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संपादकीय

सावरकर को साम्प्रदायिक कहना अज्ञानता है

जब भारतीय स्वातन्त्रय समर के इतिहास का प्रक्षालन कोई गंभीर, जिज्ञासु और राष्ट्रप्रेमी पाठक करेगा और उसे भारतीय इतिहास सागर की गहराई से सावरकर नाम का रत्न हाथ लगेगा तो वह निश्चित रूप से प्रसन्न वदन होकर उछल पड़ेगा, उसे चूमेगा और अपने मस्तक को झुकाकर उसका वंदन, अभिनंदन और नमन करेगा। क्योंकि ऐसे रत्न विश्व इतिहास की धरोहर होते हैं। उन्हें अपने हाथों स्वचक्षुओं से पढ़कर देखना सचमुच गौरव, गर्व और हर्ष का विषय होता है। 220px-V_D_SAVARKARइस देश का यह सौभाग्य रहा और सौभाग्य है कि इस अनमोल हीरे पर उसका एकाधिकार है, जो कि राष्ट्र और विश्व की धरोहर है और जिसे कोई चुनौती नही दे सकता। नि:संदेह यह हीरा आज भी इतिहास में जिस तेज के साथ चमक रहा है उसके सामने संसार के सभी हीरों की चमक फीकी पड़ जाती है इस हीरे ने हिंदू महासभा में प्रवेश करते समय कहा था-
जब तक मेरे देह में रक्त की एक बूंद भी शेष है, मैं अपने को हिंदू कहूंगा और हिंदुत्व के लिए हमेशा लड़ता रहूंगा। इसलिए इस अप्रतिम हीरे पर आज भी प्रत्येक राष्ट्रवादी, देशवासी को बड़ा गर्व है। सन 1937 ईं. में वीर सावरकर का हिंदू महासभा में आगमन इस संगठन और हिंदू समाज के लिए एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। जिस समय वीर सावरकर जी का शुभागमन हुआ उस समय ब्रिटिश भारत सरकार और मुस्लिम लीग दोनों ही तेजी से देश को विभाजन की ओर ले जा रहे थे। कांग्रेस राष्ट्रवाद के महत्वपूर्ण बिंदु पर अस्पष्ट और ढुलमुल थी। इसलिए उसकी ओर से जो संकेत मिल रहे थे उनसे स्पष्ट था कि वह देर सवेर भारत विभाजन को भी स्वीकार कर लेगी। इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए प्रबल विरोध की आवश्यकता थी। हिंदू महासभा की ओर से सक्षम, सबल, और समर्थ नेता के नेतृत्व में सफल आंदोलन के लिए देश का हिंदू समाज बड़ी लालायित दृष्टि से देख रहा था। ऐसी विषम परिस्थितियों में- ‘स्वातन्त्रय के प्रचेता और राष्ट्रवाद के प्रणेता, हिंदुत्व के ध्वजवाहक और हिंदू धर्म के प्रसारक, हिंदू इतिहास के व्याख्याता और हिंदू संस्कृति के प्रचारक और उद्भट प्रस्तोता स्वातन्त्रय वीर सावरकर का प्रादुर्भाव हिंदू महासभा के लिए ‘वरदान’ सिद्घ हुआ।’अपने इस नेता के नेतृत्व में हिंदू महासभा को लगा कि उसे संशय और संदेह की तंग दीवारों के मध्य निराशा की गहन निशा में अंधेरे को चीरते हुए सूर्य के दर्शन हो गये। सावरकर स्वयं में एक प्रभावशाली और ओजस्वी, वक्ता, साहित्यकार, लेखक, दार्शनिक और राजनीति के ऐसे महान मनीषी थे कि जो मंच पर पहुंचते ही ज्वार उत्पन्न कर देते थे।
उन्होंने अण्डमान (काला पानी) की सजा की कठोरतम यातनायें झेली थीं। 23 दिसंबर सन 1910 ईं. को उन्हें दो जन्मों का अर्थात 55 वर्ष का कारावास उस क्रूरतम ब्रिटिश सरकार ने दिया था। किंतु चट्टïान की भांति अपने निर्णय पर अडिग रहने वाले इस महान देशभक्त को ये यातनाएं अपने उद्देश्य से विचलित नही कर पायीं। रत्नागिरि में स्थानबद्घता के पश्चात सन 1937 ई. में उन्हें निशर्त रिहा कर दिया गया। इनकी रिहाई के पश्चात भारतीय नेताओं ने इनका भव्य स्वागत और अभिनंदन किया। कांग्रेस की ओर से पंडित जवाहर लाल नेहरू और सी. राजगोपालचार्य ने तथा हिंदू महासभा की ओर से भाई परमानंद जी ने उनसे संपर्क साधा और अपने अपने दलों में सम्मिलित होने का निवेदन किया। उन्होंने कांग्रेस का निमंत्रण सविनय ठुकरा दिया और देश सेवा के लिए हिंदू महासभा के मंच को ही अपने लिए उपयुक्त समझा। 30 दिसंबर सन 1937 ई. को हिंदू महासभा का 19वां अधिवेशन कर्णावती (अहमदाबाद) में आहूत किया गया। इसकी अध्यक्षता के लिए भाई परमानंद ने वीर सावरकर का नाम प्रस्तावित किया और उनका परिचय एक महान देशभक्त तथा राजा के रूप में कराया। इस पर सभी उपस्थित प्रतिनिधियों ने जोरदार तालियों से अपने महान नेता का स्वागत किया। वीर सावरकर जी ने अपने ओजस्वी भाषण में हिंदू शब्द की नई परिभाषा दी। जिसे उन्होंने अपनी ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक में दिया था। उन्होंने कहा-
आसिन्धु सिंधुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका।
पितृभू: पूण्य भूयश्चैव सर्ववै हिंदू रीति स्मृत:।।
अर्थात वह प्रत्येक व्यक्ति हिंदू कहलाने का अधिकारी है जो कि भारत वर्ष को मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता और स्वीकार करता है। यह परिभाषा बड़ी विस्तृत परिभाषा है। इससे हिंदू एक देश विशेष का अथवा सम्प्रदाय विशेष का व्यक्ति नही हो सकता। संसार के किसी भी कोने में रहने वाला व्यक्ति यदि भारत के प्रति उपरोक्त भावों से भरा हुआ है, और उक्त शर्तों को पूरा करता है तो वह पूजा पद्घति में पृथक होकर भी हिंदू कहला सकता है। हिंदू एक विशुद्घ जीवन प्रणाली है। इस जीवन प्रणाली को विकसित करने में युगों की तपस्या मूल रूप में कार्य कर रही है। जिन ऋषियों, संतों, महात्माओं और योगी पुरूषों ने अपने तप, त्याग और साधना से इस जीवन प्रणाली का विकास किया उन सबका आभार व्यक्त करते हुए उन्हें अपना पितृ स्वीकार करना आवश्यक है। उनके योगदान को नमन करना आवश्यक है। जिन राजा, महाराजाओं, सम्राटों ने इस जीवन प्रणाली का विस्तार किया और अपने छात्र बल से इसका रक्षण, संरक्षण, संवर्द्घन किया उनका योगदान भी अभिनंदनीय है। इसलिए उन्हें भी अपना पितृ मानना प्रत्येक हिंदू के लिए आवश्यक है। इसके अतिरिक्त भारतवर्ष की यह पावन और पुण्य भूमि भी वंदनीया, नमनीया और प्रात: स्मरणीया है जिस पर इन युग पुरू षों ने जन्म लिया और अपने उच्च और मानवीय कार्यों से मानवता की सेवा की। एक लंबे काल खण्ड में बिखरी भारतीय संस्कृति के प्रति अपने उदात्त भाव रखने वाले व्यक्ति को सावरकर जी ने स्वाभाविक हिंदू माना। उन्होंने बड़े ही निर्भीक शब्दों में कहा था कि-‘कुछ हमारे सच्चे लोग भी जो देशभक्त, हैं बिना सोचे समझे हिंदू महासभा को एक साम्प्रदायिक संस्था होने का झूठा प्रचार करते हैं। क्योंकि यह केवल हिंदूवाद का प्रतिनिधित्व करती है और साथ ही हिंदू अधिकारों की रक्षा करती है। यदि हिंदू महासभा हिंदू राष्ट्र का ही प्रतिनिधित्व का दावा करती है….., यह सत्य है कि पृथ्वी हमारी मातृभूमि और मानवता हमारा राष्ट्र है। इसके अतिरिक्त वेदांती कहते हैं पूरा संसार ही उनका देश है और सभी व्यक्त जगत की वस्तुएं नक्षत्र से पत्थर तक सब अपना ही है। परंतु सही अर्थों में भारतीय देशभक्तों के लिए यदि कोई न्याय संगत (उपाय) है तो वह यह है कि सभी भारतीयों को समान वंशावली, समान भाषा, समान संस्कृति और समान इतिहास के सूत्र में बांधने का प्रयास करें। भारत तभी एक सूत्र में बंधेगा जब उक्त सभी शर्तों का विस्तार होगा। सावरकर जी का मंतव्य था कि अलग अलग सम्प्रदायों के नाम पर अलग अलग पहचान खड़ी करना राष्ट्रीय परिवेश को गंदला करना होगा। इसलिए भारतीय संस्कृति में व्याप्त मानवतावाद को अपने चिंतन का आधार बनाना चाहिए। हम अपनी कृत्रिम पहचानों को भारतीय संस्कृति के पवित्र घाट पर तिरोहित कर दें और केवल मानवता को अपना राष्ट्र घोषित कर दें। इस भाव से जो परिवेश जन्म लेगा वह हम सबके लिए उचित और उपयुक्त होगा। उन्होंने मानवता को अपना राष्ट्र माना। इस बात को देश के चाटुकार इतिहासकारों ने प्रचारित नही किया। इस अत्यंत उच्च चिंतन से उदभूत उत्कृष्ट बात पर भी अक्षम्य चुप्पी साधी गयी, क्योंकि उनकी सोच में कृत्रिम पहचान के बने रहने का अर्थ था समाज में विखण्डनकारी मनोवृत्ति को प्रोत्साहन मिलना। हिंदू मुस्लिम एकता के लिए कांग्रेस की परंपरागत नीति थी-तुष्टिकरण और अंग्रेजों की नीति थी-फूट डालो और राज करो, इसी तरह मुस्लिमों की मुस्लिम लीग की नीति थी-हमारी मांगें मानो और अपने अधिकारों को सीमित करो, तब भी हम आपके साथ रहें या न रहें यह हमारी इच्छा है। हिंदू महासभा की नीति थी कि तुष्टिकरण किसी का न हो, राष्ट्रधर्म निर्वाह के प्रति सभी कर्त्तव्यबद्घ हों और राष्ट्रवाद के समक्ष सम्प्रदायवाद नगण्य हों। वीर सावरकर का चिंतन भी बड़ा स्पष्ट था। उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता के लिए प्रयासों को उचित माना किंतु फिर भी यह कहा कि इस हिंदू मुस्लिम एकता के लिए केवल हिंदुओं को ही लगन लगी हुई है। जिस दिन से हमने उनके मन में यह भ्रम उत्पन्न कर दिया है कि हिंदुओं के साथ सहयोग करने का उपकार जब तक वे नही करते तब तक स्वराज्य मिलना असंभव है, उसी दिन से हमारे सम्मानवीय नेता समझौते को सर्वथा असंभव कर बैठे हैं तब सावरकर जी ने कहा था- हमें हिंदू मुस्लिम एकता के लिए मुसलमानों के पीछे नही भागना चाहिए। बल्कि आओगे तो तुम्हारा स्वागत है, नही आओगे तो तुम्हारे बिना स्वराज्य तो हम लेंगे ही, अगर विरोध करोगे तो मैं हिंदू राष्ट्र तो अपना भविष्य निर्माण करेगा ही। ऐसा स्पष्ट चिंतन और विचार अभी तक मुसलमानों के लिए किसी ने भी नही दिया। इसीलिए बिगडै़ल बच्चे की भांति मुस्लिम वर्ग अपना मूल्य बढ़वाता जा रहा था और कांग्रेस की ओर से ऐसा दर्शाया जा रहा था कि उनके बिना स्वराज्य की कल्पना भी नही की जा सकती। किंतु सावरकर जी ने कहा कि तुम साथ आते हो तो हमारी ओर से स्वागत और यदि नहीं आते हो तो तुम्हारे बिना भी स्वराज्य तो लेकर ही रहेंगे। साथ ही यह सचेत भी किया कि बिगड़ैल बच्चे की भांति लात-पैर मारना बंद करो, विरोधी बनोगे तो उसका उपचार भी वैसे ही किया जाएगा।
इसके उपरांत भी सावरकर ने 1939 में हिंदू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन में कहा था-स्वाधीन भारत के संविधान में देश के सभी नागरिकों के लिए सम्मान अधिकार और समान दायित्व की व्यवस्था होनी चाहिए, और इस प्रकार व्यक्ति एक मताधिकार और दायित्वों का स्पष्टïï निर्देश होने पर देश में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का प्रश्न ही शेष नही रहेगा।
इसके उपरांत भी सावरकर को कोई व्यक्ति साम्प्रदायिक कहे, तो यह उसकी अज्ञानता ही है।

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