख नहीं रहा. मैं इससे ज़्यादा कुछ नहीं कह सकता. मंत्रिमंडल के मेरे वरिष्ठ साथी कैप्टन हार्वे जॉन्स ने आपको परिस्थिति की गंभीरता बता दी होगी.”

दो नंवबर को आरज़ी हुकूमत ने नवागढ़ को नियंत्रण में ले लिया. पांच दिन बाद भुट्टो ने हार्वे जॉन्स को शामलदास गांधी के पास राजकोट भेजा. जहां हार्वे जॉन्स ने गांधी को जूनागढ़ का नियंत्रण लेने की अपील की.

8 नवंबर को भुट्टो ने अपनी दरख्वास्त बदल दी और कहा कि आरज़ी हुकूमत नहीं बल्कि भारत सरकार जूनागढ़ का कब्ज़ा ले ले.

शामलदास गांधी ने इस दरख्वास्त का कोई विरोध नहीं किया. इस दरख्वास्त को नीलम भाई बूच के सामने रखा गया.

नीलम भाई बूच को दिल्ली से पश्चिम भारत और गुजरात के रजवाड़ों के लिए कमिश्नर के तौर पर चुना गया था.

9 नवंबर 1947 के दिन उन्होंने जूनागढ़ को नियंत्रण में लिया और इसलिए जूनागढ़ का स्वतंत्रता दिवस 9 नवंबर को मनाया जाता है.

जूनागढ़ के लालच में क्या पाकिस्तान ने कश्मीर खो दिया था?
लोकमत में पाकिस्तान को मिले सिर्फ 91 वोट
भुट्टो के निवेदन को भारत ने स्वीकार कर लिया. माउंटबेटन के कहने पर मेनन और नेहरू ने पाकिस्तान भेजने के लिए संदेशा भी तैयार कर लिया.

उसमें लिखा गया था कि हमने भुट्टो की अर्ज़ी को स्वीकार किया है लेकिन क़ानूनी तौर पर जूनागढ़ से जुड़ने से पहले वहां के लोगों का मत हम ज़रूर जानेंगे.

इसपर सरदार ने नाराज़गी जताई थी कि इस लोकमत की कोई ज़रूरत नहीं है और जूनागढ़ के लोगों की भी ऐसी कोई मांग नहीं थी.

20 फरवरी 1948 को ये लोकमत कराया गया. 2,01,457 रजिस्टर्ड मतदाताओं में से 1,90,870 लोगों ने अपना वोट दिया. जिसमें पाकिस्तान के लिए सिर्फ 91 मत मिले थे.

Image copyrightGETTY IMAGESजूनागढ़ के लालच में क्या पाकिस्तान ने कश्मीर खो दिया था?
कश्मीर और जूनागढ़ मतलब वज़ीर और प्यादे का खेल
देश जब आज़ाद हुआ तब तीन रजवाड़े ऐसे थे, जिनका मसला थोड़ा पेचीदा था. ये तीन रजवाड़े थे – जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद.

तब हैदराबाद 82 हज़ार स्क्वायर मील का सबसे बड़ा रजवाड़ा था. तब वहां एक करोड़ साठ लाख लोग थे. जिसमें से 85% हिंदू थे.

हालांकि उसके सेना और प्रशासन में मुसलमानों का वर्चस्व था और हैदराबाद के राजा भी मुसलमान थे.

जूनागढ़ में भी 80 प्रतिशत प्रजा हिंदू थी और शासक मुस्लिम.

लेकिन कश्मीर में परिस्थिति उल्टी थी. वहां राजा हिंदू था और तीन चौथाई कश्मीरी मुसलमान थे.

कश्मीर की सरहद चीन और अफगानिस्तान से लगती थी.

राजमोहन गांधी ने अपनी किताब – पटेल अ लाइफ़ में लिखा है कि “सरदार को कश्मीर लेने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भौगोलिक रूप से वो महत्वपूर्ण थी, लेकिन वहां के ज़्यादातर लोग मुसलमान थे. मोहम्मद अली जिन्ना जूनागढ़ की आड़ में कश्मीर लेना चाहते थे. नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान से जब मिलाया, तब काठियावाड़ में मुस्लिम विरोधी हवा शुरू हो गई थी.”

“अगर जूनागढ़ में लोकमत लिया जाए तो वहां के लोग भारत के साथ जुड़ना पसंद करेंगे और मुस्लिम बहुमत वाले कश्मीर में अगर लोकमत लिया जाए तो वहां के लोग पाकिस्तान आना पसंद करेंगे, ऐसा जिन्ना का मानना था. जूनागढ़ पाकिस्तान के मिलन की वजह से एक बड़ा सवाल खड़ा हुआ, कि अगर नवाब और दीवान जूनागढ़ को पाकिस्तान में जोड़ पाएं तो निज़ाम भी हैदराबाद को जोड़ पाएंगे. जूनागढ़ जैसे प्यादे को इस्तेमाल करके जिन्ना इस शतरंज के वज़ीर को उठाना चाहते थे, वो वज़ीर कश्मीर था. जिन्ना को ये यकीन हो चुका था कि जूनागढ़ के नवाब को नहीं लेकिन लोगों को ये फैसला करने देने की मांग हिंदुस्तान खुद ही करेगा.”

“हिंदुस्तान की ऐसी मांग के बाद कश्मीर के महाराजा अगर भारत में जुड़ने की बात करते हैं, तो वो खुद भी लोकमत का आग्रह कर सकते हैं. कश्मीर में अगर लोकमत लिया जाए तो भारत-पाकिस्तान का विकल्प इस्लाम समर्थक और इस्लाम विरोधी जैसे मुद्दे पर चुनाव लड़ा जा सकता है. तीस सितंबर को नेहरू ने माउंटबेटन की उपस्थिति में लियाकत को बताया कि जूनागढ़ के नवाब ने जो फैसला किया है, अगर उसको लेकर जूनागढ़ के लोगों का लोकमत लिया जाता है तो उसका निर्णय भारत को स्वीकार होगा. तब वल्लभ भाई ने ये कहा कि अगर कश्मीर में लोकमत लिया जाता है तो हैदराबाद में भी लेना होगा. जिन्ना इस बात से सहमत नहीं थे. इसलिए उन्होंने जूनागढ़ में भी लोकमत को अस्वीकार किया.”
जूनागढ़ और हैदराबाद
सरदार पटेल को कश्मीर लेने की कोई ख़ास उत्सुकता नहीं थी. लेकिन जूनागढ़ के बाद पटेल कश्मीर में दिलचस्पी लेने लगे थे.

राजमोहन गांधी लिखते हैं कि “मुसलमान राजा और हिंदू बहुमत वाली प्रजा के राज्य को अगर जिन्ना स्वीकार करते हैं तो हिंदू राजा और मुस्लिम बहुमत वाली प्रजा के राज्य में सरदार दिलचस्पी क्यों ना ले और इसी के बाद सरदार ने कश्मीर और जूनागढ़ पर बराबर ध्यान देना शुरू किया. जूनागढ़ को ले लिया था और कश्मीर को बचाना चाहते थे. हैदराबाद उनके लिए शतरंज का राजा था. इसलिए उसको संभालना भी ज़रूरी था. जूनागढ़ और हैदराबाद को हिंदुस्तान में आने दिया होता तो वज़ीर शायद सरदार पाकिस्तान को देते.”

लेकिन जिन्ना ने इस सौदे को ठुकरा दिया. जूनागढ़ आज़ाद हुआ और उसके चार दिन बाद सरदार पटेल जूनागढ़ आए. वहां उन्होंने बहाउद्दीन कॉलेज के ग्राउंड में एक बड़े जनसमूह को संबोधित किया.

राजमोहन गांधी लिखते हैं कि इस भाषण में उन्होंने भुट्टो और जॉन्स को वास्तविक दृष्टि रखने के लिए और भारतीय सेना को संयम रखने के लिए बधाई दी थी. उन्होंने कश्मीर और हैदराबाद का भी ज़िक्र किया था – ‘अगर हैदराबाद वास्तविकता नहीं समझेगा तो उसके हाल भी जूनागढ़ जैसे होंगे. पाकिस्तान ने कश्मीर के सामने जूनागढ़ को खड़ा कर दिया. हमने जब इस मसले का हल लोकतांत्रिक तरीक़े से निकालने की कोशिश की तो उन्होंने (पाकिस्तान ने) कहा कि यही नियम अगर कश्मीर में लागू किया जाए. तभी वो जूनागढ़ के बारे में सोचेंगे. हमारा जवाब ये था कि ये बात अगर वो हैदराबाद के लिए कबूल कर ले तो ही हम कश्मीर की बात भी कबूल करेंगे.’

(बीबीसी)

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