उत्पादन के स्रोतों पर किसी व्यक्ति का नहीं सरकार का अधिकार होना चाहिए

उत्पादन के स्रोतों पर किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि सरकार का अधिकार होना चाहिए। ऐसा हम नहीं कहते भाई, ये एक कम्युनिस्ट सिद्धांत है। अब ये बताइये कि किसान यानी “अन्नदाता” के लिए उत्पादन का स्रोत क्या है? उसकी जमीन? तो कम्युनिस्ट शासन में किसानों की जमीनें हड़प ली जाती हैं। नहीं, ये कोई मजाक नहीं, ऐसा कई देशों में हो चुका है। ताजा उदाहरण हमारे पड़ोस की राजशाही कम्युनिस्ट व्यवस्था वाले चीन में दिख जायेंगे। किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल करके फैक्ट्री में मजदूर बनाकर झोंका जा चुका है। जमीन की उनकी लालसा कैसी है, ये आप नेपाल से भी पूछ सकते हैं।

खैर तो बात थी किसानों की दुर्दशा की, और वो भी चीन में। तो मिशनरी परिवार में जन्मी, अमेरिकी लेखिका, पर्ल एस बक ने 1930 के दशक तक का अपना वक्त चीन में बिताया था। वो दौर पुरानी राजशाही के ख़त्म होने और कम्युनिस्ट राजशाही के लिए आन्दोलन के शुरू होने का दौर था। उसी दौर पर वहां के किसानों पर उन्होंने एक किताब लिखी “द गुड अर्थ”। ये एक किसान परिवार की कहानी सुनाती है। इसका मुख्य किरदार वांग लुंग नाम का एक इमानदार किसान और उसकी उतनी ही भली सी पत्नी ओ लान की कहानी है।

आन्दोलन शुरू होने वाला है यानी “किरांती आने वाली है” और दोनों लोग भी इससे प्रभावित होते हैं। आत्मसम्मान, पीड़ा, जैसी कई चीज़ें इस किसान परिवार के बारे में पढ़ते पढ़ते महसूस हो जाती हैं। कभी लालच, कभी लालसा, कभी कई चीज़ें एक साथ मिलकर किसी व्यक्ति को कैसे प्रेरित करती हैं, ये भी इस कहानी से पता चलता है। आपको भारतीय माहौल से समानता इसमें भी दिख जायेगी कि कैसे जब ओ लान की पहली संतान पुत्र होता है तो वांग लुंग खुश हो रहा होता है। बड़ों के कहने पर वांग लुंग को मजबूरन उधार देते देखने में भी यही नजर आता है।

आगे कहानी में ओ लान को एक के बाद एक दो बेटियां होती हैं तो वो जन्म लेते ही दूसरी बेटी को मार डालती है, क्योंकि तबतक अकाल आ चुका था और सबके भोजन की व्यवस्था संभव नहीं थी। ये भी जाना पहचाना लगेगा। कहानी जब और आगे बीतती है तो वांग लुंग चोरी के पैसे से जमीनें खरीदता है। अमीर होता है और एक रखैल भी रख लेता है। बाद में खेती का काम पसंद ना होने के कारण उसके बेटों में झगड़ा भी होने लगता है। कहानी चीन के किसानों की है मगर भारत से बहुत ज्यादा अलग नहीं लगेगी। कहानी का अंत आप खुद ही पढ़कर देखें तो बेहतर होगा।

ये किताब जब आई तो 1931 में बेस्ट सेलर थी, 1932 में इसे पुल्तिज़र मिला था। बाद में साहित्य में योगदान के लिए पर्ल एस बक को नॉबेल भी मिला था। इसपर एक फिल्म भी बनी है चाहे तो उसे भी देख सकते हैं। बाकी “ये पुस्तक हिन्दी में भी आती है क्या?” पूछने की सोच रहे हों, तो कृपया सवाल जाने दें।
✍🏻आनन्द कुमार

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