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संपादकीय

पी.एम. पद के प्रत्याशी की घोषणा और संविधान

भारत का संविधान कहीं भी ये घोषणा नही करता कि जब आम चुनाव हों तो किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन को अपना भावी पी.एम. पहले ही घोषित कर देना चाहिए। संविधान इस विषय में यही व्यवस्था देता है कि देश का प्रधानमंत्री वही होगा जिसे देश की संसद के निचले सदन में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत प्राप्त हो। संविधान के इस प्राविधान की आड़ में भाजपा इंदिरा गांधी के काल में कांग्रेस को इस बात के लिए कोसती रही कि कांग्रेस देश में खानदानी शासन को बढ़ावा दे रही है और पहले से ही पी.एम. की घोषणा करके वह संविधान की व्यवस्था का उपहास उड़ा रही है। अब भाजपा के नरेन्द्र मोदी को पहले पी.एम. पद का प्रत्याशी घोषित किया जाए या नही-इस पर पार्टी में ही नही अपितु देश के बुद्घिजीवी वर्ग में भी बहस छिड़ी हुई है। लोगों के अपने अपने तर्क हैं। भाजपा के पूर्व थिंक टैंक रह चुके के.एन. गोविंदाचार्य ने मोदी और राहुल गांधी दोनों को ही पी.एम. पद के लिए अयोग्य माना है, उनका कहना है कि मोदी अभी नये हैं और राहुल अभी नौसिखिए हैं PM SeaTलेकिन उन्होंने ये स्पष्ट नही किया है कि यदि ये दोनों नही तो फिर कौन? हां, उन्होंने भाजपा को यह नसीहत अवश्य दी है कि वह अपने वयोवृद्घ नेता आडवाणी की स्थिति को और भी सम्मानजनक बनाए, परंतु उन्होंने आडवाणी को भी पी.एम. पद का प्रत्याशी नही कहा है। स्पष्ट है कि गोविंदाचार्य ने कोई समाधान नही दिया है बल्कि समस्या को और भी पेचीदा और शोचनीय बनाया है। वैसे आज पी.एम. संबंधी संविधान के प्राविधानों, और राजनीति की कुछ पड़ गयीं अच्छी परंपराओं पर विचार करते हुए इस विषय पर गंभीरता से और निष्पक्षता से विचार करने की आवश्यकता है। जब हम इस प्रकार निष्पक्षता से विचार करेंगे तो पहला प्रश्न ये आता है कि क्या विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की जनता को अपने भावी प्रधानमंत्री के विषय में जानने का हक नही है, और क्या संविधान इस हक का कहीं विरोधी है? और यह भी कि जनता इस विषय में क्या सोचती है?

इस प्रश्न का उत्तर यही है कि देश की जनता अपने भावी प्रधानमंत्री के विषय में जानने का हक रखती है और संविधान देश की जनता के इस हक में कहीं भी बाधक नही है। संविधान की मंशा है कि जो व्यक्ति देश की जनता के बीच से आ रहा है उसे लोकसभा में बहुमत दल का नेता भी होना चाहिए। बात साफ है कि लेाकसभा में वो जनप्रतिनिधि पहुंचते हैं जिन्हें जनता सीधे सीधे चुनती है, अब चुने हुए प्रतिनिधियों में जनता किसी एक नेता का अक्स देखती है और उन्हें इसी उम्मीद से अपना मत देती है  कि लोकसभा में पहुंचकर अमुक व्यक्ति को देश का नेता बनाना। जैसे नेहरू के काल में हुआ, बाद में इंदिरा गांधी के काल में हुआ। ये दोनों नेता कांग्रेस के घोषित भावी पी.एम. होते थे, इसलिए इनके नाम पर लोग अपना मत देते थे और कांग्रेस के उम्मीदवारों को जिताकर भेजते थे। इस स्थिति में देश की जनता अपने भावी प्रधानमंत्री से तो परिचित रहती ही थी साथ ही उसे स्थायित्व देने वाला शासन भी मिलता था। जो लोग इस स्थिति को इंदिरा की तानाशाही का कारण भी मानते हैं, वो भूल जाते हैं कि तब भी अंतिम सत्ता जनता के हाथ में ही रहती है, और जनता ने 1977 में इंदिरा को सत्ता से चलता कर अपनी शक्ति का परिचय भी दिया था। बाद में इंदिरा जब पुन: सत्ता में आयीं तो पहले वाली इंदिरा और बाद वाली इंदिरा में जमीन आसमान का अंतर था। इंदिरा को जनमत के अनुसार शासन चलाना आ गया था। कांग्रेस ने 1980 का चुनाव इंदिरा को ही पुन: पी.एम. पद का प्रत्याशी घोषित करके लड़ा और जनता ने उन्हें इस नसीहत के साथ सत्ता सौंपी कि सावधान रहना और फिर कोई गलती मत कर बैठना। इंदिरा ने इस बात को समझा।

अब जिस देश की जनता पी.एम. को सावधान कर सकती है, उसके साथ ऐसा अलोकतांत्रिक उपहास क्यों किया जाए कि तेरे भावी पी.एम. को हम गुपचुप की पुड़िया में रखेंगे, और उसे तभी खोलेंगे जब तू अपना निर्णय सुना चुकी होगी। असमंजस की स्थिति में जनता को संविधान के नाम पर और उसकी व्यवस्था की गलत व्याख्या करके सबसे पहले 1977 में डाला गया। पांच दल फटाफट मिलकर एक हुए और बिना नेता के चुनाव में कूद गये। जीतकर आये तो मोरारजी को अपना नेता बना लिया। मोरारजी कट्टर सिद्घांतवादी थे इसमें दो मत नही, परंतु उनके नाम पर जनता की राय नही ली गयी थी इसलिए नेताओं ने ही उन्हें ‘जननायक’ नही माना और पहली बार संसद में एक निर्वाचित पी.एम. को सांसदों के सिरों की गिनती के आधार पर हटा दिया गया। असमंजस की स्थिति में जनता ने असमंजसपूर्ण जनादेश दिया था तो उसका नेताओं ने क्या अर्थ निकाला? देश को नया पी.एम. सिरों की गिनती के आधार पर चौ. चरण सिंह के रूप में मिले। पर उनके लिए सिरों की गिनती भी नही होने दी गयी और हवा में बनी सरकार हवा में ही गिर गयी, और इतिहास में दर्ज हो गयी? अब सवाल तो ये भी है कि इस प्रकार की सरकार को संवैधानिक माना जाएगा या असंवैधानिक माना जाए, जो बन भी गयी व गिर भी गयी। संविधान में ऐसी सरकार के बनाने का और गिराने का प्राविधान भी नही है। पर यहां से एक परंपरा चल गयी और उस परंपरा ने आगे चलकर कई गुल खिलाए-वीपी सिंह चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल, एचडी देवेगौड़ा, इसी रास्ते से आए और चले गये।

जिन प्रधानमंत्रियों को देश ने जनमत के बहुमत से चुना उन्होंने देश को स्थायी सरकार दी इनमें नेहरू जी, इंदिरा जी, राजीव गांधी, अटल जी का नाम उल्लेखनीय है। जबकि जिन्हें सिरों की गिनती से चुना गया उन्हें काम नही करने दिया गया और रही सही राजनीति गंदी होती चली गयी। संविधान के प्राविधान की ओट में छिपकर पाप किये गये-क्या संविधान ने उन पापों की कहीं इजाजत दी थी? अब आते हैं, पीवी नरसिम्हा राव और डा. मनमोहन सिंह पर। नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह देश की जनता की पसंद नही रहे, पर इन्होंने भी नेहरू इंदिरा के बाद देर तक शासन किया। हमें इन दोनों  विषय में याद रखना चाहिए कि इनमें से पहला परिस्थितियों की पसंद था जिसने परिस्थितियों को अपने राजनैतिक चातुर्य से अपने अनुकूल रखा और उसे यह भी पता था कि तू दुबारा पीएम नही बनेगा, इसलिए वह बिना मुस्कुराए पी.एम. बना और बिना मुस्कुराए ही पी.एम. पद से हट गया। उसके काल में कुछ लोगों को खुश रखने के लिए शासन की ओर से ढील दी गयी, फलस्वरूप देश में भ्रष्टाचार बढ़ा और जनता का पी.एम. ना होने के कारण पी.एम. उन भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कोई कठोर कार्यवाही नही कर पाया, जिनके खिलाफ जनता कार्यवाही चाहती थी कमोबेश यही स्थिति मनमोहन सिंह के लिए बनी है। यह परिस्थितियों के साथ साथ एक महिला की पसंद भी रहे हैं। चोर दरवाजे से संसद में पहुंचने वाले मनमोहन कतई भी जननायक नही हैं। वह ईमानदार होकर भी इसीलिए सर्वाधिक भ्रष्टï सरकार के मुखिया हैं। यदि इनके साथ देश की जनता का बहुमत होता और ये जननायक होते तो इनकी कार्यशैली ‘भीगी बिल्ली’ की सी नही होती।

इसलिए एक निष्कर्ष यही निकल कर आता है कि जनता को अपने भावी पी.एम. का नाम जानने का अधिकार है। भारत में गलती विपक्ष की रही है कि उसने विदेशों की तरह कभी देशवासियों को ‘छाया मंत्रिमंडल’ देने का प्रयास नही किया। विपक्ष की दाल सदा जूतों में बंटी और ये कांग्रेस को या सत्तारूढ़ दल को कोसने मात्र को ही विपक्ष की राजनीति मानता रहा, जबकि यह राजनीति विपक्ष की तो हो सकती थी परंतु इस राजनीति का ‘राष्ट्रधर्म’ से कहीं दूर दूर तक का भी संबंध नही था।

जहां तक भारत में कुछ राजनीतिक परंपराओं का प्रश्न है तो उन पर भी विचार किया जाना उचित होगा। इन में विचारणीय हैं-राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री के मनोनयन की परंपरा। दूसरे, हमारे देश का राष्ट्रपति सामान्यत: एक कार्यकाल के लिए ही चुना जाता है, ऐसी राजनीतिक परंपरा पड़ गयी है। किसी प्रधानमंत्री के हटने पर या मरने पर देश का राष्ट्रपति इतना शक्तिशाली हो जाता है कि वह जिसे चाहे पी.एम. बना सकता है। लेकिन देश में स्वस्थ राजनीतिक परंपरा बनी है कि लोकसभा में बहुमत प्राप्त व्यक्ति को ही राष्ट्रपति पी.एम. बनाएंगे। ताकि देश को अनावश्यक किसी प्रकार के राजनीतिक संकट में डालने से बचाया जा सके। देश में सभी राजनीतिक दल अलग अलग चुनावी घोषणा पत्रों पर चुनाव लड़ते हैं और बाद में किसी विशेष राजनीतिक दल को सत्ता से दूर रखने के लिए एक बेतुका राजनीतिक गठबंधन बनाते हैं और सत्ता में भागीदारी तय करके देश को लूटने लगते हैं। सत्ता में भागीदारी के माध्यम से लूट की यह परंपरा भला कौन से संवैधानिक प्राविधान की देन हैï? कुल मिलाकर कहना ये है कि जब देश में ऐसी अलोकतांत्रिक परंपराएं चल सकती हैं तो एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा देश के भावी पी.एम. को पहले ही घोषित करने के बारे में क्यों नही स्थापित की जा सकती? यह परंपरा स्थापित होनी चाहिए-जनमत को नेता प्रभावित करता है और लोकतंत्र किसी एक ऐसे नेता को बनने का स्वस्थ अवसर देता है जो संपूर्ण देश को प्रभावित कर सकता हो। संपूर्ण देश को प्रभावित करने वाला व्यक्ति ही देश को एक रख सकता है। उसका चिंतन व्यापक हो सकता है उसकी सोच बड़ी हो सकती है-लड़ाई व्यापक चिंतन और बड़ी सोच के लिए होनी चाहिए हमें और ‘देवगौड़ा’ नही चाहिए। इसलिए हर स्थिति परिस्थिति में देश के आम चुनाव भावी पी.एम. को पहले ही घोषित करके ही लड़े जाने चाहिए-यह जनता का हक है और इस हक के साथ किसी प्रकार के छल छद्म की आवश्यकता नही है।

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