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संपादकीय

सभी पड़ोसी देशों को मलाल है चीन का पड़ोसी होने का

जब 1947 की 14 अगस्त तक भारत अखंड देश के रूप में विश्व मानचित्र पर विद्यमान था तब के चीन का मानचित्र भारत के मानचित्र की अपेक्षा 2 गुना कम था । उसके पश्चात चीन ने अपनी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति के अंतर्गत अपना साम्राज्य बढ़ाना आरंभ किया । यह अत्यंत खेदजनक स्थिति है कि जब साम्राज्यवाद और विस्तारवाद के विरुद्ध दो विश्वयुद्ध झेलने के पश्चात मानवता साम्राज्यवाद और विस्तारवाद से मुक्ति का सपना देख रही थी , सही उसी समय से चीन ने साम्राज्यवाद और विस्तारवाद की नीति पर काम करना आरंभ किया। निश्चित ही उस समय संसार के देशों को चीन की इस प्रकार की नीति का विरोध करना चाहिए था ।

यहां पर यह ध्यान रखने योग्य बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ इसीलिए अस्तित्व में आया था कि वह उन्मादी और उग्रवादी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी सोच के देशों पर अंकुश लगाएगा , परंतु इस विश्व संस्था ने ऐसी सोच पर अंकुश लगाने के स्थान पर चीन को अपना स्थाई सदस्य बनाकर सम्मानित और कर दिया। बात साफ है कि जब डाकू का सार्वजनिक अभिनंदन हो तो उससे डकैती छोड़ने की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।

यदि विश्व के देशों और वैश्विक संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से ऐसा होता तो निश्चित रूप से आज संसार जिस तीसरे विश्वयुद्ध की भयावह कल्पनाओं से कम्पित होने लगता है वह स्थिति कभी नहीं आती । आज के चीन के बारे में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि उसके जितने भी पड़ोसी देश हैं उन सबको उसका पड़ोसी होने का मलाल है । सबको इस बात को लेकर चिंता रहती है कि ड्रैगन कभी भी अपने सही स्वरूप में आकर उनके अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर सकता है। चीन का नेतृत्व इसके लिए यह कहता आ रहा है कि जिस व्यक्ति के अधिक पड़ोसी होते हैं उसकी सिर दर्दी अधिक बढ़ जाती है। उसके ऐसा कहने से यह संकेत जाता है कि जैसे उसके पड़ोसी देश ही चीन के लिए सिरदर्द पैदा करते रहे हैं। जबकि सामान्य शिष्टाचार का सिद्धांत यह है कि जिसके अधिक पड़ोसी हों उसे अधिक सावधानी बरतते हुए सबके साथ संतुलन बनाकर चलने के लिए अपने आप को भी आत्मानुशासित करना पड़ता है। चीन ने सामान्य शिष्टाचार के इस सिद्धांत का अपने पड़ोसियों के साथ सदा उल्लंघन किया है।
हाल ही में लद्दाख के गलवान इलाके में भारत और चीनी सेना के बीच झड़प करके चीन ने भारत के साथ कोई पहली बार सीमा विवाद को उलझाने का प्रयास नहीं किया है ,इससे पहले भी चीन ने भारत के साथ पिछले 72 वर्षों में अनेकों बार सीमा विवाद को लेकर उलझने का प्रयास किया है। सारा विश्व जानता है कि 1962 में दोनों देश सीमा विवाद को लेकर एक बड़ा युद्ध लड़ चुके हैं।
विश्व के देशों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों के दृष्टिगत किसी दूसरे देश के विरुद्ध टिप्पणी करते हैं । अभी तक चीन के द्वारा अपने पड़ोसियों के साथ छेड़छाड़ करने के मामलों में अमेरिका शांत रहा , परंतु अब जब चीन ने कोरोनावायरस फैलाकर विश्व में अस्तव्यस्तता फैलाने का उन्मादी और उग्रवादी कार्य करके दिखा दिया है और उसकी सबसे अधिक पीड़ा अमेरिका को झेलनी पड़ी है तो अमरीका को चीन का सही चेहरा दिखाई देने लगा है । अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने अब जाकर यह कहा है कि चीन का सभी पड़ोसियों के साथ रवैया ‘दादागिरी’ वाला है । जबकि यह बात अमेरिका को बहुत पहले कहनी चाहिए थी , क्योंकि विश्व के 5 पंचों में से एक पंच चीन भी है, जो संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के साथ कुर्सी डालकर बैठता है । अमेरिका सहित विश्व के सभी देश यह जानते हैं कि चीन का हॉन्गकॉन्ग में तानाशाही भरा दुराचरण वहां के लोगों के लिए लंबे समय से कष्टकारी रहा है । इसके अतिरिक्त चीन ताइवान के साथ भी जिस प्रकार का आचरण करता रहा है , उसे भी सारा विश्व जानता है । ताइवान को वह पहले दिन से ही निगलने के तरीके खोजता आ रहा है। तिब्बत जैसे एक बड़े देश को वह बड़ी आसानी से निगल गया । उस समय विश्व के सभी देश देखते रह गए और तिब्बत के अस्तित्व को बचाने के लिए कुछ भी सक्षम उपाय नहीं कर पाए । अब ऐसी ही गतिविधियां चीन भूटान, नेपाल, साउथ चीन सागर, पूर्वी चीन सागर, जैसे देशों में भी करता हुआ दिखाई देता है। भारत की अपेक्षा यह सभी देश बहुत दुर्बल हैं, परंतु चीन के लिए दुर्बलता किसी दूसरे देश का सबसे बड़ा वह गुण है जिसके चलते हुए वह उसे आराम से निगल सकता है।
चीन ने अपनी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी असभ्यता को छिपाने के लिए बड़ी टेढ़ी चाल चलते हुए नेपाल जैसे शांतिप्रिय देश को अपने सबसे अधिक विश्वसनीय मित्र और बड़े भाई भारत के विरुद्ध उकसाने का कार्य केवल इसलिए किया कि संसार यह देख सके कि भारत भी अपने पड़ोसियों को किस प्रकार धमकाता है ? और उसकी साम्राज्यवादी नीति किस प्रकार दूसरे देशों को हड़पने की है ? जबकि सच यह है कि भारत नेपाल के लिए न केवल बड़े भाई के रूप में काम करता रहा है बल्कि संरक्षक के रूप में भी काम करता रहा है और चीन का नेपाल के साथ भी सीमा विवाद है । अब से कुछ समय पूर्व नेपाल ने जहां भारत के द्वारा जारी किए गए विवादित मानचित्र पर अपनी आपत्ति व्यक्त की थी, वहीं उसने चीन की ओर से जारी किए गए मानचित्र पर भी आपत्ति दर्ज की थी और उस पर अतिक्रमण करने का आरोप लगाया था।
नेपाल के सर्वेक्षण विभाग की ओर से उस समय कहा गया था कि चीन ने नेपाल के उत्तरी जिले गुमला, रासुवा, सिंधुपालचौक और संखुवासभा पर अतिक्रमण किया है । यहां यह भी ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि चीन नेपाल की माउंट एवरेस्ट चोटी पर भी अपने 5 जी नेटवर्क उपकरण लगाने की तैयारी में हैं और उसे कई बहानों से चीन का हिस्सा भी बताता रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि यह सब कुछ जानते हुए भी नेपाल का वर्तमान नेतृत्व भारत के विरुद्ध चीन का मोहरा बना हुआ है । वह नहीं जानता कि चीन के हाथों उसका भविष्य पूर्णतया असुरक्षित है।
भारत , भूटान और चीन की सीमा पर डोकलाम विवाद को हम सभी भली प्रकार जानते हैं । यह विवाद उस समय 73 दिन चला था । वास्तव में तो इसका संबंध सीधे भूटान से था, परंतु भूटान के साथ भारत की संधि होने के कारण उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत की थी , इसलिए उस विवाद में सीधे भारत को ही चीन से निपटना पड़ा था। यह संधि 2017 में भारत और चीन की सेना के बीच हुई थी।
जिस प्रकार चीन के भारत नेपाल और भूटान के साथ सीमा विवाद हैं उसी प्रकार उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भी सीमा विवाद है । इन तीनों देशों के साथ उसका पीला सागर में विवाद है तो वहीं दक्षिण कोरिया और जापान के साथ पूर्वी चीन सागर पर विवाद है। इसके अतिरिक्त चीन जापान के सेंकेकु ,दियाओयू द्वीपों पर भी अपना दावा करता है । ये क्षेत्र भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार और सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।जिनका इन चार देशों के अतिरिक्त दूसरे देशों पर प्रभाव पड़ता है।
अभी पिछले दिनों चीन ने अपनी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति का परिचय देते हुए चीन के ब्लादिवोस्टक शहर पर भी अपना दावा ठोक दिया था। जिससे रूस ने भी उसके विरुद्ध आंखें तरेरनी आरंभ कर दी थीं । चीन ने कहा था कि 1860 से पहले ब्लादिवोस्टक उसके मानचित्र का एक भाग हुआ करता था । यदि इस प्रकार के दावे ठोकने की परंपरा चल गई तो फिर भारत को भी ईरान तक के देशों पर अपना दावा ठोकने से कोई रोक नहीं पायेगा । क्योंकि 1860 में (1857 की क्रांति के समय ) भारतवर्ष का क्षेत्रफल 8300000 वर्ग किलोमीटर था , जो आज घटकर केवल 3200000 वर्ग किलोमीटर रह गया है । बात स्पष्ट है कि लगभग ढाई गुणा बड़े ‘भारत’ को पाने के लिए भारत भी यदि ऐसे ही दावे ठोकने पर उतर आया तो फिर क्या चीन उसका समर्थन करेगा ? विशेष रुप से तब जब 1860 के बाद भारत से जबरदस्ती भूभाग छीन – छीनकर देश अलग हुए हैं और चीन ने 1950 के बाद दूसरे देशों को जबरदस्ती हड़पकर निगल लिया है।
सचमुच आज के संसार की विडंबना यह नहीं है कि वह तेजी से तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ रहा है, बल्कि सबसे बड़ी विडंबना यह है कि न्यायसंगत बातों को समझने और फिर कहने का साहस आज किसी के पास नहीं है । जब ऐसी स्थिति आ जाती है तभी युद्ध हुआ करते हैं और तभी महाविनाश हुआ करता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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