Categories
पर्यावरण

आवश्यकता है प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की

लिमटी खरे

भारत में विज्ञान पर निर्भरता काफी हद तक कम होती दिख रही है। एक समय था जब प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम में विज्ञान को महत्व दिया जाता था। विज्ञान आओ करके सीखें नामक एक किताब अस्तित्व में हुआ करती थी। विज्ञान से संबंधित न जाने कितनी पत्र पत्रिकाएं अस्तित्व में हुआ करती थीं। शनैः शनैः विज्ञान को प्रथमिक स्तर के पाठ्यक्रम से दूर किया जाने लगा।
आज के समय में विज्ञान पर चुनौतियां मण्डराती दिख रही हैं। मनुष्य, पशु, पक्षियों, जल स्त्रोतों, वायु प्रदूषण आदि की सुरखा और संरक्षण की जवाबदेही विज्ञान पर ही आहूत होती दिख रही है। आज असमय बारिश, भूकंप, आंधी तूफान, महामारियां बड़ी समस्या के रूप में हैं, विज्ञान पर यह जवाबदेही है कि वह इन सारी चीजों से दुनिया को महफूज रखे।
कमोबेश हर साल ही जनवरी से मार्च माह तक खेतों में खड़ी फसल पर ओला, पाला, बारिश की मार पड़ती है। मौसम आखिर क्यों बदल रहा है। लगभग डेढ़ दो दशक पहले इस तरह के हालात नहीं रहा करते थे। जाहिर है मौसम के इस परिवर्तन को समझने में हम नाकाम ही रहे हैं।
आज देखा जाए तो वैज्ञानिकों का ध्यान हटा दिया गया है मूल बुनियादी आवश्यकताओं से। कहीं न कहीं बुनियादी जरूरतों, समस्याओं से हम भागते ही दिख रहे हैं। आज विज्ञान का उपयोग उपभोक्तावादी वस्तुओं और सेवाओं के लिए शोध में ज्यादा किया जाने लगा है, जबकि आज मूलभूत आपदाओं के निदान को खोजने की महती जरूरत है। आज कोरोना कोविड 19 का कहर भारत पर साफ दिखाई दे रहा है, इसी बीच मौसम भी बार बार बिगड़ता दिख रहा है। यही सही समय है जबकि सरकारों को विज्ञान की क्या प्राथमिकता भारत में होना चाहिए, इस पर नए सिरे से विचार किया जाए।
दुनिया का चौधरी माना जाता है अमेरिका को। अमेरिका में यह बहस तेजी से चल रही है। आप चाहें तो अनेक मशहूर वेब साईट्स पर इस बहस को पढ़ भी सकते हैं। वहां विज्ञान की प्राथमिकताओं पर बहस निरंतर जारी है। विज्ञान की प्राथमिकताओं को कौन तय करता है! इस बारे में ही बहस चल रही है।
देखा जाए तो विज्ञान की प्राथमिकताओं को उस वक्त की सरकारों और सियासी हालातों के द्वारा तय किया जाता है। एक समय था जबकि लोगों की जरूरतों के हिसाब से विज्ञान को चलाया जाता था। अब हालात बदल चुके हैं, सियासी लोगों के द्वारा अपने हिसाब से चीजों को परिभाषित किया जाकर विज्ञान की प्राथमिकताएं तय की जा रही हैं, जो उचित नहीं माना जा सकता है।
वर्तमान में विश्व की महाशक्ति अमेरिका हो या महाशक्ति बनने के लिए लालायित दिख रहे चीन की बात की जाए तो दोनों ही देशों में विज्ञान की दशा और दिशा को सियासी समीकरणों के हिसाब से तय किया जा रहा है। यहां यह बताना भी लाजिमी होगा कि सियासत की प्राथमिकताएं अब बाजार के हालात और उद्योगपति तय करते दिख रहे हैं।
दुनिया भर के विकसित और विकासशील देश अब वैज्ञानिक चिंतन की दिशा बदलने पर विचार करते दिख रहे हैं। भारत को वैश्विक आहट को पहचानते हुए अपना होमवर्क आरंभ कर देने का यह सही समय है। पूरे विश्व की नजरें दुनिया के मुखिया माने जाने वाले अमेरिका पर टिकी हैं, पर वह भी कोरोना से लहूलुहान होते हुए जंग लड़ रहा है, जिससे सभी की चिंता बढ़ना स्वाभाविक ही है।
अब जबकि सरकारी स्तर पर विज्ञान के मामले में ज्यादा प्रयास होते नहीं दिख रहे हैं तो आने वाले दिनों निजी स्तर पर कुछ नया सामने आ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जिस तरह मीडिया चाहे वह इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट, अपनी विश्वसनीयता खोते गए वैसे वैसे समनांतर रूप से ब्लाग, सोशल मीडिया, वेब साईट्स, यूट्यूब चेनल्स आदि ने सही और सटीक खबरों के जरिए इस शून्यता (वेक्यूम) को भरने में महती भूमिका निभाई है, उसी तरह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी आने वाले समय में कुछ नया होने लगे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
आज एक बात कहना प्रासंगिक होगा कि जब किसी आपदा या महामारी के द्वारा देशों की भौगोलिक सीमाओं की पाबंदियों को सम्मान नहीं दिया जा रहा है तो फिर विज्ञान को इस तरह देशों की सीमाओ में बांधकर रखने का क्या औचित्य है! आज समय की मांग यह है कि समय के साथ्ज्ञ ही विज्ञान, उसकी परिभाषाएं, संस्कृति आदि को भी बदला जाए ताकि किसी आपदा या महामारी के दौर में दुनिया को इसका विकल्प या निदान सभी देश के वैज्ञानिक मिलकर मित्रवत व्यवहार के जरिए खोजने के मार्ग प्रशस्त करें।
आप अपने घरों में रहें, घरों से बाहर न निकलें, सोशल डिस्टेंसिंग अर्थात सामाजिक दूरी को बरकरार रखें, शासन, प्रशासन के द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों का कड़ाई से पालन करते हुए घर पर ही रहें।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version