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इतिहास के पन्नों से

महर्षि दयानंद का वह राष्ट्रवादी वंदनीय स्वरूप और महाशिवरात्रि

ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार 12 फरवरी सन 1824 को ग्राम टंकारा मोरवी राज्य गुजरात में पिता कर्षन तिवारी जी के यहां बालक मूल शंकर का जन्म हुआ । यही बालक आगे चलकर ऋषि दयानंद के नाम से विख्यात हुआ । 1838 ईस्वी में शिवरात्रि के दिन सच्चे शिव का बोध जब इस बालक को हुआ तो उसके साथ ही समझो सारे भारत को ही शिव का बोध हो गया था । क्योंकि 1838 के ठीक 19 वर्ष पश्चात 1857 में भारत में स्वाधीनता संग्राम व्यापक स्तर पर लड़ा गया । जिसे अंग्रेजों ने एक गदर कहा। परंतु सावरकर जी ने उसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहकर 18 57 की क्रांति के रूप में स्थापित किया । इसमें महर्षि दयानंद का विशेष योगदान था । 18 57 की क्रांति के इतिहास को यदि सही करके लिखा जाए और उसमें महर्षि दयानंद और उनकी गुरु परंपरा को उचित स्थान दिया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि 1838 में महाशिवरात्रि के दिन मूल शंकर के साथ-साथ हमारे देश को भी राष्ट्रबोध , शिवबोध व आत्मबोध हो गया था ।

1857 की क्रांति के समय स्वामी ओमानंद जी महाराज की अवस्था 160 वर्ष थी । स्वामी पूर्णानंद जी महाराज की अवस्था उस समय 110 वर्ष , स्वामी विरजानंद जी महाराज की अवस्था 79 वर्ष और महर्षि दयानंद की अवस्था 33 वर्ष थी । चारों ही महापुरुषों का 1857 की क्रांति में विशेष योगदान रहा। यह बहुत ही अधिक दुर्भाग्य का विषय है कि ऋषि दयानंद जी महाराज के राष्ट्रबोध परक कार्यों की सर्वथा उपेक्षा की गई है और उन्हें ‘वेदों वाले बाबा’ तक सीमित करके रखने का प्रयास किया गया है। जबकि वह ‘राष्ट्र वाले बाबा ‘ भी थे ।यदि उनके ‘राष्ट्र वाले बाबा ‘ के स्वरूप को प्रकट किया जाए तो यह निश्चित है कि फिर किसी भी गांधी का यह साहस नहीं होगा कि वह इस देश का राष्ट्रपिता कहला सकें।

उत्तम राष्ट्र की संकल्पना और अधिक स्पष्ट होती है, महर्षि दयानंद ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हमारे देश को अथर्ववेद की भाषा में यह बताया कि पृथिवी, जन, संस्कृति मिलकर राष्ट्र बनता है। तेज और बल राष्ट्र भावना को पुष्ट करते हैं। (अथर्ववेद 12.3.10)

महर्षि दयानंद ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने शोभामय कृति से निर्मित संस्कृति को फिर से प्रकट कर इस देश के प्रत्येक व्यक्ति को शोभामय व्यक्तित्व और शोभामय कृतित्व के लिए प्रेरित किया। शोभामय व्यक्तित्व और शोभामय कृतित्व से ही आर्यत्व का निर्माण होता है जो इस देश की मौलिक विचारधारा है, इस देश का मौलिक स्वरूप है , इस देश का मौलिक चिंतन है। अपने इसी महान चिंतन के आधार पर महर्षि दयानंद ने कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का संदेश न केवल भारत को बल्कि विश्व को दिया और वसुधैव कुटुंबकम को अपने जीवन का आदर्श बनाकर भारत के इस अमर संदेश को संपूर्ण भूमंडल पर फैलाने का महान कार्य किया।

तनिक कल्पना करें कि यदि वह महाशिवरात्रि महर्षि दयानंद के जीवन में न आई होती तो आज भारत के योग को , भारत के वेद को और भारत की संस्कृति के मूल चिन्तन कृण्वन्तो विश्वमार्यम् और वसुधैव कुटुंबकम की पवित्रकारीणी भाषा और परिभाषा को यह संसार कैसे समझ पाता ?

यहां पर यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यदि 160 वर्षीय स्वामी ओमानंद जी महाराज और उनके साथ 110 वर्षीय पूर्णानंद जी महाराज 18 57 की क्रांति से पहले उन तीन सभाओं का आयोजन नहीं करते , जिनमें प्रशिक्षित मल्लों और योद्धाओं को छांट छांट कर 1857 की क्रांति के लिए तैयार किया गया था , और उस सारी योजना में गठीले शरीर के स्वामी दयानंद साथ न दे रहे होते तो तो इस देश का इतिहास कैसा होता ? निश्चित रूप से हमें महाशिवरात्रि को हमारे देश के जागरण के लिए घटित हुई एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में स्थान देना चाहिए।

महर्षि दयानंद के राष्ट्रपरक महत्वपूर्ण कार्यों का लोहा उनके आलोचकों ने भी माना है । जब वह इस असार संसार से गए तो प्रेरक ‘हिन्दी प्रदीप (प्रयाग) ने स्वामी दयानंद जी महाराज के देहांत पर अपने श्रद्घा सुमन निम्न प्रकार अर्पित किये थे- ”हा! आज भारतोन्नति कमलिनी का सूर्य अस्त हो गया। हा ! वेद का खेद मिटाने वाला सद्घैद्य गुप्त हो गया। हा ! दयानंद सरस्वती आर्यों की सरस्वती जहाज का पतवारी बिना दूसरों को सौंपे तुम क्यों अंतर्धान हो गये? हा ! सच्ची दया के समुद्र…..कहां चले गये ? ”

इसी प्रकार उर्दू पत्र ‘देशोपकारक ‘ (लाहौर) ने अपनी भावांजलि को इस प्रकार शब्दों में पिरोया था-”दिवाली की रात गो मसनूई चिरागों से रोजे रौशन है, लेकिन हकीकी आफताब गरूब हुआ। हम बिल्कुल नादान थे। वह हमें हर एक चीजें शनाख्त कराता था। हम कमताकती से उठ नही सकते थे, वह हमें उठा सकता था। हमने अपना नंगोंनामूस गंवा दिया था, वह हमें फिर दिलवाना चाहता था। ऐ खुदा हम तुझसे बहुत दूर हो गये थे वह हमको तुझसे मिलना चाहता था। ”

‘विक्टोरिया पेपर ‘ (स्यालकोट) ने भी अपना दुख इस प्रकार प्रकट किया था-”एशिया कौचक हमें मुखतालिफ जलजलों के आने और जावा के आतिशाफिशां पहाड़ों के फट जाने से स्वामी दयानंद का इन्तकाल कम अफसोस की जगह नही है, क्योंकि ऐसे लायक शख्स का जीना जिसका सानी इल्म संस्कृत में कोई न हो, लाखों आदमियों की जिंदगी पर तरजीह रखता है।…. स्वामी दयानंद नाम के संन्यासी नही थे।

दीपावली की अमावस्या की रात्रि में जब सारा संसार गहन निशा में निमग्न था, तब भारत अपने नाम के अनुरूप संसार से अज्ञानान्धकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए सर्वत्र दीप जला रहा था। तभी काल की क्रूर नियति ने व्याकरण का महान सूर्य और वेदों का प्रकाण्ड पंडित, देशोद्वारक, पतितोद्वारक, स्त्री जाति का सच्चा हितैषी, मानवता का अनुरागी, राष्ट्रचेता, राष्ट्रधर्म प्रणेता, आदि दिव्य गुणों से सुभूषित महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज को हमसे छीन लिया। ”

आज आर्यसमाज के लिए अपने अंत:करण में झांकने का समय है। अपने आपसे ही कुछ पूछने का समय है। प्रश्न भी टेढ़े- मेढ़े नही अपितु सपाट सीधे कि ‘ऋषि मिशन भटका या हम भटके, हमारी वाणी कर्कश हुई या हम रूखे फीके और नीरस हो गये ? अंतत: हम ऋषि के राष्ट्र जागरण को एक दिशा क्यों नही दे पाए ? बहुत से प्रश्न, इतने प्रश्न कि झड़ी लग जाए। अनुत्तरित प्रश्न और अनसुलझे रहस्यों से भरे प्रश्न, जो लोग महर्षि के आर्य समाज को किन्ही विशेष लोगों तक समेटकर देखते हैं वे संकीर्ण हैं, उनसे भी बड़े संकीर्ण वे लोग हैं जो आर्य समाज को एक अलग सम्प्रदाय घोषित करते हैं, या ऐसा कराने की मांग करते हैं, और उनसे भी बड़े संकीर्ण वे हैं जो आर्य समाजों को किन्ही जाति विशेष की बपौती बनाकर प्रयोग कर रहे हैं।

तनिक विचार करें 1875 में ऋषि दयानंद ने क्या कहा था और हम क्या कर बैठे ? ऋषि ने कहा था-”भाई हमारा कोई स्वतंत्र मत नही है। मैं तो वेद के अधीन हूं और हमारे भारत में पच्चीस कोटि (तब भारत की जनसंख्या करोड़ थी और उस सारी जनता को ही ऋषि आर्य कह रहे हैं) आर्य हैं। कई-कई बात में किसी-किसी में कुछ-कुछ भेद है सो विचार करने से आप ही छूट जाएगा। (ऋषि कितने आशावादी हैं और साथ ही कितने सरल कि कुछ-कुछ भेदों को सम्प्रदाय का भेद नही मान रहे हैं) मैं संन्यासी हूं और मेरा कत्र्तव्य है कि जो आप लोगों का अन्न खाता हूं, इसके बदले में जो सत्य समझता हूं, उसका निर्भयता से उपदेश करता हूं। मैं कुछ कीर्ति का राही नही हूं। चाहे कोई मेरी निंदा करे या स्तुति करे, मैं अपना कत्र्तव्य समझ के धर्म बोध कराता हूं। कोई चाहे माने वा न माने, इसमें मेरी कोई हानि या लाभ नही हो।”

ऋषि अपना मत वेदाधीन रखकर चल रहे थे इसलिए उन्होंने कहा कि मेरा कोई स्वतंत्र मत नही है। परंतु आज स्थिति शीर्षासन कर गयी है। बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज वेद विरूद्घ आचार विचार और आहार विहार ने कार्यों की गति और मति दोनों ही भंग कर दी हैं। नये -नये सम्प्रदाय नये-नये मत और भांति भांति के पाखण्ड नित पैर पसार रहे हैं और आर्य समाज सो रहा है। पदों पर गिद्घों की भांति लड़ रहे हैं, सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के एक से अधिक स्वरूपों को देखकर लगता है संसार को आर्य नही अनार्य बनाने का बीड़ा हमने उठा लिया है। यही स्थिति आर्य समाजों की है। किसी भी पौराणिक को अपना शत्रु सम माना जाता है, उसके देवता को अपशब्दों में संबोधित करना हमने गर्व का विषय बना लिया है। इसलिए हमारे सम्मेलनों का नाम चाहे ‘विशाल आर्य सम्मेलन रखा जाए पर वहां उपस्थिति केवल 40-50 लोगों की ही होती है। वक्ता की वाणी में विनम्रता का अभाव होता है, सहज सरल और विनम्र भाव से अपनी बात को लोगों के हृदय में उतारने वाले ‘महात्मा आनंद स्वामी अब इस संस्था के पास न के बराबर हैं। गांव में जाकर आर्य सम्मेलन करने वाले आर्योपदेशक स्वामी भीष्म जी जैसे वेद प्रचारक भी अब नही हैं। गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना कर हजारों देशभक्तों की कार्यशाला आरंभ कर ‘हिंदू संगठन के निर्माता और नियामक स्वामी श्रद्घानंद भी नही रहे, अब तो हिंदू कहने-कहाने पर भी संग्राम आरंभ हो जाता है। ऋषि की विनम्रता नही ली और ना ही ऋषि का मण्डनात्मक चिंतन लिया। सत्यार्थ प्रकाश को विपरीत दिशा से पढऩा आरंभ कर दिया है और सारा बल खण्डनात्मक चिंतन पर लगा दिया गया है। जिससे लगता है कि आर्य समाज दूसरों की केवल निंदा करता है। इससे आगे कुछ नही करता और ना कुछ कर सकता है।

फिर भी निराशा की कोई बात नहीं है। अच्छा कार्य करने वाले लोग आज भी हैं ।आवश्यकता केवल अच्छे लोगों को पहचान कर एक मंच पर लाने की है। गिद्धों की छंटनी करने का समय है , स्वार्थी पदलोलुप लोगों को हटाकर और भगाकर महर्षि मिशन को अच्छे हाथों में देने की आवश्यकता है। संभावनाएं आज भी अनंत हैं । हमें सार्थकतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाकर आशावादी होना ही चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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