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बिखरे मोती

मणिपुरी वीरांगना रानी गायडिल्यू

किसी भी देश का गौरव वहां की संस्कृति और इतिहास में छिपा है। इतिहास और संस्कृति का निर्माण उस राष्ट्र के नागरिक कहते हैं, महापुरूष करते हैं, वीर वीरांगनाएं करते हैं। भारत का अतीत बड़ा गौरवमय रहा है।
भारत की धरती को शस्यश्यामला कहा जाता है, रत्नगर्भा कहा जाता है, इतना ही नही अपितु वीर प्रस्विनी कहा जाता है क्योंकि समय समय पर भारत मां की कोख से महान दार्शनिक ऋषि मुनि, राष्ट्रनायक उन्नायक, महान नेता युग प्रणेता, अन्वेषक, वैज्ञानिक और वीर वीरांगनाएं उत्पन्न होते रहे हैं जिनकी यश पताका आज देश विदेश में सर्वत्र फहरा रही है। यदि भारत वर्ष का कहीं नाम है तो इन्हीं विभूतियों के कारण है, इन्हीं देवताओं के कारण है। वे हमारे उतने ही वंदनीय हैं जितना परमपिता परमात्मा है।
प्राय: महारानी लक्ष्मीबाई का नाम तो आम नागरिक की जुबान पर रहता है किंतु रानी गायडिल्यू का नाम तो कम ही लोग जानते हैं। गायडिल्यू का जन्म मणिपुर प्रांत में एक पहाड़ी परिवार में हुआ था। घोर गरीबी और अभाव के थपेड़े सहते हुए ये कली फूल बनने लगी थी। चट्टानों के बीच जन्म लेने वाली इस नवयौवना के वक्षस्थल में वाली इस नवयौवना के वक्षस्थल में चटटान जैसी संकल्प शक्ति थी। आंखें में शेरी जैसी घूर और चेहरे के चारों तरफ जो आभामंडल था उसमें सूर्य जैसा तेज था। अदम्य साहस और शौर्य तो इसे पैतृक गुण थे। वीरता और निडरता तो मानो जैसे इसे घूंटी में पिलायी गयी हो। वह बचपन से ही अप्रतिम प्रतिभा की धनी थी। उसके हृदय में तो मानो राष्ट्रभक्ति का अविरल स्रोत बहता था जो उसे उद्वेलित करता था, शोले की तरह अंग्रेजों से टकराने के लिए प्रेरित करता था। उसने अंग्रेजों की जुल्म ज्यादती को अपनी आंखों से देखा था।
उस वीरांगना के हृदय में प्रतिशोध का लावा धधक रहा था। इसलिए उस नवोढ़ा ने मणिपुर की घिरी और घुमावदार पहाडिय़ों के सघन वनों में अंग्रेजों से गुरिल्ला युद्घ किया। उस समय उस नवोढ़ा की उम्र सोलह वर्ष थी वह चाहती तो अपना वैवाहिक जीवन बिता सकती थी किंतु उसके कोमल हृदय में तो राष्ट्रभक्ति का सागर हिलोरें मार रहा था। इसलिए वह अंग्रेजों पर भूखी शेरनी की तरह टूटती थी।
मणिपुर के जंगलों में अंग्रेजों ने घात लगाकर उस शेरनी को धोखे से पकड़ लिया और जेल में लंबे समय के लिए डाल दिया। जब पंडित जवाहर लाल नेहरू को इस महान क्रांतिकारी नवयौवना का पता चला तो वे उनसे मिलने मणिपुर की जेल में गये और भारत की शेरनी गायडिल्यू को रानी कहकर संबोधित किया और भाव विह्वल होकर उनके सिर पर वरदहस्त रखा था। तभी से उन्हें रानी गायडिल्यू कहा जाने लगा।
रानी गायडिल्यू को अंग्रेजों ने जेल में अमानवीय यातनाएं दीं। जिसके कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वे स्वतंत्रता की बलिवेदी पर राष्ट्र के लिए प्राणोत्सर्ग कर गयीं। चलते चलते हर राष्ट्र भक्त की आंखों को नम कर गयीं और वे त्याग और बलिदान की प्रेरणा पुंज बन गयीं।
वे अपनी शिराओं के शोणित को सदा सदा के लिए राष्ट्रध्वज तिरंगे के केसरिया रंग में निहां कर गयीं। उनका त्याग और बलिदान राष्ट्र में तब तक याद किया जाएगा जब तक लालकिले की प्राचीर पर तिरंगा फहरता रहेगा। समस्त राष्ट्र ऐसी वंदनीया वीरांगना का सर्वदा ऋणी रहेगा और शत शत नमन करता रहेगा।

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