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धर्म को कोसने से पहले धार्मिकता को समझें

मनोज ज्वाला

कॉरोना संक्रमण के बढ़ते विस्तार के साथ बौद्धिक वैचारिक विवाद भी बढ़ता जा रहा है । कुछ लोग तैंतीस कोटि देवी-देवताओं की ओर से कॉरोना-उन्मूलन का कोई चमत्कार न किये जाने पर सवाल उठाने लगे हैं तो कुछ लोग धार्मिक मान्यताओं पर। कुछ लोग अस्पतालों की कमी का सवाल उठा भी उठा रहे हैं। लेकिन इनकी बुद्धि वहां नहीं जा पा रही है जहां कोई देवी-देवता नहीं हैं और अस्पताल तो एक से एक हैं- सर्वसुविधा-सम्पन्न। लेकिन फिर भी यूरोप-अमेरिका में कॉरोना का संक्रमण और संक्रमितों का चिकित्सीय कुप्रबंधन भारत से कई गुणा ज्यादा है। बावजूद इसके अपने देश के इन बुद्धिबाजों को कॉरोना की भयावहता से निजात पाने में आनेवाली कठिनाइयों के लिए देवी-देवताओं के आख्यानों पर उंगली उठाना ही मुनासिब समझ में आ रहा है। किन्तु उन्हें यह सच समझ में नहीं आ रहा है कि इस कॉरोना-संक्रमण की भयावहता को अस्पतालों की बहुलता कम नहीं कर सकती है। जबकि सनातन देवी-देवताओं के आख्यानों में अभिव्यक्त शिक्षाओं को लोग अगर आत्मसात कर चुके होते और धार्मिक कर्मकाण्डों की सूक्ष्म वैज्ञानिकता को नजरंदाज कर उन्हें महज पाखण्ड नहीं समझ रहे होते तो कॉरोना जैसी त्रासदी से इतना भयभीत कतई नहीं होना पड़ता। यह त्रासदी प्रकृति-प्रदत हो या चीन के कम्युनिस्ट हुक्मरानों की धूर्त्त बुद्धि से व्युत्पन्न ; किन्तु इसकी भयावहता एक प्रकार की दैवीय विभीषिका ही प्रतीत हो रही है। ऐसा इस कारण क्योंकि इसका संक्रमण प्राकृतिक आपदा विकरालता व भयंकरता के समान ही है। साथ ही उन्हीं देशों में सर्वाधिक है जहां प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व पर आधारित सनातन धार्मिक जीवन-शैली का तिरस्कार करते हुए प्रकृति-विरोधी जीवन-पद्धति रच-गढ़कर सम्पूर्ण सृष्टि को मनुष्येत्तर प्राणियों से विहीन कर देने वाली अधार्मिकता को अंगीकार किया गया है।जिन देवी-देवताओं से सनातन धर्म का बोध होता है उनपर कटाक्ष कर अपनी बौद्धिकता झाड़ने वालों को पहले धार्मिकता और अधार्मिकता को समझ लेना चाहिए। जीवन जीने की जो पद्धति धारण करने योग्य है वही धर्म है और वही जीवन-पद्धति धारण करने योग्य है या हो सकती है। जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी हो ; जबकि मनुष्य का कल्याण व्यष्टि से लेकर समष्टि तक मनुष्येत्तर प्राणियों के सह-अस्तित्व से समस्त विश्व-वसुधा व सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण में ही सन्निहित है। क्योंकि अन्य प्राणियों-वनस्पतियों के बिना मनुष्य का जीवन सुखमय कतई नहीं हो सकता। अतएव ऐसी जीवन-पद्धति ही धर्म है जो समस्त सृष्टि को सनातन स्रष्टा का ही विराट रूप अर्थात ब्रह्म-स्वरूप समझकर समस्त प्राणियों-वनस्पतियों के सह-अस्तित्व को आत्मसात करती है। धर्म रूपी इस जीवन-पद्धति का अनुसरण ही धार्मिकता है। ठीक इसके विपरीत सृष्टि को सनातन ‘ब्रह्म-स्वरूप’ के बजाय किसी ‘अब्रह्म’ (अब्राहम) की कायनात और मनुष्य को किसी एड्म या आदम की औलाद मान समस्त मनुष्येत्तर प्राणियों सहित सम्पूर्ण सृष्टि को सिर्फ आदमी के भोग-उपभोग की वस्तु मान प्रकृति के विरुद्ध शत्रुवत व्यवहार करने वाली जीवन-पद्धति सर्वकल्याणकारी नहीं है। एक ने आदमी को ‘अशफरूल मक्खल्लुकात’ कहकर उसे अभक्ष्य का भी भक्षण करने में लगा दिया ; तो दूसरे मजहब ने ‘डार्विनवाद’ के सिद्धांत को अपना कर सबलों के द्वारा निर्बलों के शोषण को वैधता प्रदान कर दिया। परिणाम यह हुआ कि एडम/आदम की औलादों ने प्रकृति को रौंद डालने और समस्त प्राकृतिक उपादानों-संसाधनों को अपनी मुट्ठी में कर लेने का अभियान-सा चला दिया, जिसकी परिणति दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के रूप में दुनिया देख चुकी है। इन दोनों मजहबों की दृष्टि में आदमी सर्वभक्षी सामाजिक पशु (सोशल एनिमल) है, जिसके लिए वनों को उजाड़ना और मानवेत्तर जीव-जन्तुओं को मारकर खाना मानवीय सभ्यता की तरक्कीशीलता है। इन मजहबियों ने सारी दुनिया में मांसाहार को इस कदर फैला दिया कि पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए आवश्यक ‘जैव विविधता’ के समक्ष असंतुलन का भारी संकट खड़ा हो गया है।इसी धार्मिकता व अधार्मिकता के भाव-स्रोत से सम्पन्न जीवन-पद्धति को भारतीय ज्ञान-परम्परा में धर्म व अधर्म कहा गया है। धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है जो सनातन धर्म, वैदिक धर्म अथवा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है । इसे आप मानवधर्म भी कह सकते हैं ; क्योंकि मानवोचित भी यही है, जो हमें ‘ईशोपनिषद’ के एक मंत्र के रूप में “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्” की उदार व व्यापक दृष्टि प्रदान करता है। अर्थात “जड़-चेतन समस्त प्राणियों-वनस्पतियों वाली यह सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे , परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव से करे और इसके उलट भाव से इनका संग्रह न करे।” धार्मिकता को व्याख्यायित करने वाले वेद में वर्णित शांतिमंत्र के शब्दों पर आप गौर करें तो पाएंगे कि धर्म तो मामूली तृण व चिंटी से लेकर नदी-पर्वत व हाथी-पर्यंत समस्त जीव-जगत की शुभता के अनुकूल जीवन जीने की दृष्टि प्रदान करता है।इन दिनों चीन देश से उत्पन्न जिस कॉरोना-संक्रमण की मार सारी दुनिया को झेलनी पड़ रही है सो चीनियों की अभक्ष्य-भक्षण से युक्त अधार्मिक जीवन-शैली अथवा सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेने को उद्धत वहां के कम्युनिज्म की अधार्मिकता का ही परिणाम है। जबकि यह संक्रमण उन्हीं लोगों को ज्यादा ग्रस रहा है जो मांसाहारी हैं। भारतीय वांगमय में देवासुर संग्राम के जो आख्यान वर्णित हैं सो सृष्टि-क्रम के अनुकूल और प्रतिकूल जीवन-पद्धति का वरण करने वाले देव-पक्ष व असुर-पक्ष के बीच धर्म व अधर्म का ही परस्पर संघर्ष है, जो सभी युगों में होता रहा है और अन्ततः धर्म की ही विजय होती रही है। धर्म व मजहब दोनों को एक समझना भ्रांति है और इसी कारण आज के इस कॉरोना-संकट से घबराये हुए कतिपय लोग धर्म एवं धर्म को अभिव्यक्त करने वाले देवी-देवताओं को कोस रहे हैं जो सर्वथा अनुचित है। इस संक्रमण-युद्ध में धर्मधारी भारत की विजय सुनिश्चित है।

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