Categories
महत्वपूर्ण लेख

आज के इस दौर में आम आदमी की बात कौन उठाएगा?

आशीष वशिष्ठ
देश के आम आदमी की बात आखिरकर कौन करेगा ये यक्ष प्रश्न है। राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता या फिर मीडिया। आम आदमी किसी की प्राथमिकता नहीं है। अगर देश के किसी कोने से आम आदमी के लिए आवाज उठती है तो उसमें स्वार्थ की चासनी लिपटी होती है। नि:स्वार्थ भाव से कोई आम आदमी के दु:ख-दर्द, परेशानियों व दुश्ववारियों को उठाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। पिछले एक दशक में जितने भी सामाजिक आंदोलन आम आदमी की परेशानियों व संकटों को दूर करने के लिए हुए उन सब का परिणाम जगजाहिर है जनता की समस्याओं का कोई दूरगामी ठोस उपाय करने की बजाय सामाजिक संगठन और कार्यकर्ता सरकारी मशीनरी से सांठ-गांठ, मोल-भाव और तालमेल बिठाते दिखते हैं। सरकारी स्तर पर वोट बैंक को ध्यान रखकर योजनाएं चलाई और बंद की जाती हैं। आम आदमी की परेशानियों का स्थायी हल खोजने की बजाय फौरी कार्रवाई और आंखों में धूल झोंकने पर सरकार का जोर रहता है। स्वतंत्रता के 65 वर्षों में आम आदमी की परेशानियां कम होने की बजाय बढ़ी हैं यह कड़वी सच्चाई है। सरकारी फाइलों में तो आम आदमी और गरीब भरपेट खाना खा रहे हैं, बच्चे काम करने की बजाय स्कूल पढऩे जा रहे हैं, महिलाएं सुरक्षित हैं और उन्हें समाज में उचित स्थान मिल गया है, बुजुर्ग सुरक्षित व खुशहाल हैं, नौजवान रोजगार में लगे हैं, भू्रण हत्या, बाल श्रम, बाल वेश्यावृत्ति, विधवा विवाह का उन्मूलन हो चुका है। दहेज हत्या और बलात्कार की घटनाओं पर प्रभावी रोक लग चुकी है। खेतों में सिंचाई का पानी उपलब्ध है, किसान खुशहाल हैं, मजदूर संतुष्ट हैं और नागरिक सुरक्षित हैं। गुण्डे, बदमाश जेलों में सड़ रहे हैं। कहानी का सार यह है कि सावन की अंधी सरकार को हर ओर हरा ही हरा दिखाई दे रहा है। सरकारी चंदे, सहायता और सम्मान की भूखी सामाजिक संस्थाएं और उनके कर्ता-धर्ता सरकारी मशीनरी की हां में हां मिलाते और गर्दन हिलाते दिखाई देते हैं। जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है लेकिन सरकारी तंत्र और अमला आंकडेबाजी से लोगों को मन बहला रहा है।
भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया था कि दिल्ली से विकास के लिए चला एक रुपया नीचे तक पहुंचने में दस पैसे में तब्दील हो जाता है। पिछले दो दशकों में जिस तरह से भ्रष्टाचार के हाइड्रोजन और परमाणु बम फटे है उससे ये आभास होता है कि दिल्ली से चला रुपया नीचे पहुंचता ही नहीं है हवा में उसकी लूट हो जाती है। यूपी में बसपा शासन काल में हुआ राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के साढे पाँच हजार के घोटाले ने भ्रष्टाचार की किताब में नया अध्याय तो जोड़ा ही है वहीं यह भी साबित किया है कि किस तरह राजनीतिक दल और सरकारी मशीनरी आम आदमी के स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले पैसे से अपनी जेबें भरती है। घोटालों, घपलों की लंबी कतार है, नित नए भ्रष्टाचार के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। केन्द्र से लेकर राज्यों तक आम आदमी के हिस्से के पैसे को मिलकर सफेदपोश और सरकारी तंत्र लूट रहा है। इस भ्रष्ट, नाकाम और नपुंसक व्यवस्था, तंत्र और ताने-बाने में आम आदमी की कोई चिंता करेगा ऐसा सोचना भी निरर्थक और बेमानी है।
पिछले एक दशक के सामाजिक आंदोलनों का इतिहास खंगाला जाए तो बहुसंख्य आंदोलनों में जनता की ताकत का प्रयोग निजी स्वार्थ साधने के लिये ही हुआ। जनता का नेतृत्व सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों ने ही किया। इक्का-दुक्का छोडकऱ एक भी आंदोलन अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाया। चालाक और भ्रष्ट व्यवस्था ने सीधे-सादे मामलों को जलेबी की तरह घुमावदार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नर्मदा और टिहरी बांध के आंदोलन हमारे समक्ष हैं। इन आंदोलनों का नेतृत्व करने वालों का कद तो जरूर बढ़ा लेकिन सरकार ने आम आदमी को कुछ हासिल नहीं हुआ। पर्यावरणविद, वैज्ञानिक, सामाजिक संगठन खूब चिल्लाए लेकिन सत्ता हाथी की चाल से चलती रही और उसने जो सोचा था वही किया। जन लोकपाल कानून और काला धन वापस लाने के चले आंदोलनों का हश्र देशवासी भूले नहीं हैं। दो-चार दिन चिल्लाने के बाद सामाजिक संगठन, कार्यकर्ता और मीडिया शांत होकर बैठ जाता है या फिर किसी दूसरे मुद्दे के पीछे भागने लगते हैं। टीम अन्ना और रामदेव ने आम आदमी का जगाया हिलाया लेकिन भ्रष्ट सत्ता ने इन आंदोलनों की हवा निकाल कर ही दम लिया। टीम अन्ना का एक धड़ा राजनीतिक दल बना बैठा और रामदेव ने भी राजनीति में आने के संकेत दिये हैं अर्थात भ्रष्ट सत्ता ने भ्रष्टाचार के कीचड़ में उन्हें फिसलने का विवश कर आम आदमी की आवाज को कुंद करने का काम किया। यह विडंबना है कि आजादी के लंबे वक्त के बाद भी जनता कभी इसके, कभी उसके पीछे भागती, पिटती और लुटती रही और उसकी हालत में तिनका भर भी परिवर्तन नहीं आया। आबादी का बड़ा हिस्सा बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। देश में 64 फीसदी आबादी को शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है तो देश के बड़े हिस्से में पीने का साफ पानी मुहैया नहीं है। गांवो में वैसे तो बिजली के खंभे ही नहीं पहुंचे अगर गलती से खंभा लग गया तो बिजली को ईद का चांद समझिए। वो अलग बात है कि उदारीकरण का गाना गा रही सरकार का पूरा जोर हर हाथ में मोबाइल थमाना है। हजारों गांवों में बच्चे ढिबरी की रोशनी में कच्ची-पक्की पढ़ाई पूरी करते हैं और सरकार का जोर आईटी सिटी और टेबलेट बांटने पर है। किसान खुदकुशी कर रहे हैं और सरकार जीएम बीजों और विदेश व्यापार समझौतों में व्यस्त है। करोड़ों के पास एक वक्त खाने के दाने नहीं है, तन ढकने का कपड़े नहीं है, सर्दी-गर्मी से मरने वालों का संख्या अच्छी खासी है तो सडक़ किनारे, फुटपाथ पर खुले आसमान के नीचे रात बिताने वालों की संख्या करोड़ों में है। ये किसी फिल्मी कहानी का हिस्सा नहीं है बल्कि वो कड़वी हकीकत है जिससे देश का आम आदमी हर दिन दो चार होता है। सारे कानून नियम, सिद्धांत, अनुशासन और सख्ती आम आदमी के हिस्से में है सत्ताधारी, नौकरशाह और उनके इर्द-गिर्द रहने वालों की फौज मौज उड़ा रही है। बालश्रम, बाल वेश्यावृत्ति, बाल विवाह की गर्म हवाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। मजदूरों का शोषण बढ़ा है तो वहीं बेरोजगार युवक अपराध की काली सडक़ पर चलने को विवश है। बच्चे स्कूल की बजाय काम करने को मजबूर हैं। युवतियों और महिलाओं का घर से निकलना मुश्किल हो रहा है। महिलाएं सुरक्षित नहीं है। आम आदमी के लिए चलने वाली हजारों योजानाएं का लाभ किसे मिल रहा है ये किसी को मालूम नहीं है। चीनी से हेलीकाप्टर घोटाले तक हर मामले में सत्ता भ्रष्टाचार के कीचड़ में सनी है। भ्रष्टाचार से परिपूर्ण वातवारण में सरकार, सामाजिक संगठन और मीडिया आम आदमी की चिंता नहीं कर रहा है तो आखिरकर कौन आम आदमी के दु:ख-दर्दे दूर करेगा और उसकी आवाज को उठाएगा। दामिनी बलात्कार कांड में बिना किसी नेतृत्व के सडक़ों पर उतरकर जनता अपनी बहादुरी और समझदारी का परिचय दे चुकी है। अब वक्त आ चुका है किसी दूसरे के कंधे का प्रयोग करने की बजाय जनता अपनी लड़ाई खुद लड़े तभी उसे अधिकार और स्वतंत्रता मिल पाएगी।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version