संगम स्नान और नाड़ी जागरण का रहस्य

एक असत्य को सुनते – सुनते परेशान हो चुके हैं कि प्रयागराज में तीन नदियों का संगम है , इसलिए उसको त्रिवेणी कहते हैं। क्या यह सत्य है ? – बिल्कुल नहीं। इस किंवदंती के अनुसार गंगा , जमुना और सरस्वती का संगम प्रयागराज में बताया जाता है । यद्यपि ऐतिहासिक प्रमाण कुछ इस प्रकार हैं कि सरस्वती नदी कभी भी उत्तर प्रदेश की सीमाओं में नहीं बही। सरस्वती के अवशेष हिमालय से निकलने के पश्चात आजकल के हरियाणा के कुरुक्षेत्र , अंबाला के आसपास से होते हुए और सिंध सागर में मिलने के खोजे गए हैं । जो कि प्रामाणिक एवं औचित्यपूर्ण भी हैं। जिससे इस बात को बल मिलता है कि सरस्वती नदी का संगम प्रयाग में नहीं है , इसलिए वह त्रिवेणी नहीं है। वहां केवल दो नदियों का संगम है – यमुना व गंगा का।
इसके उपरांत भी धर्म के ठेकेदार बने कुछ लोग और कुछ दुकानदार संगम में स्नान करने के लिए पहुंचे श्रद्धालुओं को बहका देते हैं कि तीसरी नदी नीचे पाताल से आकर के मिलती है। अब इस पर विश्वास करके आप चलते रहे तो त्रिवेणी कहते रहोगे और यदि प्रश्न कर दिया कि नीचे से नदी कभी नहीं मिलेगी तो यह आस्था का विषय है , इसमें बहस नहीं होती – ऐसा कहकर आपका मुंह बंद कर दिया जाएगा।
वस्तुतः प्रयागराज प्राचीन काल से ही भारत वर्ष में एक आध्यात्मिक एवं धार्मिक नगरी रही है । जहां पर भारद्वाज ऋषि सदृश अनेकों ऋषियों ने अपनी तपस्थली बनाई थी ,जो दोनों नदियों के संगम के पास थी। भारद्वाज ऋषि जैसे महात्मा से अपनी आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति की प्यास बुझाकर के लोग गंगा व यमुना के संगम पर स्नान ध्यान करते थे , और गंगा का पवित्र पानी पीते थे । अपने आपको धन्य मानते थे । यहीं से यह प्रथा बन गई कि वहां तीन नदियों का संगम होता है वास्तव में वह तीन नदी हैं कौन सी ? वह कहां बहती हैं ? और उनका संगम किस प्रकार से होता है ? उनमें नहाने से मुक्ति कैसे होती है ?

यह आध्यात्मिक विषय है जिस पर आज चर्चा करते हैं । इन्हीं ऋषियों ने सदियों तक दोनों नदियों के संगम पर अपनी कुटिया में रहते हुए विश्व को ज्ञान बांटा।
समाज को यह दिशा और ज्ञान तत्कालीन ऋषियों ने दिया की मनुष्य शरीर के अंदर जो तीन नाड़ियां इडा पिंगला और सुषुम्णा होती हैं , इन तीनों नदियों का जागृत करना जीवन को सफल बनाने के लिए, जीवन को धार्मिक और आध्यात्मिक बनाने के लिए तथा मृत्यु से पार पाने के लिए अर्थात मोक्ष प्राप्त करने के लिए आवश्यक है ।
हमारे शरीर के अंदर इड़ा ,पिंगला ,सुषुम्ना तीनों नाड़ियां रीढ़ की हड्डी के आस पास रहती हैं जो मस्तिष्क से नीचे तक रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ फैली हुई हैं । इन तीनों नाड़ियों में इडा नाड़ी शांति प्रदाता मानी गई है । जैसे चंद्रमा शांत है और वह हमको औषधियों के रस प्रदान करता है , इसलिए इस नाड़ी को सोम अथवा चंद्र शक्ति भी कहते हैं। ईश्वर द्वारा रचित शरीर की बड़ी क्लिष्ट और बहुत ही अद्भुत रचना है।
मनुष्य ने बहुत आविष्कार किए हैं । बहुत जोर लगाए लेकिन ईश्वर की इस रचना का आज तक मनुष्य के पास कोई उत्तर नहीं है । कृत्रिम अंग लगाने पर वह फेल हो जाते हैं , लेकिन ईश्वर के बनाए हुए अंग फेल नहीं होते।
इडा और पिंगला नाड़ियों के बंद करने से प्राण सुषुम्णा में पहुंचता है। इडा ,पिंगला और सुषुम्णा तीनों नाड़ियों का संगम करने के लिए पद्मासन के द्वारा महाबंध लगाया जाता है । पद्मासन की मुद्रा में बैठने से ही इन तीनों नाड़ियों का संगम संभव होता है।
ऊपर के प्रस्तरों में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि योगासन और प्राणायाम द्वारा शरीर की शक्तियों का इंद्रियों के द्वारा जो बहिर्गमन होता था उसे हम निरोध करके अंतर्मुखी कर देते हैं । तत्पश्चात कुंडलिनी जागरण, इडा ,पिंगला व सुषुम्णा के संगम से प्राप्त होता है। इसी से प्राण ऊर्ध्व गति को प्राप्त होता है । वीर्य शक्ति जब रीढ़ की हड्डी के माध्यम से ऊपर चढ़ने लगती है और हमारे मस्तिष्क में जाकर बुद्धि के अनुसंधानों में व्यय होने लगती है , तब ऐसे व्यक्ति को ऊर्ध्वरेता कहा जाता है । रेता वीर्य शक्ति को कहा जाता है।
जब कोई साधक योग की मुद्रा में बैठा हुआ इस अवस्था को पहुंचता है तो उसकी रीढ़ की हड्डी में मूलाधार चक्र में एक प्रस्फुरण सा होता है और मस्तिष्क में दिव्य आलोक दिखाई पड़ता है । इसी को ऊर्ध्व गति को प्राप्त कर लेने के कारण साधक का कुंडलिनी जागरण कहा जाता है । इसी को आजकल कुंडलिनी जागरण कहते हैं। प्राणशक्ति को उर्धवरेता बनाने के लिए प्राणायाम का निरंतर अभ्यास करना और श्वास प्रश्वास के साथ ओ३म का जाप करने से ध्यान को एक जगह उन्नत अवस्था में लगाने से ऐसा संभव हो सकता है। इसके निरन्तर अभ्यास करने से मूलाधार चक्र में प्रस्फुरण की होने वाली अनुभूति बहुत महत्व रखती है । उससे कई बार साधक भयभीत भी हो जाता है , परंतु वास्तव में उसका प्रस्फुरण ही मानो साधक की साधना की पराकाष्ठा है । यह प्राण को ऊर्ध्व मुख करने की प्रारंभिक स्थिति है।
हमारे शरीर में आठ चक्र व नौ द्वार होते हैं । नौ द्वारों में दो आंखें, दो नाक , दो कान, एक मुख , मलद्वार और उपस्थ होते हैं। जबकि आठ चक्रों में मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र ,मणिपुर चक्र, मनष् चक्र ,अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र सम्मिलित हैं ।
ये आठों चक्र हमारे शरीर में भिन्न भिन्न प्रकार की अनुपम एवं अकल्पनीय शक्तियों के केंद्र बिंदु होते हैं। मूलाधार चक्र से लेकर अन्य सभी चक्र रीढ की हड्डी के मूल से प्रारंभ होकर उसके ऊपरी भाग तक करीब-करीब साथ – साथ जुड़े होते हैं । बिना प्रयास किए कोई सा भी चक्र विकसित नहीं होता। ये सबके सब अविकसित रहते हैं। लेकिन जब प्राणायाम के माध्यम से, यौगिक क्रियाओं से उर्जा तथा उत्तेजना पाकर ये चक्र ऊर्ध्वमुख होकर विकसित होते हैं तो मनुष्य का पूर्ण विकास होता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होने लगता है।
मनुष्य को दिव्य ज्योति का अनुभव होने लगता है और आनंद की प्राप्ति होने लगती है । मनुष्य उसी आनंद की प्राप्ति में प्रतिक्षण खोया – खोया सा रहता है । उस आनंद की झलक मात्र मिलने से साधक सारे दिन के लिए ऊर्जावन्त हो जाता है । जिसे उसका स्थाई अनुभव होने लगता है , उसके तो कहने ही क्या ? उसके लिए दुनिया अब कुछ भी नहीं रह जाती है। उसके अंतर्मन में विवेक जागरण हो जाता है । विवेक से वैराग्य या विरक्ति का भाव बनता है , विरक्ति से श्रद्धा जन्म लेती है और श्रद्धा से फिर भक्ति परवान चढ़ती है । निरंतर योगाभ्यास एवं उपासना और साधना करने से ही इस स्थिति को मनुष्य प्राप्त कर सकता है। शरीर और आत्मा दोनों क्या है ? जब साधक इस बात को समझ लेता है तो उसे विवेक हो जाता है , जब इनका सत्य समझ में आ जाता है तो उसे धीरे-धीरे संसार से विरक्ति उत्पन्न होने लगती है । विवेक वैराग्य में परिवर्तित हो जाता है । उसका मन संसार से भर जाता है । तब वह हृदय से उस परमपिता परमेश्वर के साथ जुड़ता है । जुड़ने के उसी भाव को श्रद्धा कहते हैं । जब यह श्रद्धा स्थिर हो जाती है , तब वह भक्ति में परिवर्तित होती है।
रीढ़ की हड्डी के माध्यम से ऊर्ध्वरेता बने साधक की तीनों नाड़ियों का संगम हमारी गर्दन के ऊपर उस भाग में जाकर होता है जहां रीढ़ की हड्डी समाप्त होती है और जहां से मस्तिष्क का क्षेत्र प्रारंभ होता है । मानो यहां पर यह तीनों नाड़ियां प्रकाश की लौ बन जाती हैं । यहीं पर ज्योतिषमति नाड़ी होती है । उसके जागृत होते ही एक दिव्य प्रकाश यहां पर साधक को दिखाई देता है । यहीं पर तीनों का संगम होता है , जिससे आज्ञा चक्र तेज से दमक उठता है अर्थात माथे पर दिव्य तेज लालिमा आ जाती है।
इड़ा और पिंगला नाड़ियों के मध्य में सुषुम्णा नाड़ी होती है। इसी सुषुम्णा नाड़ी को विद्वान लोग सरस्वती कहते हैं ।पिंगला को यमुना कहते हैं ।और इड़ा को गंगा कहते हैं। तीनों का संगम ज्योतिषमति में जाकर होता है।
सुषुम्ना नाड़ी रीढ की हड्डी के पास सर्प के आकार में रहती है । जिसका ऊपरी किनारा मस्तिष्क से जुड़ा होता है और नीचे का किनारा मूलाधार चक्र के पास होता है। इसी नाड़ी में से सूक्ष्म ,अति सूक्ष्म नाड़ीयों का जाल हमारे शरीर में बिछा हुआ है। जो प्रतिक्षण बिना विश्राम किए कार्य करते रहते हैं । इसी के दोनों तरफ इडा , पिंगला नाडिया होती है। मानव के शरीर में ज्ञान प्रक्रिया के सम्मिश्रण से बनी जीवनी शक्ति के प्रसार का मुख्य साधन सुषुम्ना नाड़ी है।
इन तीनों का संगम ही वास्तविक संगम है ,जो प्रयागराज में नहीं होता बल्कि हमारे शरीर में त्रिवेणी का संगम होता है।
इसलिए हमारे शरीर में आज्ञा चक्र तीर्थराज है।
प्रयागराज में स्नान करने से पाप नहीं धुलते बल्कि आज्ञा चक्र में ध्यान करने से व्यक्ति पाप से विमुख हो जाता है । ध्यान रहे कि पाप विमुख हो जाना पाप से मुक्ति नहीं है। पाप मुक्त तो किसी प्रकार हो ही नहीं सकता। पाप से मुक्ति तो कर्म के फल को भोगने के पश्चात ही होती है। कहा गया है कि :-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। प्रत्येक जीव को अपने किये हुए अच्छे एवं बुरे कर्मों के फल को भोगना पड़ता है। फिर गंगा स्नान से पाप कैसे नष्ट होता है ?
गीता में कहा गया है कि‘ज्ञानाग्नि: सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरूते तथा।’’
अर्थात् ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि (प्रारब्ध कर्म को छोडकर) समस्त शुभाशुभ कर्मों को भस्म कर देती है।
इसी ब्रह्म ज्ञान का हो जाना नाड़ी जागरण है। इसी ज्ञान गंगा में डुबकी लगा लेना सरस्वती स्नान कर लेना है ।
उसमें जो आनंद की अनुभूति होती है उस अनुभूति को प्राप्त करने वाला वह व्यक्ति स्वयं भी नहीं बता सकता । सचमुच वह वर्णनातीत और शब्दातीत है। ऐसे व्यक्ति को सर्वत्र शांति सुख और संतोष एवं आनंद का अनुभव होता है । उसमें से अच्छी ऊर्जावान किरणें निकलती हैं । जिससे ऐसे व्यक्ति के साथ बैठने से दूसरे लोगों को भी शांति एवं आनंद की अनुभूति होती है। ऐसे व्यक्ति को आत्मिक एवं आध्यात्मिक लाभ निरंतर प्राप्त होता रहता है।शारीरिक ,मानसिक ,बौद्धिक एवं अन्य शक्तियां में वृद्धि हो जाती है। ऐसे सिद्ध योगी में दिव्य गुण आने लगते हैं , क्योंकि उसके अंदर दिव्य शक्तियों का जागरण होने लगता है। जगत में लोग उसके अनुयायी हो जाते हैं।
इसलिए प्रयागराज का संगम छोड़कर तीनों नाड़ियों इडा, पिंगला, सुषुम्णा का संगम उक्त रीति से करें और अपना जीवन सफल बनाएं।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत

Comment: