Categories
भारतीय संस्कृति

समय रहते सर्वजीवनाधार को खोज लो

एक मनुष्य को नैतिकता और गुण नहीं छोड़ना चाहिए , क्योंकि नैतिकता तथा गुण हीरे तथा रत्नों से भी अधिक मूल्यवान होते हैं । यह मनुष्य को प्रभु प्रिय और लोकप्रिय बनाते हैं और उसके मन को संतुष्टि प्रदान करते हैं। नैतिकता और गुणों के कारण ही एक मनुष्य के अंदर ही प्रभु का अस्तित्व जगमगा रहा होता है।
मनुष्य के अंदर जब यह गुण भागने लगते हैं तो एक मनुष्य को निर्बाध गति से लक्ष्य की तरफ बढ़ते रहने से सफलता मिल ही जाती है। दिव्य गुणों के भागने से मनुष्य के भीतर यह भावना प्रबल होती है कि मनुष्य को किसी को धोखा नहीं देना चाहिए , सच बोलना सर्वथा उचित लेकिन धोखा देना सर्वथा अनुचित है। ईश्वर भक्ति से मनुष्य की अवधारणा बनती जाती है कि मनुष्य को न तो डरना चाहिए और न ही किसी को डराना चाहिए।

गीता क्या कहती है ?

अन्नाद भवंति भूतानि प्रजन्य दन्न संभव ।
यज्ञादभवीत पर्जन्यो यज्ञ कर्म सुमदभव।

इसका तात्पर्य है कि यज्ञ करने से अनादि उत्पन्न होते हैं और अन्न से प्रत्येक प्राणी का पेट भरता है। अन्न प्रत्येक प्राणि की भूख मिटाता है। इसीलिए हमारे पूर्वजों की यह मान्यता रही कि यज्ञ परोपकार का कार्य है। हमारे पूर्वजों ने अपने चिंतन की उत्कृष्टता को प्रकट करते हुए यह स्पष्ट किया कि :-
अक्षर ब्रह्म से – वेद , वेदों से – कर्म ,कर्मों से यज्ञ ,यज्ञ से वृष्टि , वृष्टि से अन्न , अन्न से प्राणी का आधार है ।कैसी अद्भुत, अकल्पनीय, अविश्वसनीय श्रंखला है। इसलिए जिस मनुष्य को मोक्ष की चाहना है वह यज्ञों (परोपकार) को करें। परोपकार के करने से भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाया करती है।

वेद ही कर्मों की पवित्रता को बताते हैं

संसार में वेद ही ऐसे धर्म ग्रंथ है जो मनुष्य के कर्मों की पवित्रता पर बल देते हैं और न केवल बल देते हैं बल्कि कर्मों की पवित्रता को कैसे सुनिश्चित किया जा सके ? इसका सरल सा मार्ग भी बताते हैं और यह सरल सा मार्ग उन्होंने केवल 2 शब्दों में प्रकट कर दिया है कि सत्यं वद धर्मं चर – अर्थात सत्य बोल और धर्म पर चल । संसार का आचरण यदि सत्यवादी और धर्मानुसार हो जाए तो यह निश्चित है कि संसार में जितना भी बवंडर मचा हुआ है सब शांत हो जाएगा।
जिस व्यक्ति में त्याग भावना है उसके सामने कोई भी कार्य हो वह अच्छाई में बदल जाएगा। हृदय में श्रद्धा न होने से आंतरिक अनुभव कम हो जाते हैं। परंतु समस्या यह है कि अनुभव न हो तो श्रद्धा पक्की नहीं होती। आध्यात्मिक पथ का आधार श्रद्धा है ,यदि श्रद्धा पूर्वक चलोगे तो निसंदेह लक्ष्य प्राप्ति होगी। श्रद्धा में डूबा हुआ श्रद्धालु व्यक्ति इंद्रियों को वश में करके ज्ञान प्राप्त करता है ,और ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसे शीघ्र परम शांति प्राप्त हो जाती है।

गीता का ज्ञान

गीता भी मनुष्य को वेद अनुसार आचरण करने पर बल देते हुए कर्मों की पवित्रता को बनाए रखना आवश्यक मानती है। गीता संसार में किसी भी प्रकार के बवंडर को मनुष्य की उन्नति के लिए अशुभ मानती है । गीता का सार संदेश है कि मनुष्य न केवल अपने लिए जिए बल्कि प्राणी मात्र के लिए भी अपनी सात्विक शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपना जीवन यापन करे।
अगर कोई मनुष्य सत्य से छिपता है इसका मतलब है कि वह असत्य का संग कर रहा है। यदि किसी मनुष्य को देखनी ही हैं तो प्रत्येक व्यक्ति की विशेषता ही देखें और यदि कुछ छोड़ना है तो अपनी कमजोरियों को छोड़ें। इसके अलावा एक अच्छा स्वभाव मन वाला व्यक्ति दूसरों की विशेषताएं देखता है और दूषित मन वाला व्यक्ति दूसरों में बुराई ही ढूंढता है। जैसे 18 अक्षौहिणी सेना में युधिष्ठिर को एक दुष्ट और धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को एक सज्जन नहीं मिला था ।
जितने आप दूसरों के अवगुण देखते हैं उतना ही आप पर अवगुणों का प्रभाव पड़ता है , क्योंकि कमजोरियां संक्रमण रोग की तरह बढ़ती है। अविनीत मनुष्य को विपत्ति प्राप्त होती हैं और विनीत को सुमति व संपत्ति प्राप्त होती हैं । इसलिए कहा गया कि मनुष्य के कर्म ही उसके विचारों की सबसे अच्छी व्याख्या हैं ।
मनुष्य को शुभ कर्मों को करने से घृणा सदा रोकती है। घृणा करना घातक रोग है क्योंकि अच्छी व स्वस्थ प्रतियोगिता ही मनुष्य को स्वस्थ बनाती है। घृणा करना शैतान का कार्य है । अतः घणा के भावों को हृदय से निकाल कर दूसरों के प्रति क्षमाशील बनो। क्षमा करना मनुष्य का धर्म है । प्रेम करना देवताओं का गुण है। इसलिए अपने हृदय को ईर्ष्या से सदैव मुक्त रखो और शत्रु के प्रति भी द्वेष न रखो ।

ईमानदारी का आचरण

यदि कोई मनुष्य सारे लेनदेन इमानदारी के साथ करता हो तो उसे कभी भय नहीं होता इसलिए गुण ईमानदारी का ग्रहण करो। यदि एक व्यक्ति का हृदय ईमानदारी से भरा है तो एक शत्रु नहीं सारा संसार भी उसके सम्मुख अस्त्र शस्त्र डाल देगा। परंतु जब कोई व्यक्ति अपने आपको ईमानदार कहता है तब भी वह ईमानदार नहीं होता , कहने में भी। वास्तविक ईमानदार व्यक्ति का सोचना हमेशा न्यायपूर्ण होता है। आत्म परीक्षण में ईमानदारी का बोध होने से बढ़कर और कोई सुख नहीं होता।
प्रभु दया का सागर है प्रभु जैसा दयालु कोई नहीं।मनुष्य को चाहिए कि जीवन में दया व धर्म का दिखावा नहीं करें बल्कि उस पर अमल करें। आत्मज्ञान व आत्मविश्वास से हर असंभव कार्य किया जा सकता है , लेकिन मृत्यु के समय केवल आत्मज्ञान ही मनुष्य के काम आता है। इसके अलावा जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने वाला अपने आप में ही तृप्त और अपने आप में ही संतुष्ट हैं उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। इसी प्रकार ईश्वर की आज्ञाओं को पूर्ण करने से हमारी इच्छाएं स्वयमेव पूरी हो जाती हैं।

मनुष्य का स्वभाव

मनुष्य का अनुभव एक दीपक के समान होता है जो हमेशा उसको उन्नति का मार्ग दिखलाता है और एक कोमल स्वभाव वाला मनुष्य अमूल्य पूंजी वाला होता है । इसके अलावा धैर्य रखने वाला मनुष्य उससे भी उत्तम होता है , क्योंकि धैर्य का फल हमेशा मीठा होता है और इससे भी उत्तम यह व्यक्ति है जो ईश्वर और मृत्यु को हमेशा याद रखता है। मनुष्य को अपना स्वभाव एक फलदार वृक्ष की तरह रखना चाहिए । जैसे फलदार वृक्ष पत्थर खाने पर भी फल ही देता है।
एक व्यक्ति का शिष्ट व्यवहार शालीनता से भरा होता है , जबकि दूषित व्यवहार अकीर्तिकर होता है। मनुष्य के अंदर जब सेवा की भावना आ जाती है तो भगवान उसके लिए कोई कमी नहीं आने देते हैं। यह उसके सिस्ट आचरण और व्यवहार के कारण ही संभव होता है।
मनुष्य को अपने आचरण और व्यवहार में दानशील भी होना चाहिए। क्योंकि तीन सतगुरु आशा, विश्वास और दान में से दान सबसे बढ़कर है। मनुष्य के आचरण और व्यवहार को पवित्र बनाए रखने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि द्वेष और कपट को त्याग दो । संगठित होकर दूसरों की सेवा करना सीखो । यही हमारे देश की पहली आवश्यकता है।

संसार में विवेक ही बड़ा है

क्रोध एक ऐसी हवा है जो दिमाग का दिया बुझा देती है ।क्रोध को क्षमा से जीतना चाहिए। क्रुद्ध होने का अर्थ होता है कि दूसरों की त्रुटियों का प्रतिशोध अपने आप से लेना अर्थात अपने शरीर में बीमारियों को आमंत्रण देना। क्रोध के कारण अधर्म से धर्म और असत्य से सत्य वह मार दिया जाता है।
महर्षि दयानंद ने कहा है कि जिस संगठन में अधर्म से धर्म ,असत्य से सत्य सब सदस्यों के देखते हुए मारा जाता हो वहां सब मृतक के समान हैं । मानो उनमें कोई भी नहीं जीता । जैसे धृतराष्ट्र की सभा में द्रोपदी का चीर हरण होना और वहां पर भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य आदि का मौन रहना। आखिर इन सभी की मृत्यु का कारण यही बना कि उस दिन उन्होंने अधर्म से धर्म की मृत्यु होते हुए देखी थी। यदि यह लोग उचित समय पर बोले भी तो दुर्योधन के अहंकार और क्रोध ने उनके धर्म और सत्य की हत्या कर दी । जिसका परिणाम उस समय संपूर्ण भूमंडल के लोगों को भुगतना पड़ा ।
ईश्वर के नाम के ज्ञान की एक रत्ती भी हृदय में प्रविष्ट हो जाए तो यह सब पापों के मार्ग से रोक देती है। इसलिए प्रभु का स्मरण करते हुए कार्य करें और फल ईश्वर पर छोड़ दें। कोई भी व्यक्ति दीन ,दुखी, दरिद्र ,दुर्बल बेसहारा केवल तभी तक है जब तक वह ईश्वर को नहीं मानता।
धर्म ही समाज में मानवता का जनक है।इस छोटे से जीवन में किसी को दुख नहीं देना चाहिए । जो व्यक्ति कर्म से भटक जाएगा उसको तनाव अवश्य ही मिलेगा । परमात्मा का स्मरण करना ही सच्चा तप है।
एक मनुष्य को दूसरे के दुख में साथी होना बहुत बड़ी सांत्वना होती है। दुख के आने से पहले ही दुख का अनुभव कर लिया जाए तो दुख जैसा है दुख वैसा नहीं रहता।

अभिमानी मत बनो

जिस प्रकार एक परदेसी को अपने घर से पत्र मिलता है और वह किसी भी बाधा एवं विघ्न की चिंता किए बिना परदेश से स्वदेश की ओर लौटना प्रारंभ कर देता है , उसी प्रकार संसारी आत्मा को अपुण्य की संपत्ति पर एक भव से दूसरे भव में जाना पड़ता है ।सच्चा मेला तो धर्म का है , जो हर परिस्थिति में अविचल बना रहता है। इसलिए इस संसार को नश्वर मानते हुए भी किसी भी वस्तु पर अभिमान नहीं करना चाहिए।
दूसरों की सहायता करने की हमारी क्षमता सीमित होती है। किसी आत्मा की ईश्वर के समीप आने में सहायता करना सबसे अच्छी सहायता मानी जाती है।
इस प्रकार की सहायता करने से व्यक्ति का अभिमान शांत होता है । इससे सारी सहायता स्वमेव ही मिल जाती है। देने से दान की आदत बन जाती है फिर कभी मांगना भी नहीं पड़ता और व्यक्ति अपने परिश्रम पर विश्वास बनाए रखता है। परिश्रमी व्यक्ति भी कभी अभिमानी नहीं हो सकता।
हमें अपने गुणों की विस्मृति हो सकती है , परंतु परमात्मा हमारे गुणों को कभी नहीं भूलते। जो लोग हर स्थिति परिस्थिति में भगवान को याद रखते हैं वह भी अहंकार की प्रवृत्ति से बच जाते हैं।
धर्म जीवन जीने के विज्ञान का नाम है । धर्म सत्ता निरपेक्ष रहे और राजनीति संप्रदाय निरपेक्ष हो , धर्म से अलग होकर राजनीति मात्र कूटनीति होकर रह जाती है धर्म और राजनीति के अलगाव का परिणाम ही गुलामी है। राजनीति का भौतिक क्षेत्र पर प्रभाव होता है और अंतःकरण पर धर्म का। धर्म और राजनीति का अन्योन्याश्रित संबंध है। धर्म तो जीवन का उत्साह है। धर्म में मात्र प्रभु दर्शन ही नहीं है बल्कि और भी बहुत कुछ है। इन सब बातों को समझने से भी हमारे भीतर अहंकारशून्यता का भाव प्रकट होता है।
धर्म और राजनीति को आज के नेता जो अलग-अलग करके देखते हैं, इसीलिए भारतवर्ष में यह समस्याएं उत्पन्न हो रही है। हमने धर्म को केवल आस्था का विषय छोड़कर अलग कर दिया है । जब तक भारत में राजनीति धर्म के साथ जुड़ी रही तो भारत का डंका विश्व में बजता रहा। इसलिए धर्म के नाम पर विकृतियां दूर करनी होंगी।

माता पिता का महत्व

जन्मदाता और पालनकर्ता होने के कारण सब पूजाओं में पूज्यतम जनक और पिता कहलाता है। जन्मदाता से भी अन्नदाता पिता श्रेष्ठ होता है। इनसे भी सौ गुना श्रेष्ठ और वंदनीय माता होती है , क्योंकि वह गर्भधारण और पोषण करती है। माता पिता बच्चों के लिए स्वयं आदर्श एवं प्रेरणा के स्रोत बने।
हम अपने समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए आदर्श बनकर अच्छे संस्कार देते रहेंगे तो उसका प्रभाव यह होगा कि बच्चों के अंदर कहीं न कहीं ऊंचाई आएगी और एक साधारण बच्चा भी संसार में महान बनकर खड़ा हो जाएगा । आदर्श स्थापित कर देगा।
राष्ट्र के लिए प्रत्येक बच्चा महत्वपूर्ण है। प्रत्येक बच्चा में महाराणा प्रताप, शिवा और भगतसिंह आदि अनेकों वीर छुपे हुए हैं। प्रत्येक मां अपनी लोरी में ऐसे ही महान सपूत बनाने का सपना लेकर गाती है। मां के लिए कितना सुंदर कहा गया है :-

मां ऐसी किताब है
जो पढ़े कामयाब हो जाए।
तथा
ए रात मुझे मां की तरह गोद में ले ले।
दिन भर की मशक्कत से बदन टूट रहा है।

एक मनुष्य को मित्रता हमेशा समझदार और शांत स्वभाव वाले व्यक्ति से ही करनी चाहिए। झगड़ों से दूर रहने के लिए झगड़ालू स्वभाव वाले व्यक्तियों से दूर रहना श्रेयस्कर होता है।

गुरु और गवार
दूर से नमस्कार

गुरु को इसलिए दूर से नमस्कार कि वह श्रद्धा का पात्र है , दूर से ही श्रद्धा उसके प्रति जाग जाती है , लेकिन गवार यदि नमस्ते करता हो तो उसके साथ उचित दूरी बनाते हुए ही नमस्ते करें अर्थात उससे निकटता अथवा मित्रता जैसा भाव पैदा ना करें।
सृष्टि कर्ता ईश्वर को दीया जलाने की जगह सत्य की रोशनी अर्पित करें , घंटियां बजाने की जगह प्रेम का संगीत सुनाने से उसकी प्राप्ति हो जाती है। घंटों आसन पूजा के स्थान पर कर्म योग की तपस्या अर्पण करें ।प्रभु जी संभालते हैं – ब्रह्मांड की व्यवस्था । जबकि संसार की व्यवस्था संभालने के लिये उसने मानव रचना की थी । पर मानव धरती पर आने के अपने इस उद्देश्य को भूल गया । अपने ही में रम गया ।आया था सत्यम, शिवम, सुंदरम संसार रचकर प्रभु अर्पण करने, लेकिन अपने भंडार भरने में लग गया। अपनी अहम बुद्धि से तोड़ मरोड़ ,जोड़-तोड़ करने में लग गया । कवि ने सत्य ही तो कहा है :- ‘आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास।’

चल उठ ! कर्तव्य कर्म कर

मनुष्य को सदा गतिशील , प्रगतिशील रहना चाहिए। उसका विश्वास चलते रहने में होना चाहिए , चलते रहने से ही अथवा गतिशील बने रहने से ही उत्थान होता है। चलते रहने की अपनी इसी साधना के पथ पर बढ़ते हुए मनुष्य को परम तत्व की जिज्ञासा करनी चाहिए । ध्यान रखना चाहिए कि सारी वस्तुओं का उद्गम परम ब्रह्म है। यदि काम को भगवत प्रेम में परिणत कर दिया जाए या दूसरे शब्दों में भगवान के लिए ही सब इच्छाएं हो तो काम और क्रोध दोनों आध्यात्मिक बन सकेंगे। ऐसी गतिशील प्रगतिशील अवस्था के लिए यह ध्यान रखना चाहिए कि :-

तू अगर खुद को खो नहीं सकता।
तो उसका दीदार हो नहीं सकता।
खुली आगोश तेरी लेने को।
मां तो व्याकुल है दूध देने को।
दरअसल तू ही रो नहीं सकता।
तू अगर खुद को–

इसके अलावा कुछ अन्य पंक्तियां :—

जो जिंदगी के साज पर
प्रभु के गीत गा गया।
वह जिंदगी बिता गया।
वह जिंदगी बिता गया।।

गतिशील प्रगतिशील जीवन जीने वाला व्यक्ति यह समझ लेता है कि ईश्वरीय निधि ही अनंत है इसलिए इस निधि को प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।
अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए केवल एक ईश्वर की पूजा अर्चना व आराधना उपासना करनी चाहिए जो सभी शक्तियों का आदि स्रोत है ।केवल उसी का नाम सच है ।उसी का स्मरण करने से सुख प्राप्त होते हैं ।उसी को चाहे राम कहो, हरी कहो, नारायण कहो या गोविंद कहो, वाहेगुरु कहो या खुदा कहो-
किसी भी नाम से पुकारो , वह परम सत्ता केवल एक ही है , लेकिन उसका सर्वोत्तम और निज नाम केवल ओ३म है ।
चल कर उठने का और जीवन को गतिशील बनाने का उद्देश्य है कि यह चिंतन किया जाए कि सभी जीवों का दाता केवल ईश्वर है। जिसकी महिमा सुनने से वह उसको मन में बसाने से ही इंद्र , ब्रह्मा , विष्णु और महेश की पदवी पाई जा सकती है। परमात्मा को भजने वाला व्यक्ति कभी कुमार्ग पर नहीं चलता । वह सुमार्ग पर चलते हुए स्वयं भी मुक्त हो जाता है और दूसरों को भी मुक्त कर लेता है। हमारे भाव यह होने चाहिए कि हम सब एक ही परमात्मा की संतान हैं। इसलिए सब हमारे भाई बहन हैं । सभी से प्रेम करना चाहिए और ऐसे लोगों से हमेशा दूर रहना चाहिए जो परमात्मा में विश्वास नहीं रखते हों ।

परमात्मा को पाने की इच्छा पालो

मित्रता भी ऐसे लोगों से करनी चाहिए जिसके मन में परमात्मा को पाने की ही इच्छा हो । हमें उसके प्रति विनम्र बनना चाहिए। जिस हृदय में परमात्मा का वास होता है उसको कोई भी ठग ठग नहीं सकता। यहाँ तक कि जो पांच ठग काम, क्रोध, मद ,लोभ और मोह हैं वे भी उससे दूर ही रहते हैं। लेकिन आसक्ति से रहित व्यक्ति ही परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं तथा इंद्रियों और उनके विषय मनुष्य के कल्याण मार्ग में विघ्न डालने वाली वस्तुएं हैं । जिनसे हमेशा सावधान रहना चाहिए और आत्म उपलब्धि का प्रयास करना चाहिए । क्योंकि आत्म उपलब्धि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
परमात्मा को पाने की इच्छा पालकर एक सफल मनुष्य बनने के लिए जल से एकता ,सागर से गहराई , नदी से मिलकर रहना, राम से आज्ञा पालन, भरत से प्रेम और त्याग, अभिमन्यु से वीरता ,विक्रम से न्याय ,अशोक से दया, भीष्म से दृढ़ प्रतिज्ञा , चींटी से परिश्रम, भगतसिंह से कुर्बानी और लक्ष्मण से सेवा और श्रद्धा सीखनी चाहिए।
मनुष्य के अंदर इच्छाएं होने से दुख आता है ,इच्छाओं से ही भय आता है और इच्छा मुक्त व्यक्ति न तो दुख को जानता है , ना भय को । क्योंकि इच्छा का समुद्र अतृप्त रहता है । उसकी मांग में ज्यों – ज्यों पूरी होती हैं , त्यों – त्यों वह गर्जन करता है। इसलिए दु:ख और भय का कारण बना रहता है। क्योंकि जीवन में दो ही अवसर दु:खमय होते हैं , एक इच्छाओं की पूर्ति होना और दूसरा इच्छाओं को पूर्ण रहना। लेकिन जो व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त है , वह हमेशा स्वतंत्र रहेगा । उसको भय या दुख नहीं होगा। इसलिए इच्छाओं को परिमित करो । इच्छाओं का दमन करो । इच्छाओं को शांत करने से नहीं बल्कि इच्छाओं को परिमित करने से शांति मिलती है । भय और दु:ख से छुटकारा मिलता है , इसलिए इच्छाओं को नियंत्रित और अनुशासित करना एक सफल मनुष्य के लिए आवश्यक है।
याद रखो कि इच्छाएं अनंत हैं ।इनकी अनंतता में यदि अपने आप को उलझाओगे तो सारा जीवन पागल कुत्ते की भांति भागते – भागते समाप्त हो जाएगा । हाथ कुछ भी नहीं आएगा ।हाथ आएगी तो केवल मौत और मौत भी वही जो पागल कुत्ते को मिलती है । इसलिए पागल कुत्ते की मौत से बचना चाहते हो और मनुष्य की मौत मरना चाहते हो तो मनुष्य की भांति जीना सीखो । संसार की एषणाओं के मकड़जाल में न फंसकर और अपनी स्थिति पागल कुत्ते जैसी ना बनाकर मानव जैसी बनाते हुए सर्वजीवनाधार को पाने के लिए प्रयास करना चाहिए।
उसके दर पर समय से पहुंचकर उससे कह दो :-

“तेरी मेहरबानी का है बोझ इतना
जिसे मैं चुकाने के काबिल नहीं हूं ।
मैं आ तो गया हूं मगर जानता हूं
तेरे दर पे आने के काबिल नहीं हूँ ।।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version