ईश्वर को पाने ज्यादा सहज है

अनासक्त योग भरा गृहस्थाश्रम

– डॉ. दीपक आचार्य

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जीवन लक्ष्यों और ईश्वर को पाने के लिए कलियुग में सर्वश्रेष्ठ, सरल और सहज मार्ग है गृहस्थाश्रम। इसके माध्यम से सेवा और परोपकार की वृत्तियों में जुड़े रहकर तथा पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करते हुए प्रसन्नता और सहजता के साथ मनुष्य के लिए निर्धारित पुरुषार्थ चतुष्टय भी प्राप्त किए जा सकते हैं और दृढ़ इच्छाशक्ति एवं आतुरता होने पर ईश्वर से साक्षात्कार भी संभव है।

आम तौर पर कई लोगों की धारणा होती है कि ईश्वर को पाने के लिए संन्यास लेना जरूरी है अथवा गुरु की नितान्त जरूरत पड़ती है। जबकि वास्तव में ऎसा है नहीं। जो कोई ऎसा सोचते हैं उन सभी को चाहिए कि  अपने दिमाग से इस विचार को निकाल दें। श्रेष्ठ और आदर्श गृहस्थ संन्यास से सौ गुना ज्यादा अच्छा होता है।

गृहस्थ में रहकर संन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करने का अभ्यास डालने की आवश्यकता है। जो कोई व्यक्ति जल कमलवत रहकर अनासक्त जीवन जीता है उसके लिए उसका घर की आश्रम है और जीवन ही संन्यास का पर्याय। अनासक्त कर्मयोग को अपना लिया जाए तो यही वास्तव में संन्यास है। बहुत बड़े-बड़े संन्यासयिों के साथ रहने और उनकी जीवनचर्या का निकटता से अध्ययन करने पर यही सामने आता है कि वे एक आम संसारी से कई गुना अधिक संसारी हो जाते हैं, फिर न उन्हें साधना का समय मिल पाता है  न लोक सेवा का। हम जिन माता-पिता के खून से बने हैं, जिन बंधुओं ने हमें बड़ा किया है, जिस मिट्टी ने अनाज-पानी देकर हमें बड़ा किया है, जिन पुरखों की परंपरा में हम निकले हैं, उन सभी का ऋण हम पर है।

असल में देखा जाए तो ये सारे ऋण चुकाना हर इंसान का पहला फर्ज है और संसार में हमारा जन्म ही इन सभी प्रकार के कर्ज उतारने के लिए हुआ है। जब सारे कर्ज चुकता हो जाएंगे, सारे फर्ज पूरे हो जाएंगे, तब हमारे भीतर अपने आप तीव्र वैराग्य उत्पन्न होगा। वस्तुतः वही असली संन्यास होगा। उस दिन  की प्रतीक्षा करने की जरूरत है।यह स्थिति आने पर यह जरूरी है कि निरन्तर प्रभु स्मरण करते हुए अनासक्त भाव से जीवनयापन करते चलें। इससे यह मार्ग और अधिक सुगम होकर जल्दी ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है क्योंकि प्रभु का सान्निध्य पाने की तड़प होने पर ईश्वर स्वयं हमारे लिए अनुकूलताएं ले आता है।  संन्यासी वही बन सकता है जिसका संसार के प्रति समस्त प्रकार का ऋण चुकता हो जाए। इसके बगैर कोई संन्यासी नहीं बन सकता।

श्रेष्ठ जीवन गृहस्थ ही है संन्यास नहीं। संन्यास का अर्थ घर-बार छोड़कर जंगलों में एकान्त सेवन करना नहीं है बल्कि सब कुछ, और सभी प्रकार का भोग- वैभव होते हुए भी उनके प्रति अनासक्त रहकर उपयोग करना है। संन्यास का संबंध मन से है, संसार को त्यागने से बिल्कुल नहीं है। कुछ लोग संन्यासियों के लोकोन्मुखी स्वरूप को देखकर आकर्षित होते हैं और संन्यास को अच्छा समझकर गृहस्थ को हीन मानते हैं। बहुधा ऎसा प्रत्येक प्राणी के साथ होता है। वह वर्तमान तथा उपलब्ध संसाधनों और स्थितियों में प्रसन्न नहीं रहता, उसे औरों में सुख ज्यादा दिखता है तथा जिज्ञासाओं की तीव्रता के कारण स्वयं के मुकाबले परायों के रहन-सहन को श्रेष्ठ समझता है।

लेकिन जब जिज्ञासाओं का शमन हो जाता है और निकट जाकर गहरे तक निगाह डाली जाती है तब हकीकत से रूबरू हुआ जा सकता है। कुछ श्रेष्ठ और तपस्वी संतों को छोड़ दिया जाए तो साधु वेष में बहुसंख्य लोग ऎसे हैं जिनकी असलियत जान लें तो इनके प्रति गहरी वितृष्णा हो जाए। इन  संन्यासी/साधुओं का असली चेहरा कुछ दूसरा ही है। वास्तविक संन्यासी संसार से दूर रहते हैं, उन्हें संसार की बजाय एकमेव ईश्वर ही दिखता है, वे ईश्वर को ही चाहते हैं। इसलिए उनका आराध्य मनुष्य या संसार न होकर ईश्वर होता है। वे न किसी मनुष्य से लोकेषणा, वित्तेषणा आदि की आशा-अपेक्षा रखते हैं और न ही उन पर लोकप्रियता और परम वैभवशाली होने का भूत सवार रहता है।

जीवन, शरीर और धर्म के प्रति अपनी सारी जिज्ञासाओं का समाधान हो जाने पर ज्ञान का विराट ज्योतिपुंज हमारे साथ चलता है फिर हमें किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। अपने भीतर के प्रकाश से सब कुछ अपने आप पता चल जाता है।

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