असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय

बाबा रामदेव ने अपनी विलुप्त होती जा रही चिकित्सा प्रणाली को पुनर्जीवन देकर लोगों को ध्यान आयुर्वेद की ओर मोडऩे में भी भारी सफलता प्राप्त की है।

वेद कहता है :–

असूर्या नाम ते लोका अंधेन तमसावृता:।

तांस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जना:।।

(यजु. अ. 40)

अर्थात जो लोग आत्मा के विरूद्घ कार्य करते हैं, वे अज्ञान रोग शोक युक्त अंधकार के मार्ग पर चल रहे हैं। ऐसे लोगों का मृत्यु के पश्चात पुनरागमन चलता ही रहेगा। वे जीवन-मरण के दो पाटों के बीच पिसते ही रहेंगे। यह क्रम तब तक चलेगा जब तक कि मुक्ति नही हो जाती। इस प्रकार मृत्यु भी एक भयंकर रोग है, जिससे मुक्ति पाना जीव का और मनुष्य मात्र का जीवनोद्देश्य है। इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति का अर्थ है-सभी प्रकार के रोग व शोक से मुक्त हो जाना, छूट जाना। वेद का यह मंत्र स्पष्ट कर रहा है कि अज्ञान अंधकार के मार्ग पर जाने वाले लोग जिधर जा रहे हैं उधर अंधकार ही अंधकार है। उस अंधकार को अपने सामने गहराता देखकर ही व्यक्ति का आत्मा कह उठता है :—

असतो मा सदगमय

तमसो मा ज्योर्तिगमय।

मृत्योर्माम्अमृतंगमय।। (उपनिषद)

आत्मा की खोज ईश्वर के लिए रहती है। इसलिए वह अज्ञानांधकार में भटक रहे प्राणी को सचेत करते हुए अपने प्रियतम से मिलने के लिए झकझोरती है और कहती है कि यदि प्रत्येक प्रकार के रोगशोक से मुक्त होना चाहता है तो गतानुगतिकमार्ग को छोडक़र अपने वास्तविक जीवन ध्येय को पहचान, अपने वास्तविक मार्ग का अनुकरण कर और असत्य से सत्य की ओर अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर चल। इसी से तेरे जीवन को रोग-शोक से मुक्ति मिलेगी।

हमारे वैद्य लोग व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ रखने के लिए उसे भी उसी मार्ग का पथिक बनाया करते थे जो उसके शरीर की आरोग्य साधना को पूर्ण कराने वाला होता था। किसी भी कारण से व्यक्ति की जीवन गाड़ी यदि पटरी से उतर जाती थी तो वैद्य लोग उसे सहारा देकर फिर उसी पटरी पर डाल देते थे और वह फिर गाने लगता था :—

‘‘ओ३म् असतो मा सद्गमय…..।।’

हमारे ऋषि-मुनि आरोग्यता की प्राप्ति के लिए नदियों के संगम पर जाते थे, नदियों के तटों पर जाते थे और वहां बैठकर साधना किया करते थे। इलाहाबाद संगम के प्रति लोगों की आस्था यूं ही नहीं बन गयी थी, इसके भी कारण थे। नदियां हमारी मुक्ति में सहायता करती थीं। यजुर्वेद का ही मंत्र है-

उपहवरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्

धिया विप्रोअजायत्।।

अर्थात पर्वतों के समीप और नदियों के संगम पर अर्थात जहां पर नदियों का मिलन हो रहा हो ऐसे दिव्य स्थानों पर योग साधना करने से योगाभ्यासियों को मेधा बुद्घि की प्राप्ति होती है, जिससे साधक आत्मचिंतन करता हुआ जीवन के परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।

आजकल लोग संगमों पर मेले लगाते हैं और बड़ी भारी भीड़ में वहां धक्कामुक्की करते-कराते घर लौट आते हैं। संगम तट पर शौचादि करके उसे अपवित्र करते हैं। इससे लोगों को शांति के स्थान पर अशांति ही मिलती है, पर वह अंधश्रद्घा के नाम पर ये सब कर आता है। संगम तट पर ऐसे आयोजकों का कोई उद्देश्य या प्रयोजन हमारे पूर्वजों का नहीं रहा। उन्होंने तो वेद की आज्ञा का पालन करते हुए संगम तट पर ध्यान लगाने का उपक्रम रचा, जिससे इस जीवन का कल्याण हो सके।

हमारे पूर्वज ऋषियों ने जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को पाने के लिए वेद की उपरोक्त आज्ञा का पालन करते हुए संगम तट पर शांत एकांत स्थानों का और अपनी झोंपडिय़ों का निर्माण किया था। जिनमें वह बैठकर जीवन की साधना करते थे और मोक्ष प्राप्त लेते थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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