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संपादकीय

मनमोहन जी: अब शस्त्राग्रह और युद्घ करो

manmohan1998 की वह घटना जब इलियास कश्मीरी नाम का आतंकवादी भारतीय सीमा में घुसा और भारत के एक सैनिक की गर्दन काटकर ले गया। बाद में उसे तत्कालीन पाकिस्तानी सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ ने इस ‘साहसिक कार्य’ के लिए एक लाख का पुरस्कार देकर सम्मानित किया। कारगिल युद्घ में कैप्टन सौरभ कालिया की आंखें पाक सैनिकों ने निकाल लीं थीं, अन्य  शहीद भारतीय सैनिकों के शवों को भी बुरी तरह से क्षत विक्षत किया गया था। अब एकदम ताजा घटनाक्रम पर आईए-हैदराबाद में मजलिस ए.इत्तेहादुल मुसलमीन के विधायक अकबररूद्दीन ओवैसी ने राष्ट्रद्रोह की भाषा अपनायी और भड़काऊ भाषण दिया कि मुसलमानों को 15 मिनट के लिए भी खुला छोड़ दिया जाए तो हिंदुओं का सफाया कर देंगे। पाकिस्तान की क्रिकेट टीम भारत में आयी और मैच जीत कर गयी। उसका उत्साह और पाकिस्तानी आवाम का उत्साह देखते ही बनता था।अब अपने विषय पर आईए। 1998 में पाकिस्तान जैसा था वह उससे भी पहले अपने
जन्मकाल में भी वैसा ही था, और उससे भी पहले हिंदुओं के सर कलम करने का जो एक दर्दनाक लंबा इतिहास हमें मिलता है वही वो कुसंस्कार है जिसने 1947 में पाकिस्तान को जन्म देने में सहायता दी। पाकिस्तान को यह कुसंस्कार घुट्टी में मिला और उसने 1947 से 2013 तक इसी कुसंस्कार पर ही कार्य किया है-यानि भारत के साथ अपनी दोस्ती को इसी कसौटी पर तोलने का कार्य किया है। उसकी कार्यशैली और शत्रुता की पुरानी भावना में तनिक भी परिवर्तन नही हुआ है। कट्टरता या उदारता एक विचारधारा हुआ करती है। इसी से व्यक्ति का, समाज का तथा संबंधित राष्ट्र का निर्माण हुआ करता है। भारत का निर्माण संस्कारों से हुआ है और पाकिस्तान का जन्म एक घृणा से हुआ है। इसी मौलिक अंतर के कारण दोनों देश परस्पर शत्रु हैं। लेकिन भारत की उदारता का अर्थ दुष्ट की दुष्टता को सहते रहना कदापि नही रहा है। यह देश अहिंसा प्रेमी अवश्य है, लेकिन यह देश रामायण काल से ही यह भी जानता और मानता आया है कि ‘भय बिन प्रीति नही होती। ‘षठे षाठयम् समाचरेत्’ अर्थात दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना ही शोभनीय होता है। भारत सदा ही इस विचार धारा का उपासक रहा है:-
आह भरने से नही सय्याद पर होता असर। टूटता पाषाण है पाषाण के आघात से।। यह दुर्भाग्य रहा इस देश का कि इसकी आत्मा को कुचलकर और उस पर अपनी अपनी मान्यताओं का मुलम्मा चढ़ाकर उसे कैद में डालने वाले लोगों का शासन 1947 से ही शुरू हो गया। सचमुच वह आजादी के क्षण नही थे बल्कि बर्बादी के क्षण थे लेकिन हमने बर्बादी की पीड़ा को आजादी के ढोलों की आवाज में किसी को सुनने ही नही दिया। 1947 से पाकिस्तान घृणा के कुसंस्कार से पलने लगा तो हमने अपने राष्ट्रीय पौरूष और चरित्र पर अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता का पक्षाघात स्वयं ही डाल लिया। तब से हम इसी पक्षाघात से पीडि़त लुंज पुंज
नेतृत्व से शासित होते आ रहे हैं और देखते आ रहे हैं कि पाकिस्तान के परमाणु बम के बदले रसगुल्ले बनाने का काम सीमा के इस पार होता आ रहा है। यहां से रसगुल्ले पैक करके भेजे जा रहे हैं और वो बराबर हमारे सर कलम करते जा रहे हैं। मनमोहन सिंह ने हमें सबसे अधिक निराश किया है। देश के दुर्भाग्य और अपने सौभाग्य से इस पीएम को जितना अधिक समय मिल गया है वह देश के इतिहास के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। सारा देश आज पाकिस्तानी सैनिकों के दुस्साहस को लेकर व्यथित और विचलित है, लेकिन मनमोहन सिंह ने सारे दुख भरे घटनाक्रम को बयानबाजी और पाक उच्चायुक्त को
बुलाकर फटकार लगाने की दुर्बलता सूचक कार्यवाही तक सीमित करके रख दिया है। मुंबई की आतंकी घटना के बाद से देश पाकिस्तान की नौटंकी को देखता आ रहा है। वह भारत के खिलाफ दुस्साहस भरी एक से बढ़कर एक वारदात करता है और फिर कह देता है कि सबूत दो। भारत के ‘मौन मोहन’ मौन होकर रह जाते हैं, इधर भारत के गृहमंत्री को देखिए जनाब रक्षा बजट में कमी करने का प्रस्ताव कर रहे हैं। उधर चीन की हरकतों को देखिए कि वह पाकिस्तान की पीठ पर बैठा सब कुछ करा रहा है और पश्चिमी सीमा पर यदि भारत के सैनिकों के सर कलम होते हैं तो सुदूर उत्तर या पूर्व की दिशा में हिमालय की चोटियों पर तभी
एक विशाल दैत्य की काली आकृति उभरती है जो भारत की नेतृत्व शक्ति पर व्यंग्य पूर्ण अट्टहास करती है। उस अट्टहास पर बांग्लादेश नाम का चूहा ऊंची ऊंची छलांग लगाता है और भारत के नेता देश को डराते हैं कि देश अभूतपूर्व संकटों के दौरे से निकल रहा है। इन नेताओं का निर्माण उस छदम अहिंसावाद से हुआ है जिसने 1962 में चीन के हाथों पराजय झेली थी और बाद में फिर सारों ने बैठकर रोना शुरू किया था, अपने आप ही नही रोये थे बल्कि सारे देश से कहा था-ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी।….जब
वीर सावरकर गांधी से कह रहे थे कि गांधी जी देश को बुद्घ (अहिंसावादी सोच) की नही युद्घ की आवश्यकता है और सत्याग्रह की नही अपितु शस्त्राग्रह की आवश्यकता है, तब उस व्यक्ति को राष्ट्रद्रोही कहा जा रहा था, इस पर किसी ने ध्यान नही दिया था कि सावरकर एक व्यावहारिक बात कह रहे थे और
राष्ट्र के भविष्य के दृष्टिगत एक नीतिगत भी कह रहे थे। युद्घ और शस्त्राग्रह को यदि 1947 से ही हमारे पक्षाघात से त्रस्त नेता राष्ट्रीय नीति के रूप में अपना लेते तो आज जो कदम कदम पर हमें अपमानित होना पड़ रहा है वह न होता। तनिक ध्यान दें-The place where the undeserved persons are respected,and deserved persons are insulted,there three things-famine,terror and death, come into existense. यहां अपूज्यों का पूजन किया गया है तो आतंक की ये घटनाएं तो होनी ही हैं।
हम मानते हैं कि युद्घ और शस्त्राग्रह कभी भारत की विस्तारवादी और साम्राज्यवादी नीतियों का या विश्व में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अन्य देशों को डराने धमकाने की नीतियों का अंग नही बना है और ना ही बनना चाहिए। लेकिन दुनिया में अपने आपको बचाये रखने के लिए युद्घ और शस्त्राग्रह की नीति की अनुपालना करनी पड़ती है। एक हाथ में डंडा हो और दूसरे में प्यार की थपकार हो तभी आपकी बात को सुना व समझा जाता है-अन्यथा नही।कैप्टन कालिया के पिता 12 वर्ष से अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में जाने के
लिए सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन उन्हें कहीं से भी न्याय नही मिला है। अब हमारी सरकारों की सोच ही ऐसी बन गयी लगती है कि देश में घटनाएं घटित होती हैं और लोग शोर मचाते हैं। देर सवेर पहली घटना शांत हो जाती है फिर दूसरी घटित हो जाती है। बेहतर है कि धर्मनिरपेक्ष रहते हुए घटनाओं के प्रति पूरी तरह उदासीन रहो और कुछ मत कहो- सब शांत हो जाएगा। बहुत सी घटनाएं ‘मौन मोहन’ सरकार ने इसी प्रकार निकाल दी हैं। अब सैनिकों के ताजा बलिदान पर भी इसी प्रकार का नजरिया
सरकार की ओर से आ रहा है। बड़े शर्म की बात है कि जिस अमेरिका की ओर हम पाकिस्तान की दुश्मन भरी हरकतों के बाद शिकायती अंदाज में देखते हैं और पाकिस्तान को ऐसी हरकतों से बाज रखने हेतु अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाते हैं वही अमेरिका अपने आतंकियों को पाकिस्तान के दिल में जाकर और बिना किसी पूर्व सूचना के मार डालता है। जबकि हमें संयम बरतने की सीख देता है। हमें अमेरिका की ओर देखने की बजाए अमेरिका से शिक्षा लेनी चाहिए। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए छदम नीतियों का परित्याग करना ही पड़ेगा। ओवैसी ने जो कुछ कहा है वह कुछ मायने रखता है उसकी सोच के पीछे कौन लोग हैं, यह देखना पड़ेगा। पाक टीम क्रिकेट जीतकर जाए और अगले ही दिन हमारे सैनिक का सर कलम किया जाकर पाकिस्तान जीत का जश्न मनवाए तो इसके भी कुछ अर्थ हैं। जिसे मनमोहन सरकार हमें अनर्थ और व्यर्थ बता रही है-अर्थ उन अनर्थों और व्यर्थों में छिपा है। दामिनी की साहसिक मौत पर चल रहे राष्ट्रचिंतन को और उससे उपजी बहस को राष्ट्रीय पटल पर बड़ी शीघ्रता से कई घटनाओं ने मोड़
दे दिया और हम उधर सोचने में लग गये हैं-इतनी देर में ही दामिनी हमसे ओझल हो गयी है। सचमुच हम भारतीयों को भूलने की बड़ी घातक बीमारी है। धीरे धीरे दामिनी यूं ही ओझल हो जाएगी और हम देखेंगे कि भारतीय शहीदों का खून भी धीरे धीरे पानी समझकर यूं ही भुला दिया जाएगा। क्या ये सब चीजें हमारे राष्ट्रीय चरित्र में शामिल हो गया हैं।
राष्ट्र संकल्पित है, परंतु नेता प्रकंपित है।
है विस्मयकारी स्थिति हर मन अचंभित है।।
मनमोहन! उठो अब शस्त्राग्रह और युद्घ करो।
शत्रु रण में खड़ा है, सारा भारत आंदोलित है।

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