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पर्व – त्यौहार

हरियाली तीज पर्व का महत्व और इसे मानने की प्रासंगिकता

ओ३म्
-आज 23 जुलाई को हरियाली तीज पर्व पर-

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अनेक शताब्दियों से भारत मे महिलाओं द्वारा हरियाली तीज का पर्व को मनाने की परम्परा है। प्रत्येक श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को यह पर्व मनाया जाता है। इसे हरि तृतीया भी करते हैं। हरि का अर्थ हरियाली से है और तृतीया श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया का बोधक है। इस पर्व की पृष्ठभूमि पर विचार करते हैं तो निम्न तथ्य दृष्टि में आते हैं। हमारे प्रिय भव्य भारत देश में छः ऋतुओं में जीवन का संचार करने वाली वर्षा ऋतु की महिमा अपरम्पार है। स्थल, जल तथा आकाश में विचरने वाले सभी प्राणियों का जीवन जल पर निर्भर है। संस्कृत में जल को ही जीवन कहते हैं। वर्षा ऋतु से पूर्व संसार ग्रीष्म के ताप से विह्वल और उद्विग्न हो रहा था। वर्षा ऋतु का शुभागमन होते ही प्रकृति का दृश्य ही बदल गया। गगन मंडल बादलों के दल से घिर गया। शीतल पूर्वी हवायें देह को प्रफुल्लित करने लगी। चारों ओर वृक्ष-वनस्पतियों ने भूमि माता के पेट से प्रकट होकर उस के उपरि-तल को हरे पट से आच्छादित कर दिया। उसके ऊपर जहां तहां बिखरी हुई वीर बहूटियों के लाल-लाल बिन्दुओं ने उसकी कुछ और ही छटा बना दी। प्राणीमात्र प्रमुदित दिखाई देने लगे। वर्षा का पूर्ण यौवन श्रावण महीने चढ़ता है। सावन महीने की वर्षा की झड़ी प्रसिद्ध है। कभी-कभी तो ऐसी झड़ी लगती है कि दिन में रात हो जाती है। सूर्य देव के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। बड़ी नदियों की तो कौन कहे, छोटी छोटी नहरे व नाले तक इतरा-इतरा कर अपने आपे से बाहर होकर उमड़ पड़ते हैं। जिधर देखों उधर हरियाली ही हरियाली नेत्रों का सत्कार करती है। तभी तो यह कहावत बन गई है कि ‘सावन के अन्धे को हरा ही हरा सूझता है।’

नभ मण्डल में जिधर देखें मेघरूपी मतवाले गज गरजते फिरते हैं। आसमान पर चढ़कर सभी को अभिमान हो जाता है। दादुर-ध्वनि और मयूरों का केका दसों दिशाओं को मुखरितकर देती है। सुखद, मन्द सुगन्ध समीर चारों ओर घूम-घूम कर हर्ष का सन्देश देने लगता है। प्रकृति में आनन्द ही आनन्द का एकाधिपत्य व्याप जाता है। ऐसे समय में सौन्दर्योपासक, रम्य-निर्माणशाली स्रष्टा की रम्य रचना के गुण गायक सहृदय भारतवासी भला कैसे उदासीन रह सकते हैं। उन्होंने भी प्रकृति के मधुर स्वर में अपना स्वर मिलाने के लिए मनभावन सावन के मध्य में हरियाली तीज का एक उत्सव रच डाला। वैसे भी मनुष्य उत्सव प्रिय प्रसिद्ध ही है। यों तो भारत में मनुष्यमात्र. आबाल वृद्ध वनिता सभी वर्षा का आनन्द मनाते हैं। कृषि प्रधान भारत के किसान सावन मास की फसल की बुवाई से निवृत्त होकर आनन्द से अन्न देने वाली वर्षा ऋतु के गुणों के मल्हार गाते हैं। श्रद्धालु धार्मिक लोग इस मास में ज्ञान चर्चा और ईश्वर की कथा में रत रहते हैं। मल्ल लोग अपनी मल्लकला के करतबों का विशेष अभ्यास भी इसी मास में करते हैं। सर्वत्र जल-वर्षा के साथ मन-प्रमोद की भी वर्षा होती रहती है। परन्तु प्रमोद की अधिष्ठात्री प्रमदा जाति ही मानी जाती है। ललित कलाओं में सर्वोपरि संगीत कला का यही प्रतिनिधि है। उसी के स्वाभाविक कलकण्ठ से संगीत की देवी स्ववाणी को सुन्दर स्वर में व्यक्त कर सकती है।

स्त्री-जाति भावुकता की मूर्ति है। पुरुषों में विचार-शक्ति और स्त्रियों में भाव-शक्ति बलवती होती है। स्त्री पर भावना वा अनुभूति का प्रभाव अति शीघ्र और अतिशय होता है। वर्षा ऋतु का आनन्द भी उन को विशेष रूप से प्रभावित करता है। इसलिए वर्षा ऋतु का उत्सव विशेषतः स्त्री-जाति का उत्सव माना जाता है। स्त्री जाति में श्रावण शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरि तृतीया या हरियाली तीज का पर्व मनाने की परिपाटी प्राचीन काल से भारत के सब प्रान्तों में प्रचलित है। पुरन्ध्री और कुमारी कुल देवियां इस दिन घर-घर स्वादु पववान्न बना-बनाकर उसे घर की बड़ी-बूढ़ियों को भेंट करती है और सांकाल को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलती हुई मधुर राग गाती हैं और वर्षा ऋतु का आनन्द लूटती हैं। इस कृत्य में कोई भी अनौचित्य, अशालीनता या अशास्त्रीयता नहीं है। पर जब से भारतीय ललनाकुल में अविद्या पिशाची का प्रवेश हआ है तब से उन में तीज के पर्व के अवसर पर कुल मर्यादा और शील के उल्लंघनकारी श्रृंगार के गन्दे गीतों के गाने की जघन्य कुप्रथा चल पड़ी है। ब्रज मण्डल में स्त्री-पुरुष दोनों इस पर्व पर अश्लील कजलियां गाते हैं। यद्यपि गृहस्थ दम्पतियों के लिए शुद्ध श्रृंगार और पवित्र प्रेम के सुरुचि संचारक गायन निन्दनीय नहीं हैं, परन्तु सदाचार विनाशक, कुरुचिकारक गन्दे गीत सर्वथा त्याज्य हैं। सर्व सुधारों के संस्थापक और सनातन संस्थाओं के उपादेय अंश के व्यवस्थापक, धर्म और राष्ट्रीयता के पुनरुद्धारक आर्यसमाज का परम कर्तव्य है कि जहां वह भारत की प्राचीन सभ्यता के सूचक परम्परागत पुण्य पर्वों के प्रचार की रक्षा करे, वहां उन में से अयुक्त और हेय अंश को पृथक करके उन के सुधरे हुए स्वरूप का संचार आर्य परिवारों में करें। आर्यसमाज ने इस कार्य प्रशंसनीय रूप से किया है। आज वैदिक धर्म इसी चिन्तन, भावना व विचार को सम्मुख रखकर पर्वों को सार्थक रूप में मनाते हैं।

हरियाली तीज के पर्व को वैदिक रीति से ही मनाया जाना चाहिये। उसकी विधि पर आर्य विद्वानों का मत है कि इस दिन प्रातः सामान्य पर्व पद्धति में उल्लिखित विधानानुसार प्रत्येक परिवार में गृह मार्जन, लेपन के अनन्तर सामान्य अग्निहोत्र-यज्ञ करना चाहिये। मध्यान्ह में प्राचीन प्रथानुसार स्वादिष्ट मिष्ठान्न व भोजन बना कर उससे घर व पड़ोस की वृद्ध महिलाओं को आदरपूर्वक भेट किया जाना चाहिये। इस से वृद्धा पूजा के प्रचार की परिपुष्टि, विनय भाव की दृढ़ता और छोटे सदस्यों के प्रति बड़ों के स्नेह की वृद्धि होती है। सायंकाल को सब सखी सहेलियां मिलकर संगीत और झूला झूलने का आनन्द उठायें किन्तु ईश्वरभक्ति के गीत व संगीत के साथ वर्षा की प्राकृतिक शोभा का वर्णन और पवित्र प्रेम के सुन्दर गीत ही इस आनन्दोत्सव पर गाये जाने चाहियें। यही इस पर्व को मनाने का सार्थक तरीका है।

आर्यसमाज हरियाली तीज को आर्य पर्व स्वीकार करता है। आर्य पर्व पद्धति में इस पर्व को भी सम्मिलित किया गया है। हमने इसी पुस्तक से इस पर्व की विषय सामग्री प्रस्तुत की है। इसमें हमारा अपना कुछ नहीं है। पाठकों का इस अवसर पर मार्गदर्शन हो, यही हमें अभीष्ट है। आज हरियाली तीज वा हरि-तृतीया पर्व के अवसर हम सब आर्य व सनातनी बहिन-भाईयों को इस पर्व की बधाई देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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