दरिद्री और दुःखी रहते हैं
मितव्ययताहीन मूकदर्शक

 डॉ. दीपक आचार्य
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जो लोग अपने जीवन में मितव्ययता नहीं बरतते हैं वे चिंटू1जीवन भर दुःखी और दरिद्री रहते हैं और इन लोगों का कोई ईलाज नहीं है। ऎसे  लोगों में दो प्रकार की किस्मे होती हैं।एक वे हैं जो खुद का पैसा बचाने के लिए ही मितव्ययी हैं, दूसरों का पैसा पानी की तरह बहा देने में भी इन्हें कोई परहेज नहीं होता क्योंकि उन लोगों के लिए जीवन भर यह जुमला काम आता रहता है कि अपने बाप का क्या है। ऎसे लोग सिर्फ अपनी ही अपनी बात करते हैं और जो भी कर्म या व्यवहार करते हैं उसमें पग-पग पर इनका स्वार्थ झलकता रहता है। दूसरी किस्म के लोग सभी मामलों में मितव्ययता से दूर हैं। ये जहां रहेंगे वहां इनके पास किसी भी  मामले में कोई मर्यादा या सीमा रेखा नहीं हुआ करती है। पहली किस्म के ये लोग सिर्फ अपने पैसों या खर्च के मामले में गंभीरता रखते हैं और मितव्ययी रहते हैं
दूसरी तरह के लोग ऎसे होते हैं जो कि जहां रहते हैं वहाँ मितव्ययता इनसे
दूर भागती है। ये लोग संवेदनशील होते हैं सिर्फ अपने स्वार्थों के प्रति।
शेष जगत के लिए इनमें मन में कहीं कोई संवेदनशीलता नहीं होती क्योंकि
संवेदनशीलता आ जाने पर व्यक्ति में अपने आप सारे गुण आ जाते हैं और फिर
वह जमाने के प्रति भी मितव्ययी हो जाता है और दूसरों के प्रति भी।
हमारे कर्मस्थला, प्रतिष्ठानों और सार्वजनिक तथा सामुदायिक स्थलों पर
ही देख लें तो पता चलेगा कि ऎसे लोगों की संख्या अनगिनत है जो जमाने के
प्रति संवेदनहीन बने हुए हैं तथा इनके मन में न जीव या जीवन के प्रति
संवेदनशीलता है और न ही जड़ के प्रति।
इस संवेदनहीनता का परिणाम यह होता है कि इन लोगों की आत्मा ही मर चुकी
होती है और ये लोग मितव्ययता का इस्तेमाल सिर्फ अपने स्वार्थों तक कैद
रखते हैं या फिर किसी के प्रति भी मितव्ययी नहीं होते।
आजकल कई स्थानों पर बेवजह पानी बहता रहता है, फिजूल की बिजली नष्ट होती
रहती है और कई सारी ऊर्जा ऎसी है जो बिना किसी काम के फालतू जा रही है।
हम अपने सामने बेवजह नलों से पानी बहता हुआ, बिजली के बल्ब, ट्यूबलाईट और
पंखे-कूलर-एसी चलते हुए चुपचाप देखते रहते हैं।
कई दफ्तरों और सामुदायिक उपयोग के सार्वजनिक स्थलों पर बिना किसी काम के
फालतू पानी-बिजली का अपव्यय होता रहता है। कई लोग ऎसे लापरवाह और
मितव्ययताहीन होते हैं कि सीट पर नहीं होंगे तब भी बिजली और पंखे इनकी
सीट को हवा-रोशनी देते रहते हैं।
कुर्सियों में धंसे रहने को ही जिन्दगी मान बैठे असंख्य लोग ऎसे हैं
जिन्हें कितनी ही बार समझाते रहो लेकिन इन चिकने घड़ों पर दशकों में भी
कोई फर्क नहीं पड़ता। वे वैसा ही करते रहेंगे जैसा करते आए हैं।
अपने आस-पास के परिवेश के प्रति जो लोग संवेदनशील नहीं हैं वे
घर-गृहस्थी और समुदाय के प्रति भी कभी संवेदनशील नहीं हो सकते हैं। और
ये ही वे मोटी खाल के लोग होते हैं जिनके सामने हजारों-लाखों लीटर पानी
बह कर चला जाए, बेवजह हजारों वॉट बिजली चलती रहे, पंखे हवा देते रहें और
एसी चलते रहें, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
परिवेश या अपने आस-पास की प्रत्येक घटना के प्रति संवेदनशील होने वालों
को ही मनुष्य माना जाना चाहिए। जो लोग परिवेश की हर घटना को मूकदर्शक या
तमाशबीन समझकर देखते रहते हैं उन लोगों को क्या कहा जाए? यह उन लोगों को
ही सोच कर रखना चाहिए।
जमाने के प्रति संवेदनशील रहें, अपने आस-पास की प्रत्येक घटना को अपने से
जोड़कर देखें चाहे वे हमारे व्यक्तिगत संसाधन हों या फिर सामुदायिक अथवा
सार्वजनीन। आखिर इनका उपयोग हमें ही करना है और ये हमारे लिए ही हैं।
आज इन्हें बचाएंगे तो ये हमेशा हमारे ही काम आएंगे अथवा हमारी आने वाली
पीढ़ी के काम आाएंगे। और आज यदि बेपरवाह होकर पागलों की तरह देखते रहें
तो आने वाले लोग भी हमारे पागलपन पर मुहर लगाने में तनिक भी देर नहीं
करने वाले।जो भी इंसान उपयोग, दुरुपयोग और सदुपयोग को अच्छी तरह समझ नहीं पाता है,
समाज के लिए वह भी उपयोगी नहीं होकर भारस्वरूप ही है। ऎसे लोगों और पशुओं
में किस प्रकार भेद किया जा सकता है? पशु भी मूकदर्शक होते हैं और ये लोग
भी। हर व्यक्ति का फर्ज है कि वह जहाँ कहीं भी रहे सदुपयोग पर ध्यान दे और
यह स्पष्ट मानसिकता रखे कि जहाँ जो कुछ भी है वह समाज का है, समाज के लिए
है और समाज के वास्ते लम्बे समय तक बनाए व बचाए रखना है ताकि हमारी आने
वाली पीढ़ियाँ दुःखी न हों जितने कि हम आज हो रहे हैं। इस दृष्टि से
मितव्ययता को दिल से अपनाना होगा।

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