Categories
भारतीय संस्कृति

ईश्वर हमसे दूर होकर भी हमारे निकट है

जो बंदगी करे वह बंदा होता है । गुरु के दरबार में बैठकर जो लोग उस प्यारे प्रभु का यजन और भजन करते हैं उन्हें गुरु ने प्यार से नाम दिया – बंदा। बाद में यह शब्द रूढ़ हो गया और सब लोगों के लिए ही ये बंदे लोग अर्थात भक्त लोग बंदा कहकर बुलाने लगे ।इस अर्थ में सभी बंदे उस एक प्रभु के ही बनाए हुए हैं, परंतु उसका बंदा सिर्फ एक है जो संसार में आकर अपने शरीर का साधन बनाकर ईश्वर प्राप्ति करता है ।इधर-उधर नहीं भटकता । जिसकी साधना टूटती नहीं है। जिसने परमात्मतत्व को ठीक-ठीक समझ लिया है।
जिस मनुष्य ने अपने जीवन को ईश्वर का उपहार मान लिया है। जो यह मानकर चला कि यह शरीर ईश्वर ने अपनी सृष्टि की बहुमूल्य रचना उसे दी है। क्योंकि वह पूर्णत: आत्मनिर्भर है। मनुष्य कुछ भी देख ,सोच समझ सकता है ,कर सकता है। यह विशेषता किसी अन्य जीव में ईश्वर ने नहीं दी।इसी शरीर में स्थित बुद्धि और चेतना के कारण मनुष्य पूरी सृष्टि को अपने आधिपत्य में लेने में सफल रहा है, ताकि उसका मनोनुकूल उपयोग कर सके ।ईश्वर की हर एक रचना सुंदर है ।जब मन करता है तो आभार व्यक्त होता है। संसार में अनेक ऋषि और मुनि हुए हैं । जिन्होंने अपने ढंग से ईश्वर की सृष्टि में सभ्यता का प्रकाश किया । संसार को स्वस्थ एवं उच्च आदर्श दिए । जिनके मार्ग पर चलते हुए मनुष्य ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है।

ईश्वर ने मनुष्य को जो बुद्धि दी है उसी से ज्ञान का प्रकाश फैलता है । समस्त जानकारी मनुष्य को बुद्धि के द्वारा प्राप्त होती है । यह ज्ञान, विवेक, बुद्धि किसी अन्य प्राणी को ईश्वर ने नहीं दी। बुद्धि ही ज्ञान को प्रकाशित करती है , इसलिए बुद्धि के द्वारा ही हम बाह्य जगत से विमुख होकर अंतर्जगत की ओर जाते हैं। परंतु हमारी बुद्धि कभी-कभी महाशून्य को समझ नहीं पाती है। क्योंकि महाशून्य असीमित ,अपार, और अज्ञात है । जिससे सभी कुछ प्रकट हुआ है। सृष्टि का क्रमिक विकास हुआ है । जो भयंकर विस्फोट होने के कारण हुआ था । जिससे पृथ्वी , जल ,अग्नि, आकाश और वायु बने। संक्षेप में कहें कि पूरा ब्रह्मांड बना।
उपनिषद का ऋषि कितनी सुंदर बात कह रहा है :–

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ ( वृहदारण्यक उपनिषद )

अर्थ : अर्थात वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।
उसे महाशून्य भी कहा गया है, जो कि वह असीमित और अदृश्य है। उसका कोई आकार प्रकार नहीं है ।उसकी पहचान उसकी स्थूलता के आधार पर नहीं हो सकती, क्योंकि ईश्वर कोई स्थूल या भौतिक पदार्थ नहीं है ,जिसे हाथ में पकड़ कर के दिया जा सकता। वह तो अरूप है। निराकार है ।सर्व व्याप्त है।
ईश्वर निराकार है “—–
उसकी कोई प्रतिमा या मूर्ति नही हो सकती
“”” यजुर्वेद “””
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद यशः ।
हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिन्सीदत्येषा यस्मात्र जात इत्येष ॥ यजु॰ ३२।३
भावार्थ – हे मनुष्यो ! ( यस्य ) जिसका ( महत ) पूज्य बडा ( यशः ) कीर्ति करनेहारा धर्मयुक्त कर्म का आचरण ही ( नाम ) नामस्मरण है , जो ( हिरण्यगर्भः ) सूर्य बिजली आदि पदार्थो का आधार ( इति ) इस प्रकार ( एषः ) अन्तर्यामी होने से प्रत्यक्ष जिसकी ( मा ) मुझको ( मा, हिंसत ) मत ताड्ना दे वा वह अपने से मुझ को विमुख मत करे, ( इति ) इस प्रकार ( एषा ) यह प्रार्थना वा बुद्धि और ( यस्मात ) जिस कारण ( न ) नही ( जातः ) उत्पन्न हुआ ( इति ) इस प्रकार ( एषः ) यह परमात्मा उपासना के योग्य है । ( तस्य ) उस परमेश्वर की ( प्रतिमा ) प्रतिमा – परिणाम उसके तुल्य अवधि का साधन का साधन प्रतिकृति , मूर्ति वा आकृति व प्रतिबिम्ब ( न , अस्ति ) नही है ।
भावार्थ —— हे मनुष्यो ! जो कभी देहधारी नहीं होता , जिसका कुछ भी परिमाण सीमा का कारण ( ‘कारण’ अर्थात जिसके होने से कार्य होता है ) नही है , जिसकी आज्ञा का पालन ही उसका नामस्मरण करना है, जो उपासना किया हुआ अर्थात जिसकी सब उपासना करते है, अपने उपासकों पर अनुग्रह ( कृपा ) करता है. वेदों के अनेक स्थलों में जिसका महत्व कहा गया है, जो नहीं मरता , न विकृत होता है ,न नष्ट होता उसी की उपासना निरन्तर करो । जो इससे भिन्न की उपासना तो करोगे तो इस महान पाप से युक्त हुए आप लोग दुःख – क्लेशों से नष्ट हो जाओगे ॥ 3 ॥
इसलिए हे मनुष्य ! तू सत्य का बोध कर , सत्य को जान ।क्योंकि उपनिषदों का उद्घोष है कि इस परिवर्तनशील संसार में यदि कोई चीज शाश्वत है , नित्य है और चैतन्य है तो वह केवल परमात्मा है। इसलिए हमारे ऋषियों ने लगातार उस ईश्वर पर अपनी नजर बनाए रखने के लिए और उसकी कृपा का पात्र बने रहने के लिए नियम बनाए , क्योंकि वे जानते थे कि एकमात्र परमात्मा ही सत्य है।
मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुला के समान हैं जो थोड़ी सी देर के लिए उत्पन्न होता है, और देखते-देखते गायब हो जाता है। ऐसे ही पानी की लहर है जो पानी में ही बनती है, आकार लेती है, दृश्य मान होती है ,और पानी में ही विलीन हो जाती है ।जिस प्रकार एक घड़ा मिट्टी से बना ,टूटने के बाद फिर मिट्टी में मिल गए ,ऐसा ही मनुष्य जीवन है।
और जीवन का यही सत्य है इसलिए सत्य का बोध आवश्यक है। इसके पश्चात यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि हमारी जो अनंत यात्रा चल रही है उसमें यह हमारा कौन सा जन्म है ? क्या इस जन्म में भी हमारी यात्रा ईश्वर की ओर है, या नहीं ?
मनुष्य जीवन का उद्देश्य तो संसार की ओर जाना नहीं था, बल्कि प्रभु प्राप्ति की ओर था। इसलिए जीवन के समस्त बंधनों को मुक्त करते हुए परमेश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयासरत हो। अपने जीवन की यात्रा के घोड़ों को ईश्वर की तरफ मोड़ो। भटकना छोड़ो। जीते जी कुछ ऐसी साधना, कुछ तप या कुछ ऐसा कार्य करें कि मानव जीवन सफल हो जाए ।जिस उद्देश्य के लिए पृथ्वी पर मनुष्य जीवन में आया था ,वह प्राप्त हो सके।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपने सृष्टि कर्त्ता से संबंध की जानकारी होनी चाहिए। हमारा सृष्टिकर्ता से वही संबंध है जो एक बूंद का समुद्र से होता है, किरण का सूर्य से होता है ,और सुगंध का पुष्प से होता है। यह इतना घनिष्ट संबंध है कि इतना तो इस नश्वर शरीर से भी हमारा संबंध नहीं है, जितना परमात्मा से है। क्योंकि व्यक्ति की आत्मा तो परमात्मा का अंश है। वेद कहते हैं कि परमात्मा सब के अंतर में विद्यमान हैं ,और वे सब के अंतःकरण के भाव और भेद को जानते हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि परमात्मा सारे जगत के अंदर भी है, और बाहर भी ।वह सारे चर अचर जगत में व्याप्त है ।वह हमारे अंदर भी विद्यमान और बाहर भी। सब प्राणी उस परमात्मा के ही अंदर हैं, और वह सब प्राणियों के अंदर विद्यमान है ।संसार हो या ब्रह्मांड यह दोनों ही न तो उससे अलग हैं और न ही उससे परे। जब ईश्वर हमारे अंदर बाहर मौजूद है तो निश्चय ही वह हमारे भले बुरे कर्मों को देख रहा है। वेदों के अनुसार वह परम तत्व सारे कर्मों को दूर व पास से देख रहा है।
कितना सुंदर कहा गया है ;–

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥

वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता । वह दूर है और समीप भी है । वह सबके अन्तर्गत है और वही इस सबके बाहर भी है ।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
जो साधक सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है वह इसके कारण ही किसी से घृणा नहीं करता ।
इसका आशय सिर्फ यह है कि ईश्वर सर्वज्ञ है । जो पाप पुण्य और अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार लोगों को उनके कर्मों का फल प्रदान करता है ।वह नियंता भी है ,और ज्ञाता भी है। तभी तो यजुर्वेद में कहा गया है जिसका आशय है कि ईश्वर सब आचार विचार जानने वाला है ।वह हमारे इतने निकट है तो हम उसी से वेदों की वाणी में प्रार्थना करें कि सब कुछ जानने वाले ईश्वर हमारी बुराइयों को दूर करिए और हमें सन्मार्ग पर ले चलो ,हृदय से यही पुकारे। सबसे निकट परमात्मा हमारी सहायता भी अवश्य करेगा.। वह हमसे दूर नहीं ,हम उससे दूर नहीं है। हमारा सृष्टिकर्त्ता से संबंध है। ऐसा प्रतिक्षण माने अर्थात कभी उससे दूर नहीं।तथापि वह अदृश्य सत्ता है। जिसकी केवल अनुभूति होती है । जैसे हवा की अनुभूति होती है। जैसे दूध में मक्खन होता है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version