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स्वर्णिम इतिहास

रामायण और महाभारत का कम समय आंकने में गांधीजी का यह दुराग्रह भी एक कारण

 

हमारे देश के इतिहास में विकृतिकरण से अधिक इतिहास का विलोपीकरण किया गया है । इतिहास के विलोपीकरण की यह षड्यंत्रकारी योजना जानबूझकर यूरोपियन देशों के इतिहास लेखकों , मुस्लिम इतिहास लेखकों के साथ-साथ कम्युनिस्ट विचारधारा के लेखकों ने बनाई है । विलोपीकरण की इस प्रक्रिया को पूरा करने के दृष्टिकोण से इन लोगों ने अपने षड्यंत्र में सबसे पहले हमारे सृष्टि संवत को हटाया और जानबूझकर ईसा संवत को यहाँ पर लागू किया गया । बीसी अर्थात ईसा पूर्व और ईस्वी का खेल चलाकर इतिहास की एक नई भ्रांति सृजित की गई । अब हम अपने इतिहास के कालक्रम के निर्धारण के लिए इसी बीसी और ईस्वी अथवा एडी के खेल में उलझे रहते हैं। हमारे इतिहास का यह भी एक मनोरंजक और आश्चर्यकारी तथ्य है कि आज तक कभी हमने अपने सृष्टि संवत की वैज्ञानिकता पर चिंतन नहीं किया । यहाँ तक कि सरकारों की ओर से या शिक्षा क्षेत्र के महारथियों की ओर से भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि इस देश का सृष्टि संवत कितना वैज्ञानिक है ? हमने विक्रमी संवत या शक संवत को भी लागू करने में उतना ध्यान नहीं दिया जितने की अपेक्षा की जा सकती थी ।
भारतीय इतिहास को विश्व जनमानस के सामने से ओझल करने के षड्यंत्र में लगी शक्तियों ने सारे संसार के इतिहास को पिछले 5000 वर्ष में समाविष्ट करने का षड्यंत्रकारी कार्य किया है। दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत के लोगों ने भी इसी लीक को पीटने का कार्य किया है कि पृथ्वी पर मानव सभ्यता का इतिहास पिछले केवल 5000 वर्ष का ही है । उससे पहले क्या था ?- जब यह पूछा जाता है तो उसे ‘अंधकार युग’ कहकर बात समाप्त कर दी जाती है।
इस अंधकार युग के कपाट खोलने की चाबी भारत के पास है । क्योंकि भारत का इतिहास पिछले लाखों-करोड़ों वर्ष का इतिहास है , परंतु ‘अंधकार युग’ में जाने के भारत के प्रयासों को भी उस समय धत्ता बता दिया जाता है जब रामायण और महाभारत को केवल उपन्यास कह दिया जाता है और भारत सहित विश्व के इतिहास की कालगणना को लगभग दो अरब वर्ष तक ले जाने के उसके सारे प्रमाणों को काल्पनिक कहकर मानने से इंकार कर दिया जाता है।
कभी किसी भी रिसर्च स्कॉलर या शोधार्थी को भारत में इस विषय पर शायद ही पीएचडी या डीलिट् की उपाधि मिली हो कि उसने भारत के इतिहास को पिछले लाखों-करोड़ों वर्षों में देखने का प्रयास किया हो और रामायण , महाभारत आदि ग्रन्थों को काल्पनिक न मानकर इतिहास का एक अनिवार्य अंग मानने के साथ-साथ भारत की संस्कृति को स्पष्ट करने वाले ग्रंथों के रूप में भी मान्यता दिलाने की बात कही हो।
यह बहुत ही दुखद तथ्य है कि भारतवर्ष में शिक्षा क्षेत्र में उन लोगों को ही उपाधियां मिली हैं जिन्होंने संसार के इतिहास को पिछले 5000 वर्ष में देखने की धारणा का समर्थन किया हो और भारत व भारतीयता को अपशब्द कहने में किसी प्रकार की कमी न छोड़ी हो । जिसने अकबर को उदार बादशाह के रूप में स्थापित किया हो और महाराणा प्रताप द्वारा अकबर का निरंतर सामना करते रहने को उनकी वीरता न कहकर मूर्खता सिद्ध करने का प्रयास किया हो।
कलयुग से पूर्व द्वापर , त्रेता और सतयुग का काल रहा है । सतयुग से लेकर कलयुग तक चारों युगों की अवधि 4 : 3: 2 : 1 के अनुपात से आंकी जाती है। इनमें से सतयुग 17 लाख 28 हजार वर्ष का , त्रेता 12 लाख 96 हजार वर्ष का , द्वापर 8लाख 64 हजार वर्ष का और कलयुग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होता है । वर्तमान कलियुग के लगभग 5 हजार से अधिक वर्ष अब व्यतीत हो चुके हैं । चारों युगों से एक चतुर्युगी बनती है । जिसमें 43 लाख 20 हजार वर्ष होते हैं । ऐसी हजार चतुर्युगीयों से मिलकर 4 अरब 32 करोड वर्ष का एक सृष्टि काल बनता है।
अब यदि इस कालखंड पर विचार किया जाए और प्रत्येक युग के दिए गए उपरोक्त वर्षों पर चिंतन किया जाए तो पता चलता है कि रामचंद्र जी के त्रेता युग के पश्चात बीच में 8लाख 64 हजार वर्ष का द्वापर युग बीत गया और अब 5000 वर्ष से अधिक चल रहे कलयुग के बीत चुके हैं । जबकि जिस समय रामचंद्रजी हुए थे उस समय त्रेता के भी 1लाख वर्ष शेष थे । इस प्रकार रामचंद्र जी को इस पृथ्वी पर आए लगभग पौने 10 लाख वर्ष हो चुके हैं।
यदि आप रामेश्वरम जाएं तो आप देखेंगे कि वहां पर अभी भी ढेर सारे कुंड हैं। यहां पर आपको ऐसे लोग मिलेंगे जो आपको पानी पर तैरने वाले पत्थर दिखाएंगे । बस , यही वह पत्थर था जिससे रामचंद्र जी ने समुद्र पर पुल का निर्माण कराया था।
पुल के प्रमाण अभी भी हैं । श्रीलंका अभी भी है। अयोध्या अभी भी है । किष्किंधा और वे सभी स्थान अभी भी हैं जिन पर रामचंद्र जी का जाना बताया गया , परंतु इसके उपरांत भी रामायण काल्पनिक है और हमें कान पकड़कर उठक बैठक लगाने के लिए इसी बात के लिए बाध्य किया जाता है कि बस यही कहते रहो कि -‘ रामायण काल्पनिक है ‘।
राम और रामायण को कल्पना मात्र मानने की भ्रांति गांधीजी ने भी पैदा की है । गांधी जी 19 नवंबर 1929 को एक पत्र में लिखते हैं :-
” मैं राम और कृष्ण को वैसे ऐतिहासिक पात्र नहीं मानता, जैसे कि वे पुस्तकों में वर्णित हैं।”
गांधी जी उसी पत्र में आगे लिखते हैं-
“रावण हमारी वासनाओं का और कौरव हमारे भीतर के दोषों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रामायण और महाभारत का उद्देश्य हमें अहिंसा का उपदेश देते हैं।”
गांधी वाङ्मय खंड 32 पृष्ठ 69
गांधी जी सीलोन डेली न्यूज़ में 17 नवंबर 1927 को राम और रावण का नाम को रेखांकित करते हुए लिखते हैं –
“हिन्दू धर्म में राम ईश्वर का मधुर और और पवित्र नाम है और हिन्दू पुराणों में रावण उस दुष्टता और बुराई का नाम है, जो मानव शरीर में मूर्तिमती हो उठती है। राम रूपी ईश्वर का काम है कि जब और जहां कहीं बुराई हो, उसका नाश करें। और साथ ही उसका यह भी काम है कि विभीषण सदृश अपने भक्तों को स्वशासन का अपरिवर्तनीय अधिकार प्रदान करे।”
गांधीजी के इसी प्रकार के चिंतन ने राम, रामायण और रामायणकालीन भारत सबका गुड़ गोबर कर दिया।
इसी संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि इतिहासकार और पुरातत्वविद प्रोफ़ेसर माखनलाल ने अपना निष्कर्ष स्थापित किया है कि “इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि कोरल और सिलिका पत्थर जब गरम होता है तो उसमें हवा कैद हो जाती है , जिससे वह हल्का हो जाता है और तैरने लगता है । ऐसे पत्थर को चुनकर ये पुल बनाया गया।”
उनका यह भी निष्कर्ष है कि ” सन1480 में आए एक तूफ़ान में ये पुल बहुत अधिक टूट गया था । उससे पहले तक भारत और श्रीलंका के बीच लोग पैदल और साइकिल (पहियों) के माध्यम से इस पुल का प्रयोग करते रहे थे ।”
भारत के अधिकांश ज्योतिषियों के अनुसार कलयुग का आरंभ ईसा से 3101 वर्ष पूर्व हुआ था। आर्यभट्ट ने कलयुग का आरंभ अपनी 23 वर्ष की अवस्था में सम्मत 546 ईसवी से 3600 वर्ष पूर्व स्थापित किया था । उनके कहे पर यदि विश्वास किया जाए तो भी महाभारत का समय अब 2020 ई0 में 5121 वर्ष पूर्व का होता है। नारायण शास्त्री जी की पुस्तक ‘शंकर का समय’ के अनुसार भीष्म की मृत्यु माघ मास उत्तरायण सूर्य शुक्ल पक्ष , अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में हुई थी । उनकी मान्यता के अनुसार यह समय अबसे 3139 वर्ष पूर्व का है । जिसे अब 2020 ई0 में 5158 वर्ष होते हैं ।
इसके उपरांत भी भारत में अनेकों लोगों की यह भ्रान्त धारणा है कि न तो महाभारत युद्ध कभी हुआ और न श्री कृष्ण जी ही उत्पन्न हुए । इसके अतिरिक्त कौरव – पांडवों की कहानी भी कोरी कल्पना है । डॉ राधाकृष्णन और गांधीजी भी महाभारत के पात्रों को काल्पनिक मानने की भूल करते रहे । जब इन जैसे सम्मानित लोग महाभारत को काल्पनिक कह रहे थे तो स्वाभाविक है कि उसका प्रभाव शासन की नीतियों पर पड़ता । गांधीजी ने ‘गीता माता’ के नाम से गीता पर अपनी एक टीका लिखी थी । अपनी इस पुस्तक की प्रस्तावना में ही वह स्पष्ट कर देते हैं कि :- “यह ग्रंथ ऐतिहासिक नहीं , अपितु इसमें भौतिक युद्ध का वर्णन करने के बहाने प्रत्येक मनुष्य के हृदय में निरंतर रहने वाले द्वंद युद्ध का वर्णन है।”
मित्रो ! जिस देश का ‘राष्ट्रपिता’ अपने देश के महान इतिहास के बारे में ऐसी धारणा रखता हो , उस देश के इतिहास का विलोपीकरण नहीं होगा तो और किसका होगा ? बताने की आवश्यकता नहीं कि देश की सरकारों ने देश के इतिहास के साथ गद्दारी क्यों की ?
जिस देश की सरकारों का अपनी ओर से यह गुप्त एजेंडा रहा कि महाभारत और रामायण को कल्पनिक मानना है और संपूर्ण संसार के इतिहास को मात्र 5000 वर्ष के एक सीमित दायरे में ही समेटकर देखना है , उस भारत देश में अपनी ही महान संस्कृति पर क्यों नहीं शोध होते और क्यों नहीं इतिहास पर किसी प्रकार का अनुसंधान किया जाता है ? – गांधी जी की इस छोटी सी टिप्पणी के आलोक में इस बात को सहज ही समझा जा सकता है।
इससे यह भी समझा जा सकता है कि गांधीजी गीता तो पढ़ते थे , परंतु वह गीता भारत के किसी श्रीकृष्ण नाम के महापुरुष द्वारा एक ऐतिहासिक युद्ध के प्रारंभ के पहले दिन दिया गया एक ऐतिहासिक उपदेश या संदेश न होकर अंधकार युग में किसी काल्पनिक व्यक्ति के द्वारा लिखे गए एक उपन्यास में उसके एक प्रमुख पात्र के द्वारा दिया गया एक संदेश मात्र है । गांधीजी की ‘धर्मनिरपेक्षता’ की इसी सोच ने भारत का सत्यानाश कर दिया । इससे यह धारणा रूढ़ हुई कि 2000 वर्ष पहले जब ईसाइयत का जन्म हुआ तो उससे पहले जो कुछ भी था वह कुछ-कुछ वैसा ही था जैसा बाइबल और उससे पहले की इन्हीं लोगों की धर्म पुस्तकों में लिखा हुआ था। भारत के धर्म शास्त्रों व ग्रंथों में लिखा हुआ तो सब कुछ काल्पनिक था , परंतु इन लोगों के धर्म ग्रंथों में लिखा गया सब कुछ सही था ? इस मूर्खतापूर्ण धारणा ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारे देश को अपनी ही जड़ों से काट दिया। रामायण और महाभारत के विषय में यदि गांधी जी का चिंतन राष्ट्र के अनुकूल होता तो आज भारत का इतिहास पिछले 5000 वर्ष के सीमित कालखण्ड की शिवजी की जटाओं में जकड़ा हुआ ना होता अपितु यह पिछले लाखों-करोड़ों वर्ष के अपने महान अनुसंधानात्मक कार्यों में लगा हुआ होता । सचमुच आज पिछले 5000 वर्ष से शिवजी की जटाओं में उलझी इतिहास की इस गंगा को सुदूर अतीत के मैदानी क्षेत्रों में ले जाकर प्रवाहित करने की आवश्यकता है अर्थात इतिहास का विकृतिकरण तो दूर करना ही है उसके विलोपीकरण को भी शुद्ध करना है । सचमुच इस कार्य के लिए आज फिर एक ‘भागीरथ’ की आवश्यकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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