जो हैंजैसे हैं उन्हें स्वीकारें
आत्म अनुकूलताएँ लाएं
डॉ. दीपक आचार्य
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जीवन में सभी प्रकार की अनुकूलताएं हमेशा प्राप्त नहीं होती। हमारे जीवन, आस-पास और परिवेश में जो कुछ होता है उसका हम पर अच्छा-बुरा प्रभाव निश्चय ही पड़ता है। कई बार जब अच्छी स्थितियां होती हैं तब हमें प्रसन्नता होती है और जब हमारे लिए प्रतिकूल स्थितियां आती हैं तब हम परेशान हो उठते हैं, खीज उठते हैं और कुढ़ने लगते हैं।जबकि बहुधा होता यह है कि स्थितियां या समय अच्छा-बुरा नहीं होता बल्कि हमारे मन की स्थितियां ही बदलती रहती हैं और इस वजह से हमें समय और परिस्थितियां अच्छी-बुरी प्रतीत होती हैं। जबकि एक ही प्रकार की स्थिति हमारे लिए अच्छी होती है और वही दूसरे किसी के लिए बुरी हो सकती हैं।इसके विपरीत स्थिति भी सामने आ सकती है। कई बार हम कितने ही अच्छे, कर्मनिष्ठ और ईमानदार हों लेकिन हमसे संबंधित ऊपर या नीचे के लोग बड़े खराब होते हैं। कई तो ऎसे होते हैं जिनमें मानवीयता और संवेदनाएं बिल्कुल नहीं हुआ करती हैं।ये लोग हमारे बॉस हो सकते हैं, सेठ या मालिक हो सकते हैं या अपने आकाdeepak acharya ये लोग अपने पदों का इस्तेमाल इस तरह करते रहते हैं कि दुरुपयोग की सारी सीमाओें तक को लांघ जाते हैं और इनके जीवन का धर्म और फर्ज ही यह होता है कि जितना चाहे उतना पदों का दोहन-शोषण कर लें और अधिकारो के बूते दबावों को बनाये रखते हुए वह सब कुछ करवाते रहें जो एक आम आदमी से करवा सकते हैं। भले ही आदमी का कचूमर तक क्यों न निकल जाए।

आजकल अधिकांश अच्छे लोग ऎसे ही लोगों से परेशान हैं और ज्यादातर लोगों के तनावों के लिए ऎसे ही लोग जिम्मेदार हैं जो अपने दायरों से बाहर निकल कर सब कुछ कर गुजरते हैं और अपनी खाल से बाहर निकल कर जाने किस-किस आँगन और खेत को चट कर जाते हैं।कई बार लोग अपने बोस या मालिक से परेशान होकर रोजाना बद दुआओं का सागर उमड़ाते रहते हैं, गालियां बकने को विवश हो जाते हैं तथा जितना चाहे उतना जी भर कर कोसते रहते हैं।जिन लोगों के पास अधिकार हैं उन्हें चाहिए कि वे अपने अधिकारो का इस्तेमाल मानवीय संवेदनाओं और मर्यादाओं के साथ करें और अपनी खाल में रहें। वरना लोगों की जब आह निकलने लगती है तब अपने आपको भस्मीभूत होते देखने  के सिवा कुछ नहीं कर पाएंगे। तब न हमारे अधिकार हमारी रक्षा कर पाएंगे, न पद, कद या मद।

दूसरी ओर जो लोग अपने से संबंधित आसुरी वृत्तियों वाले लोगों से संतप्त, दुःखी और पीड़ित हैं उन्हें चाहिए कि वे कुढ़ने और परेशान होने की बजाय अपने आपको या तो सहनशील बनाएं और हाथी की तरह मस्त रहें या अनुकूल समय अथवा अच्छी परिस्थितियों के आने की प्रतीक्षा करें और धैर्य बनाए रखें।आजकल अधिकतर स्थानो पर यही दशा है कि सभी प्रकार की अनुकूलताएं उपलब्ध नहीं हैं और अब वे लोग भी नहीं रहे जो भारी हुआ करते थे, जिन पर अपनी कुर्सियों और पदों का मद या अहंकार व्याप्त नहीं होता था।उन लोगों के लिए अपना व्यक्तित्व इतना भारी और ऊँचा हुआ करता था कि उनके आगे पद और प्रतिष्ठा बौने हुआ करते थे। उन लोगों से मिलकर भी औरों को प्रसन्नता और सुकून का अहसास होता था तथा पारिवारिक आत्मीयता का आभास होता था।आजकल तो कुर्सियों में धंसे रहने के आदी, पद-प्रतिष्ठा वाले लोग ऎसे दिखते हैं जैसे औरों को खाने दौड़ रहे हों या खाने के लिए ही पैदा हुए हों। आजकल के इन लोगों के पास जाने में भी भय लगता है, क्या पता कब भौं-भौं करने लगें या दाँत-सिंग दिखा दें।

इन सारी समस्याओं से निजात पाने का एक ही रास्ता है कि अपने मन को समझाएं। क्योंकि समय की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है। कारण यह कि आजकल खेप ही ऎसी आ रही है। साँपनाथ जाएंगे तो नागनाथ आ जाएंगे। ऎसे में यही है कि आत्म सहनशील बने रहें और जीवन में मस्ती को स्वीकारें। जो हलचलें बाहर हो रही हैं उन्हें मनोरंजन के रूप में ही स्वीकारें और इससे आगे गंभीरता से न  लें।

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