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संपादकीय

अधिकार से पहले कर्तव्य, अध्याय — 14 , महिलाओं के कर्तव्य

महिलाओं के कर्तव्य

वर्तमान समय में महिलाओं के सशक्तिकरण की बातें की जाती हैं । जिसके लिए महिलाओं के अनेकों संगठन देश में काम कर रहे हैं । जो महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं । क्या ही अच्छा हो कि ये सभी संगठन महिलाओं के अधिकारों की अपेक्षा उन्हें उनके कर्तव्यों का स्मरण दिलाएं ।
यह सच है कि महिलाओं के अधिकार वैसे ही होने चाहिए जैसे पुरुषों के होते हैं । प्राचीन भारत में इसी प्रकार स्थिति थी जब महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे और वह शिक्षा आदि के क्षेत्र में पुरूष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती थीं ।
उस काल में यदि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे तो वह पुरुषों के समान ही अपने कर्तव्यों पर भी ध्यान देती थीं , जिससे समाज और राष्ट्र की व्यवस्था सुचारू रूप से चलती थी।
आज की परिस्थितियों में नारी सशक्तिकरण की बात हो तो अच्छा लगता है , परंतु यहाँ हम नारी सशक्तिकरण की नहीं , नारी के समाज के प्रति कर्तव्यों की बात कर रहे हैं। वास्तव में नारी अपने कर्तव्यों के प्रति जितनी सावधान होगी , उतना ही उसका सशक्तिकरण होगा।

सुशिक्षित महिला का निर्माण करना
प्रत्येक महिला का यह कर्तव्य है कि वह माँ या बड़ी बहन के रूप में अपनी बेटी या छोटी बहन की शिक्षा की समुचित व्यवस्था कराए । क्योंकि उसे सुशिक्षित नारी का निर्माण कर समाज को सौंपना होता है । एक सुशिक्षित व सुसंस्कारित महिला का निर्माण एक महिला ही कर सकती है । अपने इस कर्तव्य के प्रति नारी को जागरूक होना चाहिए । अपने मायके और ससुराल पक्ष के बीच महिलाओं को उचित समन्वय बनाने के लिए एक दूसरे की बातों को इधर-उधर नहीं कहना चाहिए । दोनों में समन्वय बनाए रखने के लिए छोटी – मोटी बातों को छुपा कर रखना चाहिए। प्रत्येक समझदार महिला ऐसा करती भी देखी जाती है । वह दोनों पक्षों में एक ऐसा समन्वय स्थापित किए रखती है कि कोई सा भी कोई से कभी लड़ता नहीं है। परंतु कहा जाता है कि ‘सावधानी हटी और दुर्घटना घटी’ – जहां महिला अपने कर्तव्य के प्रति असावधान देखी जाती है वहां पर उसके मायके पक्ष और ससुराल पक्ष में अनावश्यक वाद-विवाद भी होते देखे जाते हैं। जो महिला दोनों पक्षों में एक अच्छा समन्वय बनाए रखती है वह निश्चय ही दुसंस्कारित और सुशिक्षित होती है । ऐसी ही महिलाओं का निर्माण करना महिला का समाज के प्रति पहला कर्तव्य है । एक अच्छी मां पिता और पुत्र में अर्थात अपने पति और पुत्र में भी कभी तनाव उत्पन्न नहीं होने देती । वह बड़ी सावधानी से उन दोनों को समझाकर रखती है और परिवार की नैया को सावधानी के साथ खेती रहती है।
जिस परिवार में पुत्र नहीं है , केवल पुत्रियां हैं , वहाँ पर माता – पिता की सेवा आदि का भार बेटियों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए । उन्हें यह दिखाना चाहिए कि वह बेटे के स्थान पर उन सारे कर्तव्यों को करने के लिए सहर्ष तैयार हैं जो एक बेटे को करने चाहिए थे । इसी प्रकार अपने ससुराल पक्ष में भी अपने ससुराल वालों को इस बात के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार रखना चाहिए कि वह अपने माता – पिता की सेवा चाहे उन्हें मायके में रखकर करे चाहे अपने साथ रखकर करे , उसमें वे किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। आज जब एक पुत्र और एक पुत्री पैदा करने का प्रचलन युवाओं में तेजी से बढ़ रहा है , तब ऐसा सदप्रयास सतकर्त्तव्य के रूप में अपनाना या करके दिखाना महिलाओं के लिए बहुत आवश्यक हो गया है।
हमारे देश में यह परंपरा रही है कि जिन माता-पिता के पुत्र नहीं होता , उनका अंतिम संस्कार भी पुत्री से ना कराकर उनके किसी अन्य पुरूष परिजन से कराया जाता है । यह प्रसन्नता का विषय है कि अब ऐसी परम्पराओं को तोड़ने के लिए बेटियां सामने आ रही हैं। अक्सर ऐसे उदाहरण समाचार पत्रों में आते रहते हैं जहां बेटी ने इस परम्परा को तोड़कर स्वयं अपने पिता या माता को मुखाग्नि दी है । वैदिक दृष्टिकोण भी यही है कि जब पुत्री को पुत्र के समान ही अधिकार प्राप्त होते हैं तो उसके कर्तव्य भी वैसे ही हैं जैसे एक पुत्र के होते हैं । इसलिए नारी को अपने कर्तव्य को पहचान कर उसे निभाने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए।
‘बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ’ अभियान और नारी
भारत में कानून के अनुसार माता पिता की संपत्ति में पुत्र को ही अधिकार प्राप्त है। यद्यपि अब कई प्रांतों में यह स्थिति का गई है कि पुत्री को भी अधिकार दिया जा रहा है । इसी प्रकार माता-पिता के भरण – पोषण की अपेक्षा भी पुत्र से ही की जाती है , परंतु अब समय परिवर्तित हो रहा है । नारी को परिवर्तित परिवेश और परिस्थितियों में अपने आपको इस प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए कि वह स्वयं भी अपने माता-पिता के भरण-पोषण के लिए तैयार है। कुल मिलाकर पुत्रहीन माता – पिता को पूर्णत: सम्मानित जीवन जीने के लिए उचित परिवेश देना महिलाओं का या बेटियों का कर्तव्य है। जहाँ पुत्रियां ऐसा करके दिखा रही हैं वहाँ पर माता – पिता को कभी इस बात के लिए पश्चाताप नहीं होता कि उनके कोई पुत्र नहीं था । इसके विपरीत इस बात पर वह पर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं कि भगवान ने चाहे उन्हें एक बेटी ही दी पर वह ऐसी दे दी है जो बेटे के भी सभी कर्तव्य पूरे कर रही है।
यह एक सर्वमान्य सत्य है कि पुत्री का लगाव अपनी माता में अधिक होता है। इसी प्रकार माँ भी अपनी पुत्री में कुछ अधिक लगाव रखती है। दोनों में कई बार ऐसा मित्रवत व्यवहार हो जाता है जैसे दो सहेलियों के बीच होता है । परन्तु इसके उपरान्त भी हमें यह लिखते हुए दुख होता है कि अभी भी देश में ऐसी अनेकों महिलाएं हैं जो अपनी ही बेटी को शिक्षा के अधिकार से वंचित करती हैं । वे नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी सुशिक्षित हो और अच्छी पढ़ाई लिखाई प्राप्त कर समाज में सम्मान पूर्ण स्थान प्राप्त करे । उनकी सोच होती है कि ‘बेटी पराई घर का कूड़ा है’ – इसलिए उसे क्यों पढ़ाया लिखाया जाए ? महिला होकर महिला के प्रति ऐसी सोच रखना सचमुच चिंताजनक है । वह अपने इस कर्तव्य का निर्वाह करने में चूक कर जाती हैं कि उन्हें समाज को एक सुशिक्षित और सुसंस्कारित महिला देनी है । इसके लिए उचित यही होगा कि महिलाओं को अपनी बेटियों की शिक्षा की व्यवस्था कराने में उतनी ही रुचि लेनी चाहिए जितनी बेटे की शिक्षा की व्यवस्था करने में भी रुचि दिखाती हैं।
प्रत्येक महिला को यह भी समझना चाहिए कि वह स्वयं एक महिला है , इसलिए महिला होने के नाते उसे अपनी ही कोख से जन्म लेने वाली बेटी की हत्या नहीं करनी चाहिए और ना ही भ्रूण हत्या के बारे में सोचना चाहिए । माता का यह कर्तव्य है कि वह सृष्टि के संचालन के लिए आने वाली प्रत्येक बेटी का वैसे ही स्वागत व सत्कार करे जैसे बेटे का किया जाता है।
हमारे देश की वर्तमान सरकार ‘ बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ’ – का अभियान चलाए हुए है । वर्तमान परिस्थितियों में सरकार का यह निर्णय बहुत ही सराहनीय है । हमारा मानना है कि सरकार का यह अभियान तभी सफल हो सकता है जब इसमें नारी शक्ति का पूर्ण सहयोग व समर्थन प्राप्त होगा । इसके लिए नारी शक्ति का कर्तव्य है कि वह ‘बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ’ – के सरकारी अभियान के मर्म को समझे और अपना अपेक्षित सहयोग सरकार को व समाज को प्रदान करे। महिलाओं को यह समझना चाहिए कि वर्तमान युग विज्ञान का युग है। इसलिए इस युग में किसी भी प्रकार के अंधविश्वास के लिए स्थान नहीं है । उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि बेटी ना तो हम पर बोझ है और ना ही वह पराए घर का कूड़ा है । इसके विपरीत बेटी दो घरों की शान है – उन्हें यह समझना चाहिए। दो घरों की शान बेटी का निर्माण करना महिलाओं का कर्तव्य है।
महिला का महिला के द्वारा शोषण बंद हो
विज्ञान के इस युग में देश विदेश की जानकारी रखना पुरुष वर्ग का ही कार्य नहीं है अपितु यह महिलाओं का भी कर्तव्य है कि वह भी विज्ञान के साथ जुड़ें और वैज्ञानिक मान्यताओं को अपनाकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देश और विदेश की जानकारी रखें ।
माता को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा जाता है । जब माता स्वयं ज्ञान – विज्ञान का कोष बन जाएगी तो वह अपने बच्चों को वैसा ही ज्ञान देने में समर्थ होगी। जिससे देश व समाज की चारित्रिक , मानसिक और बौद्धिक उन्नति होगी।
वैसे भी आजकल पुरुष वर्ग के लिए भागमभाग की अति व्यस्त जीवन शैली हो गई है । जिसमें वह देश – विदेश की बदलती हुई परिस्थितियों का उतना ध्यान नहीं रख पाते जितना अपेक्षित है । उधर बच्चे भी अधिक समय माँ के साथ ही गुजारते हैं और उन्हें भी बदलते हुए समय की नई – नई बातों की जानकारी रखने की जिज्ञासा होती है । जिन्हें वह बड़ी सहजता से अपनी माता से ही पूर्ण कर सकते हैं । क्योंकि वह उनकी प्रथम पाठशाला है । बच्चों की अपेक्षा होती है कि माँ के पास संसार भर का सारा ज्ञान उपलब्ध है । बच्चे यह सोचते हैं कि उनकी माँ उनकी प्रत्येक जिज्ञासा का संतोषजनक और वैज्ञानिक ढंग से समाधान प्रस्तुत कर सकती है । एक अच्छी माँ को अपने बच्चों की इस अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए प्रयास भी करना चाहिए। अतः समाज , देश और वैश्विक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों के प्रति महिलाओं को जागरूक रहना ही चाहिए।
महिलाओं के शोषण में महिलाओं की कोई भूमिका न हो , इसके लिए विशेष गोष्ठियों का आयोजन करना और महिलाओं को इस बात के प्रति जागरूक व सचेत करना कि वह किसी भी स्थिति – परिस्थिति में किसी महिला का शोषण न करें , यह भी महिलाओं का ही कर्तव्य है । महिलाएं समाज में मर्यादित वेशभूषा के साथ निकलें और किसी भी पुरुष को अपने ऊपर छींटाकशी करने या फब्ती कसने का अवसर उपलब्ध न कराएं, इसके प्रति भी महिलाओं को जागरूक करना महिलाओं का ही कर्तव्य है।
संसार में परमाणु हथियारों की होड़ संसार के लिए कितनी घातक हो सकती है ? भविष्य में यदि इन हथियारों का प्रयोग हुआ तो उसके परिणाम क्या होंगे ? मानवता का भविष्य क्या हो सकता है ? और मानवता को कैसे बचाया जा सकता है ? – ये ऐसे प्रश्न हैं जो माँ की ममता के द्वारा बहुत सहज , सरल और सरस ढंग से समझे जा सकते हैं । माँ जब अपनी ममता के साथ इनका सामंजस्य बैठाकर बच्चों के सामने प्रस्तुतीकरण करेगी तो सुनने वाले पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । अतः महिलाओं का यह भी कर्तव्य है कि वह इन सबके प्रति जागरूक होकर मानवता को बचाने के लिए भी मैदान में आएं। वास्तव में महिलाओं के भीतर पाया जाने वाला ममता का गुण एक ऐसा विशेष गुण है जो उन्हें पुरुषों से अलग करता है । पुरुष वर्ग कठोर हो सकता है , पर महिलाएं अपनी ममता के कारण कठोर न होकर सरस होती हैं । उनकी सरसता मानवता के उत्थान और कल्याण के लिए बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है। अतः महिलाओं का यह विशेष कर्तव्य है कि वह संसार की नकारात्मक शक्तियों के बारे में भी विशेष ज्ञान अर्जित करती रहें जो इस हंसती खेलती मानव सभ्यता को अपनी गतिविधियों से विनष्ट करने में लगी हुई हैं ।
लोकसभा की अध्यक्ष रहीं श्रीमति सुमित्रा महाजन पीजीआई स्थित भार्गव ऑडिटोरियम में भारत विकास परिषद द्वारा आयोजित महिला कार्यकर्ता सम्मेलन सुमंगला 2018 में मुख्य अतिथि के रूप में पहुंची थीं । यहाँ उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों से आई हुई महिला प्रतिनिधियों को संबोधित किया।
उन्होंने कहा कि विकास सामूहिक रूप से संभव होता है। समाज में असमानता क्षति का रूपक है और अगर हम मूल स्तर पर ही परिवार में महिलाओं अथवा बच्चियों के साथ भेदभाव की दृष्टि से देखेंगे तो हम उस परिवार और समाज की समृद्धि की कल्पना कभी नहीं कर पाएंगे। महिलाओं के बिना किसी भी परिवार एवं समाज की कल्पना का कोई लाभ नहीं है। पुरुष प्रधान समाज को महिलाओं के प्रति सम्मान का दृष्टिकोण अपनाते हुए सहजता को भी लागू रखना होगा ।
श्रीमती महाजन ने महिलाओं के कर्तव्यों की ओर संकेत करते हुए उस समय कहा था कि घर में एक महिला पढ़ी-लिखी हो तो पूरा परिवार शिक्षित एवं संस्कारी होता है। पुरुषों में महिलाओं के प्रति सहजता आने से उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है। महिला शक्ति सशक्त नहीं होगी तो देश विकास नहीं कर सकता है। अगर माँ घर में समझदार नहीं होगी तो परिवार समझदार नहीं हो सकता है। एक सफल माँ वह है जिसका बच्चा छोटा होने पर बात-बात पर उसकी अनुमति लेता है और बड़े होने पर भी अपने भविष्य को लेकर माँ से विचार करता है। शिक्षित महिलाएं अपने आसपास के क्षेत्र में सरकारी स्कूलों में जाकर गरीब बच्चों को शिक्षित करने के लिए कुछ समय अवश्य दें। यह समय उन बच्चों को दें जो परीक्षा में असफल हो रहे हैं जिससे कि उनका भी भविष्य संवर जाए।
सचमुच श्रीमती महाजन की यह बात बहुत विचारणीय है । यह हमारे लिए प्रसन्नता का विषय है कि कई जागरूक महिलाएं अपने इस कर्तव्य के प्रति समर्पित हैं जो गरीब बच्चों के भविष्य को संवारने के अपने सबसे पुनीत कर्तव्य को बड़ी श्रद्धा भावना से निभा रही हैं ।
वेद का आदर्श : महिलाएं वसुधा को परिवार समझें
स्वामी वेदानंद तीर्थ कहते हैं कि माताओं का उत्तर दायित्व बहुत है। माताएं सन्तान सम्बन्धी अपने इस उत्तरदायित्व को समझ जाएं तो संसार का संकट दूर हो जाए । माताएं क्षुद्र कौटुम्बिक या दैशिक दुर्भावनाओं से ऊपर उठकर समस्त संसार को अपना घर समझकर विशाल मानव समाज की कमनीय कल्याण कामना से प्रेरित होकर अपना विचार , उच्चार तथा आचार ऐसा बनाएं कि बालकों के हृदय में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भव्य भावना उत्पन्न हुए बिना न रहे । तब अवश्यमेव संसार से अशांति का निर्वासन होकर शांति का साम्राज्य होगा ।
कुल मिलाकर समाज की और संसार की सारी व्यवस्था को व्यवस्थित रूप से चलाने में महिलाओं का बहुत अधिक महत्व है। इस व्यवस्था में उनका महत्व सृष्टि प्रारंभ में जितना था उतना ही आज है और सृष्टि पर्यंत उतना ही रहेगा । इसके लिए आवश्यक है कि महिलाएं अपने कर्तव्य कर्म को पहचानें । अधिकारों की अंधी दौड़ में सम्मिलित ना होकर कर्तव्य मार्ग पर चलने का प्रयास करें । वह जितने अंश में मर्यादा पथ का निर्माण कर पाएंगी संसार उतनी ही शीघ्रता से मर्यादा पथ पर लौट कर शांति के साथ जीवन यापन करना आरंभ कर देगा।
भारत में वेदों में भी नारी का विशेष महत्व बताया गया है। वेदों में नारी के अनेकों कर्तव्यों पर भी प्रकाश डाला गया है। अथर्ववेद (11-5-18 ) में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने का कर्तव्य स्पष्ट किया गया है। इस सूक्त में लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्व दिया गया है। कहा गया है कि कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें ।
अथर्ववेद (14 -1 -6 ) में यह स्पष्ट किया गया है कि कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल का उपहार माता पिता से प्राप्त करना चाहिए । माता-पिता उसे ज्ञान का दहेज दें । कन्या का कर्तव्य है कि वह बाहरी उपकरणों को छोड़कर भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे ।
इसका अभिप्राय है कि विद्याबल से सुभूषित होना नारी का सर्वोपरि कर्तव्य है ।जो लोग उसके बारे में यह कहते हैं कि उसे वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है उन्हें वेद की इस व्यवस्था पर विचार करना चाहिए।
वेद का उपदेश है कि वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे।
अथर्ववेद (7- 46 -3 ) में कहा गया है कि संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो । हे सुयोग्य पति की पत्नी ! अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ । यहाँ पर वेद कह रहा है कि अपने पति को कमाई का तरीका पत्नी ही बताती है ।
अथर्ववेद ( 7 -47 -1) में कहा गया है कि हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो । इसका अभिप्राय है कि महिला को सर्वगुणसंपन्न होने के लिए सब प्रकार की शिक्षा लेनी चाहिए।
अथर्ववेद ( 7 -48 -2 ) में कहा गया है कि तुम हमें बुद्धि से धन दो । सुशिक्षित और ज्ञान संपन्न महिला ही ऐसा कर सकती हैं। स्पष्ट है कि मेधासंपन्न होना महिला का कर्तव्य है। विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है ।
अथर्ववेद ( 2 -36 – 5 ) में व्यवस्था दी गई है कि
हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो ।
हे वधू ! ऐश्वर्य की अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल ।
अथर्ववेद ( 1 -14 – 3 ) में महिला को कुल की रक्षा करने वाली कहा गया है । इस प्रकार कुलरक्षिका होना उसका कर्तव्य है। हे वर ! यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है । यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये ।
अथर्ववेद (7 -38 -4 ) और ( 12 -3 -52 ) में स्त्री के लिए यह कर्त्तव्य निर्धारित किया गया है कि वह
सभा और समिति में जाकर भाग ले और अपने विचार प्रकट करे ।
ऋग्वेद ( 10 – 1 -59 ) में स्पष्ट किया गया है कि एक आदर्श महिला को प्रातः काल में उठने के पश्चात अपनी प्रार्थना का कर्तव्य कर्म किस प्रकार पूर्ण करना चाहिए ? एक गृहपत्नी प्रात : काल उठते ही अपने उद् गार कहती है –
” यह सूर्य उदय हुआ है, इस के साथ ही मेरा सौभाग्य भी ऊँचा चढ़ निकला है । मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूं , उस की मस्तक हूं । मैं भारी व्यख्यात्री हूं । मेरे पुत्र शत्रु -विजयी हैं । मेरी पुत्री संसार में चमकती है । मैं स्वयं दुश्मनों को जीतने वाली हूं । मेरे पति का असीम यश है । मैंने वह त्याग किया है जिससे इन्द्र (सम्राट ) विजय पता है । मुझे भी विजय मिली है । मैंने अपने शत्रु नि:शेष कर दिए हैं । ”
वह सूर्य ऊपर आ गया है और मेरा सौभाग्य भी ऊँचा हो गया है । मैं जानती हूं , अपने प्रतिस्पर्धियों को जीतकर मैंने पति के प्रेम को फ़िर से पा लिया है ।
मैं प्रतीक हूं , मैं शिर हूं , मैं सबसे प्रमुख हूं और अब मैं कहती हूं कि मेरी इच्छा के अनुसार ही मेरा पति आचरण करे । प्रतिस्पर्धी मेरा कोई नहीं है ।
मेरे पुत्र मेरे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं , मेरी पुत्री रानी है , मैं विजयशील हूं । मेरे और मेरे पति के प्रेम की व्यापक प्रसिद्धि है ।
ओ प्रबुद्ध ! मैंने उस अर्ध्य को अर्पण किया है , जो सबसे अधिक उदाहरणीय है और इस तरह मैं सबसे अधिक प्रसिद्ध और सामर्थ्यवान हो गई हूँ ।मैंने स्वयं को अपने प्रतिस्पर्धियों से मुक्त कर लिया है ।
मैं प्रतिस्पर्धियों से मुक्त हो कर, अब प्रतिस्पर्धियों की विध्वंसक हूँ और विजेता हूँ । मैंने दूसरों का वैभव ऐसे हर लिया है जैसे कि वह न टिक पाने वाले कमजोर बांध हों । मैंने मेरे प्रतिस्पर्धियों पर विजय प्राप्त कर ली है । जिससे मैं इस नायक और उसकी प्रजा पर यथेष्ट शासन चला सकती हूँ ।
इस मंत्र की ऋषिका और देवता दोनों हो शची हैं । शची इन्द्राणी है, शची स्वयं में राज्य की सम्राज्ञी है ( जैसे कि कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष हो ) । उस के पुत्र – पुत्री भी राज्य के लिए समर्पित हैं ।
इस प्रकार वैदिक संस्कृति में महिला के बहुत ही पवित्र कर्तव्यों का निरूपण किया गया है। जिन्हें उसके द्वारा अपनाने से राष्ट्र महान होता है। आज की महिला को भी ऐसी ही विदुषी बनने का प्रयास करना चाहिए। वेद ने महिला की शासकीय प्रतिभा का भी सम्मान किया है और उसके लिए राष्ट्र के संचालन का कर्तव्य भी निर्धारित किया है। जिसे आज की नारी को समझना चाहिए और वैदिक संस्कृति के अनुरूप संसार का निर्माण करने के लिए उठ खड़ा होना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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