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भारतीय संस्कृति

ईश्वर की कृपा का रस मानव के यथार्थ में

उपनिषद भारतीय सांस्कृतिक वांग्मय की अमूल्य धरोहर हैं। इनकी मैक्समूलर, फ्रॉयड जैसे कितने ही विदेशी विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। वास्तव में मानवीय व्यवहार और उसकी उन्नति में उपनिषदों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है कि जो कुछ ब्रहमांड में है वही पिंड में है। पिंड का विशाल स्वरूप ब्रह्मांड और ब्रह्मांड का सूक्ष्म रूप पिंड है । इसलिए हमारी लोक प्रचलित मान्यता है कि “आत्मा सो परमात्मा”। हमारे भीतर आत्मा नाम का चेतन तत्व है जो इस पिंड को यानि हमारे शरीर को गतिमान किए हुए हैं। जबकि इसी प्रकार इस ब्रह्मांड में परमात्मा नाम का चेतन तत्व है जो इसे गतिमान किए हुए है।इसलिए वेद में उल्लिखित है कि :-

ॐ वायुरनिल ममृत मथेदम् भस्मान्तं शरीरं ।
ओम् कृतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर||यजुर्वेद। ४०।।

परमात्मा द्वारा रचित ये शरीर अन्त काल मे भस्म होकर पञ्च तत्वों में विलीन हो जाने के लिए ही मिला है । ए प्राणी इसलिए तूने जो कर्म कर लिए हैं उन को याद कर। जो कर्म तू अब कर रहा है उन का भी स्मरण कर और भविष्य में तेरे द्वारा किये जाने वाले कर्मों का भी अभी से ही स्मरण कर।

हमारे चेतन तत्व आत्मा को यदि हम टटोल कर देखें तो उसके भीतर अपने पिता अर्थात परमात्मा से मिलने की स्वाभाविक भूख है । दया, करुणा, कृपा और समस्त ईश्वरीय गुण उसमें अपने पिता के ही समान विद्यमान हैं ,किंतु मन के सानिध्य में आकर यह ईश्वर पुत्र आत्मा कुसंग में पड़ जाता है, फलत: मन का इस पर बलात नियंत्रण हो जाता है ।तब इसके चारों ओर काम ,क्रोध, मद, लोभ,मोह का एक अभेद्य आवरण खड़ा हो जाता है। तब वह मानव मानव नहीं रह पाता ,दानव हो जाता है। सारे आर्य ग्रंथ यथा वेद ,उपनिषद ,स्मृति आदि के उपदेश उसके लिए गौण हो जाते हैं। जो कि मानव को मानव बनाने पर बल देते हैं , क्योंकि उनकी अपेक्षा मानव से यही है कि तेरे भीतर भी प्रेम, दया, करुणा ,बंधुत्व की दैवीय गुण की शक्ति स्वाभाविक रूप में हैं ।अतः उनका विकास कर , क्योंकि तू अमृत पुत्र है। दिव्य शक्ति ईश्वर से तेरा पिता का संबंध है। इसलिए वेद ने मनुष्य के लिए कहा कि मनूर्भ व : जनया दैव्यम जनम।
अर्थात हे दिव्य पुत्र मनुष्य तो मनुष्य बन और दिव्य संतति को उत्पन्न कर।
इसलिए मानव को चाहिए कि वह प्रत्येक प्राणी में ईश्वरीय दर्शन करे । सभी को एक पिता की संतान माने जिसकी संतान वह स्वयं है । इसी से उसका मानव धर्म विकसित होगा। इसीलिए हमारे आचरण को परिभाषित और मर्यादित करते हुए यह कहा गया कि :-
आत्मन : प्रतिकू लानि परेषां न समाचारेत ।
अर्थात जो आपको अपने प्रति अच्छा नहीं लगता उस आचरण को दूसरे के प्रति मत करो ।बात स्पष्ट है कि कण-कण में और गुण गुण में जब हम उस दिव्य शक्ति का आलोक अनुभव करेंगे तो हमारी दृष्टि में व्यापकता आ जाएगी।
जब मानव इस मौलिक चिंतन का स्वामी हो जाएगा तब वह वास्तव में मानव बन जाएगा। तब उसे यह अनुभव हो जाएगा कि तू अमृत पुत्र है ।इसलिए काम, क्रोध ,मद , मोह, लोभ के चक्र से ऊपर उठ ,और अपने पिता से मिलने हेतु योग का रास्ता पकड़।
प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का वास है। हम सब उसी दिव्य शक्ति के अंश हैं,संतान हैं। तब ऐसा मानव किसी भी प्राणी के प्रति अमानवीय व्यवहार नहीं करेगा ।क्योंकि वह जान जाएगा कि मानवीय व्यवहार क्या है ? उस की चरम अवस्था क्या है ? उसका उद्देश्य क्या है ? इस स्थिति में तेरा – मेरा, छोटा- बड़ा ,ऊंच-नीच के सारे बंधन टूट जाएंगे ,और राग द्वेष से मानव मुक्त हो जाएगा । ‘मैं और मेरा’ कहीं पीछे छूट जाएगा। केवल मानव का स्वाभाविक प्रेम और स्नेह भाव ही रह जाएगा। तब हम टूटेंगे नहीं अपितु एक दूसरे से जुड़ेंगे। सहयोग, सद्भाव ,सहचर्य, सहिष्णुता ,सहानुभूति, समभाव हमारी मानवता का श्रंगार कर हमारे आचरण के आभूषण बन जाएंगे। इनकी उपस्थिति में ही प्रेम के प्रकट होने का प्रमाण है। अतः हम समझ लें कि एक-एक शब्द को जब हम उसकी समग्रता से समझने का प्रयास करेंगे तो संसार सचमुच में ही स्वर्ग बन जाएगा ।यदि मानव वास्तव में अपने पिता ईश्वर से मिलना चाहता है उसकी दया ,करुणा ,कृपा का पात्र बनना चाहता है ,तो मानव को सर्वप्रथम ईश्वर की बनाई कृति ,प्रत्येक प्राणी से उसकी सृष्टि से, उसकी सृजनात्मकता से प्रेम करना सीखना होगा। तभी मानव उस ईश्वर की सच्ची उपासना, प्रार्थना, भक्ति का सही अधिकारी बन पाएगा।
एक साधारण जन एवं एक आप्त पुरुष में यही अंतर है कि साधारण जन इस नश्वर संसार को ही अजर अमर और कभी न समाप्त होने वाला मान बैठता है। जबकि आप्त पुरुष इस संसार को नश्वर मानता है, वह आसक्ति से ऊपर है तथा मोह के बंधन से दूर है। इसी प्रकार ईर्ष्या, द्वेष और काम की अग्नि से भी इसका संबंध टूट चुका होता है ।वह निर्बैर होता है। इसलिए आज मानव के लिए आवश्यक है कि वह अपनी तंग सोच और तंग दिली से ऊपर उठे । फिर उसके लिए सृष्टि के नजारे ही बदल जाएंगे। स्नेहासिक्त ह्रदय से सभी में ईश्वर की दिव्य शक्ति और दिव्य लोक के दर्शन करें। जिससे मनुष्य का जीवन धन्य हो जाएगा ,और उसी के स्मरण से मन के ऊपर उठती चिंताओं की बदली समाप्त हो जाएगी.। आप ईश्वर की कृपा के पात्र बन जाएंगे ।यही तो होगा मानवता का चरमोत्कर्ष।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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