ईश्वर के अनेकों नामों की व्याख्या

कितना विशुद्ध, कितना विशाल, कितना विस्तृत, कितना विरल ,कितना विराट ,कितना स्वाभाविक, कितना प्राकृतिक, कितना परिष्कृत, कितना परिमार्जित रूप है उसका जिस अदृश्य, अगोचर, अजर, अमर ,अभय, अगम, अनुपम ,अतुलनीय शक्ति अर्थात परमपिता परमेश्वर की बात हम कर रहे हैं । जिसका निज नाम है – ओ३म।
कितना प्यारा नाम है – ओ३म। शेष सभी नाम गुणवाचक, कार्मिक तथा स्वाभाविक अर्थों के वाचक है ।जैसे प्रशासिता अर्थात सबको शिक्षा देने वाला सूक्ष्म से सूक्ष्म स्वयं प्रकाश स्वरूप और समाधि ,स्तुति से जानने योग्य है।

दूसरा खम अर्थात आकाश की तरह व्यापक ।तीसरा अग्नि अर्थात स्वयं प्रकाश स्वरूप ,चौथा मनु अर्थात विज्ञान स्वरूप एवं मानने योग्य है ,पांचवा प्रजापति अर्थात सब का पालन करने वाला ,छटा इंद्र अर्थात परमैश्वर्यवान ,सातवां प्राण अर्थात सबका जीवन मूल, आठवां ब्रह्म अर्थात सबसे बड़ा अनंत बल युक्त निरंतर व्यापक, नवां ब्रह्मा सब जगत का रचयिता ,दसवां विष्णु अर्थात सर्वत्र व्यापक, 11वां रुद्र अर्थात दुष्टों को दंड देकर रूलाने वाला, 12 वां शिव अर्थ सबका कल्याण करने वाला ,13 वां अक्षर जो सर्वत्र व्याप्त अविनाशी है, 14 वां स्वराट अर्थात स्व प्रकाश स्वरूप ,15वां कालाग्नि अर्थात प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, 16 वां दिव्य जो प्रकृति आदि दिव्य पदार्थ में व्याप्त ,17 वां सुपर्ण अर्थात जिसके उत्तम पालन और पूर्ण करम है, 18 वां गुरुत्मान अर्थात जिस का स्वरूप महान है, 19 वां मात् रिश्वर अर्थात जो वायु की तरह बलवान व वेगवान है ,20 वां भूमि अर्थात जिसमें सब भूत प्राणी होते हैं इसलिए ईश्वर का नाम भूमि भी है, 21वां भू अर्थात उत्पत्ति करता, 22 वां अदिति अर्थात जिसका कभी विनाश न हो, 23 वां विश्वधाया अर्थात सारे विश्व को धारण करने वाला, 24 वां विराट जो बहु प्रकार के जगत को प्रकाशित करें, 25 वां विश्व अर्थात जिसमें आकाश आदि सब भूत प्रवेश कर रहे हैं ,26 वां हिरण्यगर्भ :जिसमें सूर्य आदि तेज वाले लोक उत्पन्न होकर जिसके आधार में अर्थात गर्भ में रहते हैं, 27 वां वायु जो चराचर जगत का धारण पालन और प्रलय करता है तथा सब बलवानों से बलवान है ,28 वां तेजस जो सूर्य आदि तेजस्वी लोको का प्रकाश करने वाला है, 29 वां ईश्वर जिसका सत्य विचार शील चहूंओर अनंत ऐश्वर्य है ,तीसवां प्राज्ञ अर्थात जो निर्भ्रांत ज्ञान युक्त सब चराचर जगत के व्यवहार को यथावत जानता है ,31वां मित्र जो सबसे स्नेह करके सबको प्रीति करने योग्य हो ,32 वां वरुण जो शिष्ट, मुमुक्षु ,मुक्त और धर्मात्माओं से ग्रहण किया जाता है ,33 वां अर्चना जो सत्य न्याय के करने हारे मनुष्यों का मान्य, पाप तथा पुण्य करने वालों को फलों का यथावत नियम करता है।
34 वां बृहस्पति अर्थात जो बड़ों से भी बड़ा और बड़े आकाश आदि ब्रह्मांड का स्वामी है ,35 वां उरु क्रम अर्थात अनंत पराक्रम युक्त, 36 वां सूर्य अर्थात स्वयं प्रकाश स्वरूप व सबके प्रकाश करने वाले ,37 वां परमात्मा अर्थात् जो सब् जीव आदि से उत्कृष्ट और जीव, आकाश, प्रकृति से भी अति सूक्ष्म और सब जीवों का अंतर्यामी आत्मा हो, 38 वां परमेश्वर अर्थात जो ईश्वर में अर्थात समर्थों में समर्थ जिसके तुल्य कोई भी न हो, 39 वां सविता अर्थात जो सब जगत् की उत्पत्ति करता है । 40 वां देव अर्थात जो सबमें व्याप्त और जानने के योग्य है , 41 वां कुबेर अर्थात् जो अपनी ख्याति से सब का आच्छादन करें, 42 वां पृथ्वी अर्थात् जो स्वयं विस्तृत जगत का विस्तार करने वाला ,45 वां अन्न अर्थात जो सबको भीतर रखने व सबको ग्रहण करने योग्य चराचर जगत का ग्रहण करने वाला है ,46 वां अन्नाद अर्थात अनादि देने हारा ।
47 वां अत्ता अर्थात यह सभी अन्न के समानार्थक हैं केवल आदर के लिए नाम हैं ,48 वां वसु अर्थात जिस परमेश्वर के बीच में सब जगत की अवस्था है अर्थात जो सब में वास करता है ,49 वां नारायण अर्थात जल और जीवों का नाम नारा है व अयनअर्थात निवास स्थान है जिसका ,इसलिए सब जीवों में व्यापक परमात्मा का नाम नारायण है, अर्थात जो जल और जीवों सभी में निवास करता हो, इन्हीं 2 शब्दों की संधि से नारायण शब्द की उत्पत्ति होती है, 50 वां चंद्र अर्थात जो आनंद स्वरूप सबको आनंद देने वाला, 51 वां मंगल अर्थात जो मंगल स्वरूप व सब जीवों के मंगल का कारण है, 52 वां बुद्ध अर्थात जो स्वयं के स्वरूप और सब जीवों के बोध का कारण है , 53 वां शुक्र अर्थात जो अत्यंत शुद्ध और जिसके संग से जीव भी शुद्ध हो जाता है, 54 वां शनिश्चर: अर्थात जो सब में सहज से प्राप्त धैर्यवान हैं और धीरे-धीरे न्याय करता है ,55 वां राहु अर्थात जो एकांत स्वरूप जिसके स्वरूप में दूसरा पदार्थ संयुक्त नहीं , जो दुष्टों को छोड़ने और अन्य को छुड़ाने हारा है,56 वां केतु अर्थात जो सब जगत का निवास स्थान सब रोगों से रहित मुमुक्षुओं को मुक्ति समय में सब रोगों से छुड़ाता है, 57 वां यज्ञ : अर्थात यज्ञों में विष्णु जो सब जगत में पदार्थों को संयुक्त करता और सब विद्वानों का पूज्य है और ब्रह्मा से लेकर सब ऋषि मुनियों का पूज्य था ,है, होगा ।
58 वां होता अर्थात् जो जीवों को देने योग्य पदार्थों का दाता और ग्रहण करने योग्यों का ग्राहक है, 59 वां बंधु अर्थात जिसने अपने में सब लोक लोकांतरों को नियम से बद्ध कर रखा है और सहोदर के समान सहायक है ,इसी से अपनी-अपनी परिधि का, नियम का उल्लंघन नहीं कर सकते, 60 वां पिता अर्थात सबका रक्षक जैसे पिता अपनी संतानों की सदा कृपालु होकर उनकी उन्नति चाहता है वैसे परमेश्वर सब जीवों की उन्नति चाहता है, 61 वां पितामह जो पिताओं का भी पिता है ,62 वां माता अर्थात सब जीवों की वृद्धि चाहने वाला, 63 वां आचार्य अर्थात जो सत्य आचरण का ग्रहण करने हारा सब विद्याओं की प्राप्ति का हेतु होकर सब विद्या प्राप्त कराता है, 64 वां गुरु जो सृष्टि के आदि में अग्नि , वायु , आदित्य , अंगिरा और ब्रह्माजी गुरुओं का भी गुरु है ,65 वां अज अर्थात जो प्रकृति के अवयव आकाश आदि भूत परमाणुओं को यथा योग्य मिलाता,शरीर के साथ जीवन का संबंध कराने, जन्म देता और स्वयं कभी जन्म नहीं लेता, 66 वां सत्य अर्थात् सदैव एक समान रहने वाला, 67 वां ज्ञान अर्थात जो सब जगत् को जानने वाला है, 68 वांअनंत अर्थात जिसका अंत, अवधि, मर्यादा, परिमाप नहीं है ,69 वां आदि अर्थात जिसके पूर्व कुछ न हो, 70 वां अनादि अर्थात जिसका आदि कारण कोई नहीं है, 71 वां आनंद अर्थात जिसमें सब मुक्त जीव आनंद को प्राप्त होते हैं और सब धर्मात्मा जीवों को आनंद युक्त करता है ,72वां सत अर्थात भूत ,भविष्य , वर्तमान में जिसको बांधा न जा सके, 73 वां चित् अर्थात जो चेतन स्थान अर्थात सब जीवों को चेताने और सत्यासत्य का जानने वाला ,74 वां सच्चिदानंद स्वरूप उपरोक्त दिए गए तीनों शब्दों के संधि करने से विशेष होने से बना है ,75 वां नित्य अर्थात जो अविनाशी है जो नित्य है, 76 वां शुद्ध अर्थात जो स्वयं पवित्र और सब अशुद्धियों से पृथक और सब को शुद्ध करने वाला है ,77 वां मुक्त अर्थात जो सर्वदा अशुद्धियों से अलग और सब मुमुक्षुओं को क्लेश से छुड़ा देता है, 78 वां निराकार अर्थात जिसका कभी कोई आकार नहीं और न कभी शरीर धारण करता है, 79 वां निरंजन अर्थात जो आकृति म्लेच्छ आचार ,दुष्ट ,कामना और चक्षुर आदि इंद्रियों के विषयों के पथ से पृथक है, 80 वां गणेश गणपति अर्थात जो प्रकृति आदि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी व पालन करने वाला है, 81वां विश्वेश्वर अर्थात जो विश्व का अधिष्ठाता है 82 वां जो सब व्यवहारों में व्याप्त और सब व्यवहारों का आधार होकर भी किसी व्यवहार में अपने स्वरुप को नहीं बदलता है, 83 वां देवी यहां यह स्पष्ट करना श्रेयस्कर होगा कि हर आत्मा के नाम तीनों लिंगों में पाए जाते हैं , जब ईश्वर का विशेषतम होगा तब देव जब स्थिति का होगा तो देवी ।
84 वां शक्ति अर्थात जो सब जगत के बनाने में शक्तिमान हैं समर्थवान हैं, 85 वां श्री अर्थात जिसका सेवन सब जगत, विद्वान और योगी जन करते हैं उस परमात्मा का नाम है, 86 वां लक्ष्मी अर्थात जो सब चराचर जगत को देखता, चिन्हित अर्थात दृश्य बनाता जैसे शरीर के नेत्र, नासिका, और वृक्ष के पत्र, पुष्प ,फल, मूल, पृथ्वी जल के कण , रक्त, श्वेत, मृतिका, पाषाण ,चंद्र, सूर्य आदि चिह्न बनाता है तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और वेद आदि शास्त्रों का व धार्मिक विद्वान योगियों का लक्ष्य अर्थात देखने योग्य है, 87 वां सरस्वती अर्थात जो विविध विज्ञान अर्थात शब्द, अर्थ, संबंध, प्रयोग का ज्ञान यथावत कराने ,88 वां सर्वशक्तिमान अर्थात जो अपने कार्यों में किसी अन्य की सहायता की इच्छा नहीं करता , अपने ही सामर्थ्य से अपने सब काम पूरे करता है ,89 वां न्यायकारी अर्थात पक्षपात रहित कार्य करने के स्वभाववाला है ,90 वां दयालु अर्थात जो अभय का दाता, सत्य, असत्य विद्याओं का जानने वाला सब सज्जनों की रक्षा करने और दुष्टों को यथा योग्य दंड देने वाला है,91वां अद्वैत अर्थात जो दो का होना या दोनों से मुक्त होना द्वैत से रहित है ,92 वां निर्गुण अर्थात जो शब्द, स्पर्श ,रूप आदि गुण रहित है, 93 वां सगुण अर्थात जो सबका ज्ञान, सर्व सुख, पवित्रता, अनंत बल आदि गुणों से युक्त है, 94 वां अंतर्यामी जो सब प्राणी और प्राणी रूप जगत के भीतर व्यापक होने से सब का नियमन करता है ,95 वां धर्मराज अर्थात जो धर्म ही में प्रकाशमान और अधर्म से रहित धर्म का प्रकाश करता है, 96 वां यम:जो सब प्राणियों के कर्म फल देने की व्यवस्था करता है,97 वां भगवान अर्थात जो समग्र ऐश्वर्य संयुक्त या भजने के योग्य है, 98 वां पुरुष अर्थात जो सब जगत में पूर्ण हो रहा है ,99 वां विश्वंभर अर्थात जो जगत का भरण पोषण करता है, 100 वां काल अर्थात जो सब जगत के जीवों की संख्या करता है, 101वां शेष अर्थात जो उत्पत्ति और प्रलय से बच रहा है, 102 वां आप्त अर्थात जो सत्य उपदेशक विद्या युक्त सब धर्म आत्माओं को प्राप्त होता है ,और धर्म आत्माओं से प्राप्त करने योग्य छल कपट आदि से रहित है, 103 वां शंकर अर्थात जो कल्याण अर्थात सुख का करने वाला है ,104 वां महादेव अर्थात जो महान देवों का देव, विद्वानों का भी विद्वान, सूर्य आदि पदार्थों का प्रकाशक है ,प्रिय:अर्थात जो सब धर्मात्माओं और मुमुक्षुओं को प्रसन्न करता है ,और जो सब के कामना करने के योग्य है, 106 वां स्वयंभू :जो आपसे आप ही है, किसी से कभी उत्पन्न नहीं हुआ है ,107 वां कवि :जो वेद द्वारा सभी विद्याओं का विद्याओं का उपदेश करने हारा व वेत्ता है,
(प्रथम समुल्लास महर्षि दयानंद कृत ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से साभार)
इससे आगे महर्षि दयानंद ने यह भी लिखा है कि यही नाम पूरे एवं अंतिम नहीं है बल्कि गुण ,कर्म, स्वभाव के आधार पर ईश्वर के और भी अनंत नाम हो सकते हैं। आर्य समाज के नियमों में द्वितीय नियम में महर्षि दयानंद ने परम पिता परमेश्वर के 21 नामों को अधिमान्यता प्रदान की है। जो निम्न प्रकार हैं :-
ईश्वर ,सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार ,सर्वशक्तिमान, न्याय कारी, दयालु ,अजन्मा, अनंत, निर्विकार ,अनादि ,अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर ,अमर ,अभय ,नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है , लेकिन सभी नामों में ईश्वर का नाम केवल निज नाम ओ३म है।
इसमें तीन अक्षर मिलकर ओ३म शब्द की उत्पत्ति होती है ,लेकिन इस एक नाम से भी इस परमेश्वर के बहुत सारे नाम आते हैं। जैसे प्रथम अक्षर अ से विराट अग्नि और विश्व आदि। उकार से हिरण्यगर्भ: , वायु ,तेजस आदि होते हैं, मकार से ईश्वर , आदित्य और प्रज्ञा आदि नामों का वाचक एवं ग्राहक है। ओ३म की तीनों मात्राओं अकार, उकार और मकार अर्थात अ, उ , म से भी ईश्वर के अनेक नामों की उत्पत्ति होती है।
ओ३म से तात्पर्य सर्वरक्षक परमात्मा से भी है, सर्व रक्षक अर्थात सभी की रक्षा करने वाला ,जल, थल, आकाश में ,जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में रक्षा करता है। आंखों से दिखाई देने वाला या अर्थात सूक्ष्मदर्शी से दिखाई देने वाले जीवधारियों से लेकर हाथी और व्हेल आदि विशालकाय प्राणियों की रक्षा करने वाला वही ईश्वर है, उनके तीनों अक्षरों में अकार अर्थात प्रथम मात्रा या अक्षर का तात्पर्य ऐसे ईश्वर से है जो सर्वव्यापी अंतर्यामी हैं। जैसे हिंदी वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर में अ मात्रा की ध्वनि निकलती है। उदाहरणार्थ क , ख , ग उच्चारण करें तो सभी में अ की प्रतीति होती है। इसीलिए उपनिषद कहता है कि ईश्वर इस जग के कण-कण में विद्यमान है ।
ओ३म के मध्य में मात्रा या अक्षर उ आता है जो जीव का प्रतीक है । जब तक यह जीव अ अर्थात सर्वव्यापक सर्वांतर्यामी की ओर अभिमुख रहता है जैसा कि स्वाभाविक है तब तक वह आनंद की अनुभूति करता है ।तभी यह आनंद लोक का प्राणी है ।आनंद लोक से तात्पर्य परमधाम है। मोक्ष धाम से है। आनंद लोक से तात्पर्य ईश्वर के उस लोक से है , जहां पहुंचकर जीव को असीम आनंद की अनुभूति होती है ।
ओ४म की तीसरी मात्रा का अक्षर मकार है ,वह प्रकृति का प्रतीक है जब उ जो जीव का पर्यायवाची है,बीच में स्थित होने के कारण संसार में ,प्रकृति में भ्रमण करता है और उसमें सुख की अनुभूति करता है परंतु वह क्षणिक सुख होता है। उसके पश्चात दुख ही दुख है। प्रकृति में आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए जीव अशांत रहता है।
सुख और दुख जैसा कि हम जानते हैं केवल इंद्रियों का विषय है और जीव की जो इंद्रियां हैं वही उसको अच्छा और बुरा मानती रहती हैं।
इसलिए यदि आनंद लोक में विचरण करना है तो जीव आत्मा को दुविधा छोड़कर प्रथम मात्रा अ अर्थात परमात्मा में ही रमण और गमन करना होगा।
उ जो जीव अर्थात मनुष्य है वह अ और म अर्थात परमात्मा और प्रकृति के बीच रहने से द्वंद में फंसा है। परंतु जीव द्वंद से बाहर आ सकता है और परमात्मा के दर्शन कर सकता है यदि वह केवल अकार की तरफ ही अभिमुख रहे और जब वह उल्टी स्थिति में हो जाएगा अर्थात जब बीच में रहने वाला ‘उ ‘ या जीव मकार अर्थात प्रकृति की तरफ अभिमुख हो जाएगा तो उसकी उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी और वह उ अर्थात जीव अपने सही मार्ग से भटक जाएगा और अधोगति की तरफ चला जाएगा।
इसीलिए कहते हैं की दुविधा में दोनों गए माया (अर्थात प्रकृति या संसार) मिले ना राम (अर्थात ईश्वर)

इसका सीधा सा अर्थ है की द्वंद में मत फ़ंसो । एक मार्गी हो जाओ और ईश्वर का मार्ग पकड़ लो प्रकृति की तरफ से विमुख हो जाओ और जो ईश्वर की तरफ स्वाभाविक रूप से अभिमुख थे उसी स्थिति में रहो और ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयास करो वह और ऊर्ध्व गति होगी।
ओ३म की प्रथम मात्रा जो अकार है, उसका संबंध जागृत अवस्था से भी है ओ३म की द्वितीय मात्रा जो उकार है उसका संबंध स्थान से है ,ओ३म की तीसरी मात्रा मकार है जिसका संबंध सुषुप्त अवस्था से है। इससे भी यही भावार्थ प्रकट होता है कि ईश्वर जागृत रूप में है जीव सपना अवस्था में है और प्रकृति सोई हुई सुषुप्त अवस्था में है ।अकार, उकार और मकार के कई कई अर्थ हो सकते हैं ।
ओ३म अक्षर के बीच में हिंदी के अंको में ३ ईकाई लिखा जाता है । इसको देखने से पता चलता है कि ३ की इकाई ने मकार अर्थात प्रकृति अथवा माया की ओर से पीठ फेर कर अपने आप को अखिलेश्वर परमपिता परमेश्वर की ओर मुखातिब कर रखा है। यह ३ ईकाई इसी बात का प्रतीक है कि संसार की ओर से मुंह फेरकर परमपिता परमेश्वर की ओर बढ़ो । उसी से वार्तालाप करते रहो । माया ठगनी है । इस ठगनी के चक्कर में मत पड़ो । जिससे कल्याण होगा अपना वार्तालाप सुबह शाम उसी सर करो । जब भी समय मिले , जब भी उचित लगे तभी उस प्यारे के नूर को देखते हुए उसी में खोए रहो।
इति।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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