औपचारिकताएँ न निभाएं
जो करें तहे दिल से
डॉ. दीपक आचार्य
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जिस प्रकार से दुनिया में डुप्लीकेट माल की भरमार बढ़ती जा रही है, चाईनीज आईटम सस्ते दामों में बाजार में छाए ही जा रहे हैं, हमारी जिन्दगी में कई सारे संसाधन और उपकरण इतने घर कर गए हैं कि उनके बगैर जीना भी कोई जीना कहा जा सकता है?चौतरफा हम जिस प्रकार आडम्बरों और कृत्रिम उपकरणों से घिरते जा रहे हैं, उसी प्रकार हमारा पूरा आभामण्डल भी आडम्बरों और कृत्रिमताओं से घिरता जा रहा हैं। हमारा चाल-चलन, चरित्र और व्यवहार तक सदैव एक सा नहीं रहता बल्कि परिस्थितियों को देखकर बदलने लगा है।साफ-साफ कहें तो हम अब मुखौटा संस्कृति को अपना चुके हैं जहां मुखौटों को देखकर अपने मुखौटे भी बदलते रहते हैं और रुपिया तथा बहुरुपिया संस्कृति गौरवान्वित होती रहती है chintanहमारे घर-परिवार से लेकर बाहरी दुनिया तक में दोहरा-तिहरा चरित्र रील की तरह सामने आता-जाता रहता है।हम और हमारे आस-पास के लोग भी अब मुखौटा संस्कृति को अपना चुके हैं। हमारे हर कार्य तथा व्यवहार में मुखौटों का आकर्षण झरने लगा है। बात अपने किसी पारिवारिक या सामाजिक मौसर या शुभाशुभ किसी कर्म की हो,अपने कर्मस्थलों की हलचलों की हो या किसी की विदाई, स्वागत अथवा अभिनंदन समारोहों और दूसरी प्रकार के किन्हीं भी कार्यक्रमों की।हर तरह आजकल मिथ्या यशगान और प्रचार, झूठी तारीफें और आधारहीन महिमामण्डन का दौर परवान पर है। ये समारोह पूरी तरह औपचारिक और आडम्बरी अभिनय के मंच ही हो कर रह गए हैं। सत्यासत्य से परे इन आयोजनों की अभिव्यक्ति का न सिर होता है, न पैर।रोजमर्रा के कामकाज में कोई आदमी कैसा ही व्यवहार करे या रखे, मगर जब कोई आयोजन होता है तब अनचाहे ही उसकी तारीफ में जाने कैसी-कैसी धाराएँ फूट पड़ती हैं, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है।कोई लच्छेदार भाषा में अभिनय कर जाता है, कोई शेरों-शायरियों और ग़ज़लों से समा बाँधते हुए उनके कशीदे पढ़ने लगता है और कोई इतना झुक-झुक कर सलाम ठोकता है कि बिचारी कावड़ भी शरमा जाए। कर्मयोगियों के लिए इस प्रकार की तारीफ का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनका कर्मयोग किसी की तारीफ या निंदा से बंधा हुआ नहीं है बल्कि यह उनकी मौलिक वृत्ति हुआ करता है और इसी से उन्हें आत्मतोष की प्राप्ति होती है।ऎसे कर्मयोगियों को न सम्मान या अभिनंदन से संतोष होता है और न ही घण्टों उनके बारे में प्रशस्ति गान से। ऎसे कर्मयोगी लोगों के मन की थाह पाह लेने में सिद्ध होते हैं।  वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऎसे होते हैं जिन्हें अपने कर्मयोग की गुणवत्ता या निश्छल व्यवहार से केाई मतलब नहीं होता बल्कि ऎसे लोग अपनी झूठी तारीफ से खुश होते हैं और फूलते चले जाते हैं।आमतौर पर ऎसे मुखौटों से वे ही प्रसन्न होते हैं जो खुद मुखौटा संस्कृति के संवाहक होते हैं। आजकल के आयोजनों में एक मुखौटा दूसरे मुखौटे को देखकर हृदय से प्रसन्न भले न हो, वाणी से तो तारीफ का समंदर उमड़ा ही देता है। फिर कई-कई आयोजनों में आदमी तो नगण्य होते हैं, मुखौटों ही मुखौटों की जमात चारों तरफ नज़र आती है।घोर विरोधी भी दिखावे के लिए एक-दूसरे की जो तारीफ करते हैं, वह आश्चर्य और आडम्बर से ज्यादा कुछ नहीं है। कई लोग तो जिन्दगी भर अपने स्वार्थों के लिए औरों की तारीफ करते-करते इतने सिद्ध हो जाते हैं कि इनके मुँह से चाहे किसी की तारीफ करवा लो फिर चाहे सामने वाला गधा, उल्लू, बिलाव, सर्प, लोमड़, भालू, गिद्ध और श्वान प्रकृति का ही क्यों न हो।आजकल ऎसे मंच संचालकों और वक्ताओं की बाढ़ आ गई है जो औरों को खुश करने और रखने के लिए अपनी वाणी का हर रंग में इस्तेमाल करने में माहिर हैं। अपनी प्रशंसा सुनने और वाहवाही कराने वालों की भी अब कहीं कोई कमी नहीं है और ऎसे लोगों की तादाद भी बढ़ती जा रही है जो अच्छे कर्मों और व्यवहार से भले खुश न हो पाए,मगर चापलुसी और मिथ्या जयगान से इतने प्रसन्न हो उठते हैं कि इनसे अपने हक़ में कुछ भी करवा लो।इस आडम्बरी अभिव्यक्ति और प्रशस्तिगान ने ही समाज का कबाड़ा कर रखा है और ऎसे-ऎसे लोग आत्म पूजनीय और अहंकार के पुतले होते जा रहे हैं जिनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में कहना ही क्या? गलती हम सभी की है जिनमें लोगों को तौलने और उनके बारे में तौल कर बोलने की क्षमता खो चुके हैं। हमें सत्य की अपेक्षा अपने स्वार्थ से ही सरोकार रह गया है।चाहे कोई सा कार्यक्रम हो, जो करें तहे दिल से करें और जिसके बारे में जो कुछ कहें साफ-साफ कहें। कटु सत्य भले न कह पाएं मगर जो अच्छी बातें कहें वह भी साफगोई के साथ कहें। कम से कम झूठी तारीफ तो न करें। दूसरी ओर जो लोग अच्छे कर्मयोगी हैं उन्हें भी अतिशयोक्तिपूर्ण तारीफ से बख्शें क्योंकि उनसे समाज को खूब आशाएँ हैं और ऎसे में प्रशस्ति गान से उनकी लोकसेवी यात्रा पर विराम लगने तथा अहंकार को आकार मिलने की पूरी संभावनाएं भी होती हैं।

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