मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ’– यही वे अंतिम शब्द हैं जॉर्ज फ्लॉयड के….

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

शरीर का रंग उसके स्वभाव का परिचायक कभी नहीं बन सकता। काला होना कोई श्राप नहीं है। क्या काला रंग वाकई इतना बुरा होता है जितना हम उसे मानते हैं या यह महज हमारे दिमाग के नजरिये का मामला है कि हमने काले रंग को गलत चीजों के साथ जोड़ दिया है।

‘मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ’– यही वे अंतिम शब्द हैं जिसके बाद जॉर्ज फ्लॉयड ने इस दुनिया से विदा ली। वहाँ खड़े सब लोगों को सुनाई दे रहा था कि वह सांस नहीं ले पा रहा है फिर उस पुलिसकर्मी को क्यों नहीं सुनाई दिया? जॉर्ज फ्लॉयड एक 46 वर्षीय अफ्रीकी अमेरिकन था, जो एक स्टोर में सिगरेट लेने गया और उसने दुकानदार को भुगतान के लिए 20 डॉलर दिए और दुकानदार को लगा नोट नकली है तो उसने पुलिस बुला ली। अब आप जानते ही हैं कि हॉलीवुड की पुलिस कितनी तेज तर्रार होती है। एक पुलिस अधिकारी डैरेक चाउविन ने जॉर्ज को पकड़ लिया और फिर उसे छाती के बल नीचे पटक दिया। अमेरिकी पुलिस के घुटनों तले एक अश्वेत की गर्दन दबी पड़ी थी। लगभग सात-आठ मिनटों तक उस पुलिस वाले ने उसकी गर्दन दबाई रखी जब तक कि वो मर नहीं गया। घुटनों के नीचे गर्दन आने से लेकर प्राण पखेरू होने तक केवल वह यही कहता रहा- “आई कांट ब्रीद।” मतलब मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ। किंतु पुलिस वाले ने उसकी बात से कहीं अधिक उसे मारने पर ध्यान दिया। क्या पुलिस की यह बर्बरता न्यायसंगत है? क्या पुलिस वाले का कोर्ट-कचहरी से भरोसा उठ गया था? यदि जॉर्ज फ्लायड ने गलती है तो उसे वहाँ के नियमों की सजा अवश्य मिलनी चाहिए। परिणाम आपके सामने है। उसकी मौत से अमेरिका ही नहीं सारा संसार हिल चुका है।

शरीर का रंग उसके स्वभाव का परिचायक कभी नहीं बन सकता। काला होना कोई श्राप नहीं है। क्या काला रंग वाकई इतना बुरा होता है जितना हम उसे मानते हैं या यह महज हमारे दिमाग के नजरिये का मामला है कि हमने काले रंग को गलत चीजों के साथ जोड़ दिया है। मेरे काले कम्पूटर की काली स्क्रीन में काले अक्षर ही उभर रहे हैं। वैसे तो काला रंग हमेशा से प्रभुत्व और वर्चस्व के प्रतीक रूप में इस्तेमाल होता आया है। सफ़ेद ने अगर शांति के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बनायी है तो काला रंग जाने अनजाने अपने अंदर एक अलग आकर्षण रखता है। जीवन में आगे बढ़ना है तो पेंसिल की काली रेखा की जरूरत होगी या फिर इस डिजीटल दुनिया में ओ.एम.आर. शीट के काले गोले जो आपको सफलता के दरवाजे तक ले जायेंगे। काला हुआ तो क्या हुआ? क्या काले लोगों में दिल नहीं होता? काले रंग की विशेषता यह है कि यह रंग कुछ भी परावर्तित करने की बजाए सब कुछ सोख लेता है। यह हमें दूसरों की बुराई, नीचता, कटुता, भेदभाव, ईर्ष्या, द्वेष को सोखकर उसके बदले अच्छाई, प्रेम, शांति, सुख आदि को बहिगृत करने की प्रेरणा देता है। काला रंग अज्ञानता का प्रतीक नहीं है। बल्कि वह तो उस श्यामपट का प्रतीक है जो भविष्य की पीढ़ियों को ज्ञान प्रदान करने के लिए हमेशा से कटिबद्ध है।
जॉर्ज फ्लायड को मारने वाले डैरेक चाउविन की पत्नी की तरह हमें आगे आकर यह स्वीकारना होगा कि जीवन ने हमें कई रंग दिए हैं उनमें से एक रंग काला भी है। इंसान या उससे जुड़ी हुई कोई चीज़ अच्छी बुरी हो सकती है पर रंग नहीं। वह अपने पति की हरकत से शर्मिंदा है। वह उससे तलाक ले रही है। फ्लायड की छह वर्षीय बेटी जियाना से जब पूछा गया कि उसके पिता ने क्या किया तो उसने ऐसा उत्तर दिया जिसकी हम सबसे अपेक्षा की जाती है- ‘ही चेंज्ड द वर्ल्ड।’ याद रखिए कि कोई रंग बुरा नहीं होता। जॉर्ज फ्लायड का जाते-जाते ‘मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ’ कहना हमें अपने गिरेबान में झाँकने के लिए मजबूर करता है। अमेरिका में काले-गोरे का भेदभाव आज का नहीं है। बहुत पहले से चला आ रहा है। अब सवाल यह उठता है कि इस दुनिया में सांस कौन ले पा रहा है? सच्चाई यह है कि सांस लेना तो हम कब का भूल गए हैं। कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर तो कभी प्रांत के नाम पर, कभी ऊँच के नाम पर तो कभी नीच के नाम पर, कभी मत के नाम पर तो कभी संप्रदाय के नाम पर, कभी पशु के नाम पर तो कभी परिंदों के नाम पर, कभी फलाना के नाम पर तो कभी ढंका के नाम पर दुनिया भर में न जाने कितनी गर्दनें हर दिन दबायी जा रही हैं। न जाने कितने फ्लायड मरते जा रहे हैं। और न जाने कितनी सांसें मोहताज होती जा रही हैं। न जाने यह दुनिया किस अजीब रंग में ढली है कि उसकी पहचान करना असंभव-सा लगता है। कभी-कभी लगता है कि यह दुनिया, दुनिया नहीं एक गिरगिट है। कब, कहाँ, कैसे और क्यों अपना रंग बदल दे कोई नहीं जानता।

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