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भारतीय संस्कृति

गायत्री मंत्र और मानव जीवन में शांति की प्रार्थना

विवेकी मनुष्य व्यवहार से निवृत्त होकर परमार्थ में प्रवृत्त होते हैं ।जिसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पहाड़ों की गुफाओं में एकांत में जाकर ही साधना में लीन हो बल्कि गृहस्थ आश्रम में रहते हुए अपनी साधना एवं सदाचार की संपत्ति को सुरक्षित रख
सकता है। जैसे जागने वाले जंगल में भी सुरक्षित रहते हैं और लापरवाह एवं सोने वाले सघन बस्ती में भी लुट जाते हैं।
जैसे यथार्थ बोध रहित मानव सन्यास में किसी गुफा ,कंदरा या आश्रम में प्रवेश करते हुए सदाचार एवं साधना की संपत्ति को खो देता है , वैसे ही सद्गुण की प्रधानता जीवन में रखनी चाहिए ।जिसके लिए परमार्थ आवश्यक है ।

जैसे जगत की परिभाषा हम करते हैं कि जो उत्पन्न हुआ और जो गतिशील है वह जगत है अर्थात पैदा होने और पैदा होने के साथ-साथ गति करना भी आवश्यक तत्व हुआ ।लेकिन गति यदि सन्मार्ग में हैं तो प्रगति कहलाती है और प्रगति के अतिरिक्त मृत्यु उपरांत सद्गति कही जाती है ।लेकिन यदि गति अनुचित मार्ग ,कुमार्ग में है तो अधोगति है ।इस प्रकार चिंतन आ करके रुका तो सन्मार्ग पर।
गायत्री मंत्र के जाप में भी परमपिता परमात्मा से अपनी बुद्धि को सन्मार्ग की तरफ ले चलने की ही प्रार्थना करते हैं अर्थात निष्कर्ष निकला कि यदि बुद्धि को सन्मार्ग पर चलने के लिये परमात्मा प्रेरित कर दें तो मनुष्य को सद्गति प्राप्त हो सकती है ।शांति मिल सकती है और परम शांति का नाम ही मोक्ष है। वह असीम शांति प्राप्त होगी जिसको मानव जन्म जन्मांतर से प्राप्त करने के लिए भटक रहा है। बार-बार जन्म और मृत्यु के भंवर में फंस रहा है अर्थात मानव के मोक्ष के द्वार खुल जाएंगे।
गायत्री मंत्र निम्न प्रकार है :–

ओ३म ।भूर्भुव स्व तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।

हे मनुष्य जैसे हम लोग कर्मकांड की विद्या, उपासना कांड की विद्या और ज्ञान कांड की विद्या को संग्रह पूर्वक पढ़ के जो हमारी धारणावती बुद्धियों को प्रेरणा करें , उस कामना के योग्य समस्त ऐश्वर्यों के देने वाले परमेश्वर के उस इंद्रियों से न ग्रहण करने योग्य परोक्ष सब दुखों के नाशक तेज स्वरूप का ध्यान करें। वैसे तुम लोग भी इसका ध्यान करो।

भावार्थ : जो मनुष्य कर्म , उपासना और ज्ञान संबंधी विद्याओं का सम्यक ग्रहण कर संपूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त परमात्मा के साथ अपने आत्मा को युक्त करते हैं तथा अधर्म अनैश्वर्य और दुख रूप में लोगों को छुड़ाकर धर्म ऐश्वर्य सुखों को प्राप्त होते हैं उनको अंतर्यामी जगदीश्वर आप ही धर्म के अनुष्ठान और अधर्म का त्याग कराने को सदैव चाहता है।
एक और भावार्थ देखें।
हे प्राण स्वरूप ! दुख विनाशक और आनंद स्वरूप भगवान ,हम सब उस जगत उत्पादक, वरण करने योग्य, देव गुणों से युक्त परमेश्वर का ध्यान करें अथवा अपनी आत्मा में धारण करें ।जिससे कि वह परमेश्वर हमारी बुद्धियों को उत्तम कार्यों में प्रेरित करें।
तीन उपरोक्त अर्थ इसलिए दिए गए हैं कि संस्कृत में दिए गए गूढ़ शब्दों के कई – कई अर्थ हो जाते हैं, उसका सरलीकरण करते समय विद्वान कुछ अपने तरीके से भी व्याख्या कर लेते हैं।
(पहले दो अर्थ यजुर्वेद के 36 वें अध्याय से व तीसरा अर्थ यज्ञ की पुस्तक से दिया गया है ।)
लेकिन परमात्मा अपने भक्तों की अर्थात उसके मार्ग पर चलने वालों की परीक्षा लेते हैं और देखते हैं कि वह वास्तव में उसी को प्राप्त करना चाहता है या उनकी कोई अन्य याचना है । इसलिए जैसे कोई बच्चा रो रहा होता है और उसकी मां गृह कार्य में व्यस्त होती है लेकिन कभी-कभी बच्चे के रोने की आवाज पर मां आती है और बच्चों को खिलौना देती है। बच्चा थोड़ी देर तक तो खिलौने में लग जाता है लेकिन फिर से रोना शुरू कर देता है । मां फिर से आती है और बच्चे को अपनी गोद में अपने आंचल में बैठा कर प्यार दुलार देती है तथा अपने स्तनों से दूध पिलाती है तो बच्चे को असीम आनंद की अनुभूति होती है। इसी प्रकार जब मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करने के लिए सन्मार्ग की ओर उन्मुख होता है तो परमात्मा भी पहले उन भौतिक संसाधनों में ऐश्वर्यों से युक्त करते हैं। मां की तरह इसे खिलौनों से वह पाने की कोशिश करते हैं । अब जो खिलौना पाकर शांत हो गया अर्थात शांति प्राप्त हुई मान ली तो प्रकृति में सुख की अनुभूति में उलझ कर रुक गया और जिस मानव ने असीम शांति प्राप्त करनी है वह भौतिक संसाधनों को छोड़कर उसी परमात्मा की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है । अंत में सफल हो जाता है। उसको परमात्मा की गोद का आनंद मिलता है तो वह उसी बच्चे की तरह प्रसन्न होता है जो अपनी मां के आंचल में बैठा होता है । वह सुरक्षित, संरक्षित व आनंद का अनुभव करता है। बार-बार विद्वानों ने लिखा है कि मानव का तन जन्म जन्मांतर के शुभ कर्मों का फल है , क्योंकि और सभी योंनियां भोग योनि हैं , जिनमें जीव अपने कर्मों का भोग भोगता है ।मानव की योनि भोग योनि एवं योग योनि दोनों हैं अर्थात मानव को मानव योनि प्राप्त करने के बाद परमात्मा के साथ युग्म बनाकर उसके साथ एकाकार हो जाए , एक रस हो जाए , उसके गुण , धर्म स्वीकार कर ले तो मानव को शांति मिलेगी।
साधक अपने ईश्वर से कहता है कि अपने हृदय की आसुरी प्रवृत्तियों के साथ युद्घ में विजय पाने के लिए हे प्रभो ! हममें सात्विक वृत्तियां जागृत हों। क्षमा, सरलता, स्थिरता, निर्भयता, अहंकार शून्यता इत्यादि शुभ भावनाएं हमारी संपत्ति हों। हमारे शरीर स्वस्थ तथा परिपुष्ट हों। मन सूक्ष्म तथा उन्नत हों , जीवात्मा पवित्र तथा सुंदर हों , तुम्हारे संस्पर्श से हमारी सारी शक्तियां विकसित हों। हृदय दया तथा सहानुभूति से भरा रहे। हमारी वाणी में मिठास हो तथा दृष्टि में प्यार हो। विद्या तथा ज्ञान से हम परिपूर्ण हों। हमारा व्यक्तित्व महान तथा विशाल हो।
हे प्रभो! अपने आशीर्वादों की वर्षा करो, दीनातिदीनों के मध्य में विचरने वाले तुम्हारे चरणारविन्दों में हमारा जीवन समर्पित हो। इसे अपनी सेवा में लेकर हमें कृतार्थ करें। प्रात:काल की शुभबेला में हम आपके द्वार पर आये हैं, आपके बताये वेद मार्ग पर चलते हुए मोक्ष की ओर अग्रसर होते रहें, यही प्रार्थना है, इसे स्वीकार करो! स्वीकार करो!! स्वीकार करो!!! ओ३म् शांति: शांति: शांति:।
उपरोक्त प्रार्थना के शब्द जब किसी ईश्वरभक्त के हृदय से निकले होंगे तो निश्चय ही उस समय उस पर उस परमपिता परमेश्वर की कृपा की अमृतमयी वर्षा हो रही होगी। वह तृप्त हो गया होगा, उसकी वाणी मौन हो गयी होगी, उस समय केवल उसका हृदय ही परमपिता परमेश्वर से संवाद स्थापित कर रहा होगा। इसी को आनंद कहते हैं, और इसी को गूंगे व्यक्ति द्वारा गुड़ खाने की स्थिति कहा जाता है, जिसके मिठास को केवल वह गूंगा व्यक्ति ही जानता है, अन्य कोई नही। वह ईश्वर हमारे लिए पूज्यनीय है ही इसलिए कि उसके सान्निध्य को पाकर हमारा हृदय उसके आनंद की अनुभूति में डूब जाता है।
उस समय आनंद के अतिरिक्त अन्य कोई विषय न रहने से हमारे जीवन के वे क्षण हमारे लिए अनमोल बन जाते हैं और हम कह उठते हैं-‘हे सकल जगत के उत्पत्तिकर्त्ता परमात्मन ! इस अमृत बेला में आपकी कृपा और प्रेरणा से आपको श्रद्घा से नमस्कार करते हुए हम उपासना करते हैं कि हे दीनबंधु ! सर्वत्र आपकी पवित्र ज्योति जगमगा रही है। सूर्य, चंद्र, सितारे आपके प्रकाश से इस भूमंडल को प्रकाशित कर रहे हैं। भगवन ! आप हमारी सदा रक्षा करते हैं। आप एकरस हैं, आप दया के भंडार हैं, दयालु भी हैं, और न्यायकारी भी हैं। आप सब प्राणिमात्र को उनके कर्मों के अनुसार गति प्रदान करते हैं, हम आपको संसार के कार्य में फंसकर भूल जाते हैं, परंतु आप हमारा, कभी त्याग नही करते हो । हम यही प्रार्थना करते हैं कि मन, कर्म, वाणी से किसी को दुख न दें, हमारे संपूर्ण दुर्गुण एवं व्यसनों और दुखों को आप दूर करें और कल्याणकारक गुण-कर्म और शुभ विचार हमें प्राप्त करायें। हमारी वाणी में मिठास हो, हमारे आचार तथा विचार शुद्घ हों, हमारा सारा परिवार आपका बनकर रहे। आप हम सबको मेधाबुद्घि प्रदान करें, और दीर्घायु तक शुभ मार्ग पर हम चलते रहें, हम सुखी जीवन व्यतीत करें, हमें ऐसा सुंदर, सुव्यवस्थित और संतुलित जीवन व्यवहार और संसार प्रदान करो। हमारे कर्म भी उज्ज्वल और स्वच्छ हों।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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