Categories
इतिहास के पन्नों से

हिंदू राष्ट्र स्वप्न दृष्टा : बंदा वीर बैरागी

——————————————–
अध्याय —- 13

मुगल हो गए थे वह भयभीत

संसार में भारत ही एक ऐसा देश है जिसने विश्व को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान किया । इसने आत्मा के विषय में भी यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि यह सदा बनी रहती है। इसका कभी अंत नहीं हो सकता । शरीर ही मरता है, आत्मा नहीं । यही कारण रहा कि भारत के लोगों ने शरीर नाश पर कभी शोक नहीं किया । शरीर नाश को उन्होंने एक सहज प्रक्रिया समझा।
अलबेरूनी हमारे यहां पर महमूद गजनवी के साथ आया हुआ एक विदेशी लेखक था। उसने भारत के बारे में बहुत कुछ लिखा है। जिससे इसके बारे में जानकार हमें गर्व और गौरव की अनुभूति होती है। जब अलबेरूनी भारतवर्ष में प्रवास पर था तब वह एक परिवार से भी मिला था। जिसके एक नवयुवक को महमूद के सैनिकों ने मार दिया था।
जब अलबेरूनी मृतक नवयुवक के परिजनों से मिला तो उन्होंने अलबेरूनी से कहा था कि :— ” देख , तेरे सुल्तान ने हमारी इस प्रिय संतान की अकारण ही हत्या कर दी है । देख , यह सामने पड़ा है , यह कौन सा धर्म है ? क्या तेरा सुल्तान यह समझता है कि हमारा पुत्र समाप्त हो गया है ? यह उसकी भूल है । यह मरा नहीं है , आत्मा अजर – अमर है और इसकी आत्मा ने यह शरीर छोड़ा है। दूसरा शरीर मिलेगा। जैसे हम वस्त्र बदलते हैं या मकान बदलते हैं। ”

अजर अमर है आत्मा , नश्वर यह शरीर ।
अविनाशी हैं हम सभी बात बड़ी गंभीर ।।

अलबेरूनी को इस बात पर आश्चर्य था कि उस परिवार के लोग विलाप नहीं कर रहे थे , अपितु वह इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि यह एक शरीर की हत्या हुई है ना कि किसी आत्मा की । आत्मा तो अजर – अमर है । वह फिर लौटेगी ।
इतना ही नहीं हमारे देशवासियों की प्राचीन काल से ही यह भी दृढ़ मान्यता रही है कि संसार से जाने वाली कोई भी जीवात्मा जब लौट कर आती है तो वह पूर्व जन्म के संस्कारों को लेकर भी आती है । पूर्व जन्म में किए गए किसी भी कार्य का उसे अगले जन्म में फल प्राप्त होता है। इतना ही नहीं , यदि उस जीवात्मा के साथ पूर्व जन्म में किसी ने कोई अत्याचार किया था तो वह अगले जन्म में उस अत्याचार का प्रतिशोध भी लेती है । अपनी इसी अटूट मान्यता , धारणा या विश्वास के कारण भारत में अनेकों क्रांतिकारी धर्म व राष्ट्र की बलिवेदी पर इसलिए न्यौछावर हो गए कि वे पुनः जन्म लेंगे और इन अत्याचारियों का विनाश करेंगे । यही कारण रहा कि हमारे अनेक नवयुवकों ने जब – जब भी कोई ‘महाराणा प्रताप ‘ , ‘ शिवाजी ‘ या ‘ बंदा बैरागी ‘ खड़ा हुआ तो उसके साथ सहर्ष अपने आप को बलिदान के लिए प्रस्तुत कर दिया ।
लोगों ने शरीर विनाश को खेल समझ लिया। उन्होंने इसे मिट्टी का पुतला समझा। एक ऐसा खिलौना समझा जो टूट गया तो टूट गया , दूसरा ले लेंगे। संसार में फिर आकर और भी अधिक वेग के साथ शत्रुओं का विनाश करने में लग जाएंगे।
बंदा वीर बैरागी की बढ़ती शक्ति का विनाश करने के लिए मुगल बादशाह और उनके सभी शत्रु अब बहुत अधिक सक्रिय हो चुके थे । बादशाह ने सेनानायक हाजी इस्माइल खान और इनायत उल्लाह खान को बंदा वीर बैरागी को समाप्त करने के लिए सेना देकर भेजा । असलम खान लाहौर से इन दोनों की सहायता के लिए अपनी सेना लेकर चल दिया। जबकि कसूर के पठान रईस मोहम्मद खान ने मुसलमानों को बंदा वीर बैरागी के विरुद्ध एकत्र किया और उसकी बढ़ती हुई शक्ति को समाप्त करने के लिए उन्हें प्रेरित किया।
जब शत्रु चारों ओर से आपके विरुद्ध आपके विनाश की योजनाओं में संलिप्त हो जाए या ऐसी रणनीति अपनाने पर विवश हो जाए कि जैसे भी हो आप का विनाश किया जाए तो समझ लीजिए कि आपकी शक्ति उन सबके लिए एक चुनौती बन चुकी है। यही वह अवस्था होती है जब आप उन सबसे अधिक शक्तिशाली बन चुके होते हो । यही स्थिति उस समय बंदा वीर बैरागी की बन चुकी थी । वह अपने सभी शत्रुओं से कहीं अधिक शक्तिशाली बन चुका था । ऐसे में उसके विरुद्ध शत्रु का ध्रुवीकरण होना स्वाभाविक था ।

जीवन की इस पगडंडी पर ,
कदम कदम तू बढ़ता चल ।
दूर अंधेरा होगा निश्चय ,
यह संकल्प लिए चढ़ता चल ।।
माना दूर है मंजिल तेरी पर ,
सफलता को असंदिग्ध बना।
दिव्य शक्ति सब साथ हैं तेरे ,
तब तक कठिनाई है दग्ध चना ।।

उस समय करनाल क्षेत्र का सूबेदार बाबा विनोदसिंह था । जब उसको शत्रु की संयुक्त सेना की जानकारी प्राप्त हुई तो वह घबरा उठा । उसने करनाल छोड़कर सरहिंद की ओर भागने में ही भलाई समझी । मुगलों के साथ अमीनाबाद में सिक्खों का संघर्ष हुआ । इस समय हुए संघर्ष में मुगलों की संयुक्त सेना की शक्ति सिक्ख सेना पर हावी रही । सिक्ख मैदान छोड़कर भाग लिए और मुगल सेना उनके पीछे – पीछे भागती हुई उन्हें पकड़ – पकड़ कर पेड़ों पर फांसी पर लटकाती जा रही थी । अमानवीय अत्याचारों से पूरा क्षेत्र फिर से कराह उठा । अब हिंदू के सामने फिर जीवन – मरण का प्रश्न आ चुका था । उन्हें ऐसे में बंदा वीर बैरागी की याद सता रही थी । क्योंकि बंदा वीर बैरागी उस समय हिंदुत्व की शक्ति का प्रतीक बन चुका था। उसके नाम का स्मरण मात्र शत्रु को उस समय कंपा देता था । उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर इतना बड़ा अनर्थ करने पर मुगल सेना उतर आई थी। इसलिए हिंदू जनमानस के द्वारा अपने इस नेता का स्मरण करना स्वाभाविक था । जैसे ही बंदा वीर बैरागी को वस्तुस्थिति की जानकारी हुई तो वह भी तुरंत अपने कुल्लू से मंडी होते हुए होशियारपुर में आ धमका।
हमारे पूर्वजों ने मांसाहारी लोगों को पिशाच कहकर संबोधित किया है । मुसलमानों को भी शाकाहारी हिंदू इसी नाम से पुकारते थे। पिशाच ऐसे लोग होते हैं जो जनसामान्य को अपने कार्यों से भयभीत कर उनका सर्वस्व हरण करने की योजनाओं में सम्मिलित रहते हैं। मुसलमान उस समय इसी कार्य को कर रहे थे । अथर्ववेद ( 4 / 36 / 7 ) में कहा गया है कि मैं जिस गांव के लिए प्रस्थान करता हूं , उसमें प्रवेश करता हूं , वहीं से डाकुओं और हिंसकों का सफाया हो जाता है। पिशाच उस स्थान से नष्ट हो जाते हैं , पिशाच वहां से भाग जाते हैं । कहने का अभिप्राय है कि यदि जनता में साहस और उत्साह और उनके उत्साह को तीव्र करने वाला कोई नेता मिल जाए तो ऐसे पिशाचों का सफाया ही हो जाता है । पिशाच नाश का अर्थ है पिशाचपन की उस भावना का नष्ट हो जाना जो दूसरों के अधिकारों का हनन करती है या दूसरों का जीना दूभर करती है या दूसरों पर अत्याचार करना अपना अधिकार समझती है । वास्तव में पिशाचों का संहार करने की यह स्थिति बकरी और शेर को एक घाट पर पानी पिलाने की स्थिति ला देना है । राजा का कार्य भी यही होता है कि बकरी और शेर को एक घाट पर पानी पिला दे । यदि बकरी मारे भय के पानी पीना ही त्याग दे और इस अवस्था में रहते – रहते प्राण त्याग दे तो समझो कि बकरी का मूक अभिशाप राजा के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा।

पिशाचपन हो नष्ट जगत से ,
यही राजा का है – धर्म बड़ा ।
अत्याचारी का अत्याचार मिटे,
मिटे पापी का दुष्ट कर्म बड़ा ।।
पशुता हिंसाचार मिटे और ,
मिटे जगत से दुष्टाचरण सखा ।
यही सोचकर हमारे पितरों ने
हमको पवित्रतम राजधर्म गढ़ा ।।

बंदा बैरागी उस समय हिंदुओं के लिए एक ऐसी शक्ति बन चुके थे जो पिशाच नाश का कार्य कर रही थी । वह जहां – जहां भी जाते थे , वहाँ – वहाँ से ही मनुष्य की वह पिशाच प्रवृत्ति अपना बोरिया बिस्तर बांध लेती थी जो दूसरों पर अत्याचार करने में ही अपना लाभ समझती थी । वेद ने इस मंत्र के माध्यम से अनेकों बंदा बैरागियों को अपने देश , धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित किया था। हमारे रक्त में वेद का और वैदिक संस्कृति का संचार हो रहा था जो हमें सदियों तक शत्रुओं से लड़ने की प्रेरणा देता रहा ।
जैसे ही बंदा वीर बैरागी कुल्लू से होशियारपुर आया तो उसने फिर अपने राज्य का प्रबंध अपने हाथ में लेकर अलग-अलग सूबों के अलग-अलग सूबेदार नियुक्त किए । अब वह एक सशस्त्र सेना अपने साथ रख कर पंजाब की गली मोहल्लों में घूमने लगा। उसके आते ही इस पिशाचपन की वह प्रवृत्ति दुम दबाकर भागने लगी जो अभी तक वहां के हिंदुओं पर अत्याचार कर रही थी । हमारी बहन – बेटियों व माताओं के चेहरों पर मुस्कान लौट आई , जो अभी तक शत्रु के अत्याचारों को सहन कर रही थीं । सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । जबकि शत्रु पक्ष मारे भय के फिर पंजाब छोड़कर भागने लगा। बंदा बैरागी ने अपनी राजधानी लोहगढ़ का किला बनाया और पूरे पंजाब में फिर धर्म का शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त की । शत्रु की गतिविधियां शांत हो गईं और जहां-जहां पर उसने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था वहां – वहां से शत्रु फिर इधर उधर भाग गया।
इब्नबतूता नाम का एक विदेशी यात्री हमारे देश में आया। वह चौदहवीं शताब्दी में सुल्तान मोहम्मद तुगलक के दरबार में आया था । इब्नबतूता ईरान के बादशाह का दूत था । इब्नबतूता ने भारत के योगियों के बारे में बहुत ही गौरवपूर्ण ढंग से लिखा है। उसने वर्णन किया है कि सुल्तान ने एक दिन उसको ऐसे योगी दिखलाए जो आकाश में उड़ सकते थे। इब्नबतूता कहता है कि दो योगियों में आपस में ठन गई और एक योगी की खड़ाऊँ स्वत: ऊपर उठकर दूसरे योगी के सिर पर प्रहार करने लगी ।
वह लिखता है कि मोहम्मद तुगलक के पास डेढ़ लाख गुलाम थे । उसने इब्नबतूता से पूछा कि तुम्हारे बादशाह के पास कितने गुलाम हैं ? मेरे द्वारा सुल्तान को बादशाह के गुलामों की एक लाख की संख्या बताए जाने पर उसने गर्व से अपने गुलामों की संख्या मुझे डेढ़ लाख बताई । सुल्तान ने कहा कि तुम्हारे बादशाह के गुलाम उसके प्रति कितने वफादार हैं ? इस पर मैंने सुल्तान से अपने गुलामों की वफादारी की बहुत प्रशंसा की । तुगलक सुल्तान ने मेरे द्वारा हमारे बादशाह के गुलामों की प्रशंसा सुनने के पश्चात हाथ की ताली बजाई । उसके ऐसा करते ही वहां पर तुरंत एक गुलाम आ उपस्थित हुआ । तब सुल्तान ने उसको कुछ संकेत किया । जिसे इब्नबतूता भी नहीं देख सका । गुलाम ने तुरंत वहां रखा खंजर उठाया और अपने पेट में भोंक लिया । उसका तत्काल देहांत हो गया । इसके पश्चात सुल्तान ने पुनः ताली बजाई। तब दूसरा गुलाम उपस्थित हो गया । उसने मरे हुए गुलाम के शव को महल से नीचे फेंक दिया । सुल्तान मोहम्मद तुगलक ने इब्नबतूता से कहा – ” क्या ऐसे वफादार गुलाम भी तुम्हारे बादशाह के पास हैं ? ”
हमने इस उद्धरण को यहां पर केवल इसलिए दिया है कि हमारे यहां पर प्राणों की कोई चिंता नहीं होती । प्राण निकल गए तो माना जाता है कि शरीर का नाश हुआ है , आत्मा का नाश नहीं हुआ । आत्मा तो अजर – अमर है । जिसके विषय में हम इस अध्याय के आरंभ में ही प्रकाश डाल चुके हैं । यह स्थिति सात्विक वीरता की पराकाष्ठा है। जिसके विषय में निसंदेह और पूर्ण गर्व के साथ कहा जा सकता है कि संसार भर में ऐसी भावना केवल और केवल भारत के वीरों में ही मिलती आयी है । इसी वीरता का संचार गुलामी के या पराभव के उस काल में हमारे भीतर होता रहा , जिसके कारण हम अत्यंत भयावह परिस्थितियों में भी शत्रु का सामना करते रहे । इसी भावना को बंदा वीर बैरागी जैसे लोग समय-समय पर आकर बलवती करते रहे।
वह गंगाराम नाम का ब्राह्मण अभी तक जीवित था जिसने गुरु के बच्चों को छल और कपट करते हुए गिरफ्तार कराने में सहायता की थी। गुरु पुत्रों के साथ हुए इस अन्याय में सम्मिलित रहे इस गंगाराम नाम के व्यक्ति का जीवित रहना बंदा वीर बैरागी के लिए अब असहनीय हो चुका था । अतः उसने अब गंगाराम का वध कराने की आज्ञा अपने सैनिकों को दी । इतना ही नहीं जिस थानेदार ने गुरु पुत्रों की गिरफ्तारी की थी , उसका भी बंदा वीर बैरागी ने वध करा दिया । जिससे एक बार फिर हिंदुओं में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। उन्हें लगा कि आज गुरु पुत्रों को वास्तविक श्रद्धांजलि अर्पित कर दी गई है।
अब बंदा वीर बैरागी ने सहारनपुर के शासक अली मुहम्मद के विनाश का संकल्प लिया। अली मुहम्मद बंदा वीर बैरागी के योजना को सुनकर भयभीत हो उठा । इसके पश्चात भी उसने मुसलमानों को एकत्र किया और बंदा वीर बैरागी के साथ होने वाली लड़ाई को ‘ दीन ‘ की लड़ाई कहकर उनमें जोश भरने का प्रयास किया । जैसे ही लड़ाई आरंभ हुई अली मुहम्मद युद्ध के मैदान से भाग गया । उसके भागने के पश्चात भी कुछ समय तक लड़ाई जारी रही , परंतु जैसे ही सरदार गालिब खान मारा गया तो सारे मुसलमान भाग गए । इसके पश्चात बंदा वीर बैरागी ने शत्रुओं के घर लूटने की आज्ञा अपने सैनिकों को दी। बहुत से अपराधी प्रवृत्ति के शत्रुओं को घरों में जा – जाकर मार दिया गया।

बैरागी के संताप से , शत्रु हुआ मतिहीन।
मैदान छोड़ भगने लगा , भूल चुका था दीन।।

बंदा वीर बैरागी की विजय दुंदुभि बजती जा रही थी। शत्रु मैदान छोड़ – छोड़ कर भाग रहा था । उसे छिपने के लिए वैसे ही स्थान नहीं मिल रहा था जैसे प्रातः काल में सूर्योदय के पश्चात अंधकार को कहीं छुपने का स्थान प्राप्त नहीं होता । अब विजयी मुद्रा में आए हुए बंदा वीर बैरागी ने नजीबाबाद के पठान रईसों को पत्र लिखा और उन्हें यह स्पष्ट संकेत किया कि उनकी अत्याचारों की कहानी का अब समापन होने वाला है। उन्हें सावधान करते हुए बंदा वीर बैरागी ने स्पष्ट कर दिया कि मैं उनके विनाश के लिए अब उनकी ओर प्रस्थान कर रहा हूं । इस पर शीघ्र ही वैरागी ने नजीबाबाद के चारों ओर घेरा डाल दिया।
यहां का शासक उस समय शाहनवाज खान था । जिसने बंदा वीर बैरागी का सामना करने का संकल्प लिया । दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ । शाहनवाज खान भी वीरता के साथ लड़ता रहा ,परंतु उसको विजयश्री प्राप्त नहीं हो सकी । बंदा वीर बैरागी के द्वारा नगर को लूट लिया गया । इसके साथ-साथ गंगा से लगते हुए कई अन्य नगरों को भी बैरागी ने जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया । इस घटना का वर्णन करते हुए एक मुस्लिम मुहम्मद जफरुद्दीन ने लिखा है : — ” नगर के एक भाग में शहजादों का वध किया गया । ज्वालापुर और साढौरा के राजाओं से बहुत सा माल भेंट में लिया । मुरादाबाद का इलाका लूटता खसूटता हुआ ‘वीर ‘ जलालाबाद जा पहुंचा । वहां के सरदार जलाल खान ने ऐसा मुकाबला किया कि सिक्ख घबरा गए । सिक्ख सीढ़ियां लेकर किले पर चढ़ते , पर पठान ऊपर से धकेल देते थे ।”
ख़फ़ी खान नाम के इतिहासकार ने इस युद्ध के बारे में लिखा है कि इस हमले में बैरागी सेना के साथ नहीं था। लोहगढ़ में यह समाचार सुनकर बैरागी क्रोध में भरा हुआ आया और उसने आकर नगर को जीत लिया।
औरंगजेब के काल में बंदा वीर बैरागी और शिवाजी महाराज जैसे महा प्रतापी शासकों अथवा योद्धाओं के नेतृत्व में हिंदू जाति जिस प्रकार अपने पुनरुज्जीवी पराक्रम का परिचय दे रही थी , उससे मुगल बादशाहत की चूलें हिल गई थीं । मुगल अपने पतन को अपनी आंखों से देख रहे थे । भरपूर इच्छा रखते हुए भी अब उन्हें फिर से संभलने या उठ खड़ा होने का अवसर प्राप्त नहीं हो रहा था । चारों ओर से उनके सिर पर लाठियों का भारी प्रहार हो रहा था ।बंदा वीर बैरागी के आतंक से मुगल बादशाह बहादुरशाह स्वयं भी आतंकित था । उसका साहस नहीं हो पा रहा था कि वह किस प्रकार बंदा बैरागी का सामना करे ? क्योंकि बंदा बैरागी का सामना करने का अभिप्राय था सीधे-सीधे मौत से खेलना और मौत से खेलना हर किसी के वश की बात नहीं होती। इसलिए आग और मौत के गोले से बचे रहने में ही बहादुरशाह अपना भला समझ रहा था। वैसे भी न तो उसके पास अब इतने अधिक साधन रह गए थे कि जिनके बल से वह बंदा बैरागी जैसी आंधी का सामना कर सके और ना ही उसका अपना साहस ही इतना बन पा रहा था कि वह बंदा बैरागी को मिटा डाले। यद्यपि उसके पास कई मुसलमान लोग भाग – भागकर जाते और बंदा बैरागी के बारे में उसे बताते । परंतु उस पर कोई प्रभाव नहीं होता था । एक बार जब वह अजमेर प्रवास पर था तो बताते हैं कि उसने मुस्लिम लोगों के इस आग्रह पर कि वह उनकी रक्षा बंदा बैरागी से कराए , अपनी तलवार निकालकर भूमि पर रख दी और उपस्थित लोगों से कहने लगा कि यदि कोई पुरुष है तो तलवार उठा ले और बंदा बैरागी का अंत कर डाले । परंतु किसी भी व्यक्ति का साहस नहीं हुआ कि वह उस तलवार को उठाए और बंदा बैरागी नाम से जाकर युद्ध करे ।
इसके पश्चात क्या हुआ ?- इस पर हम अगले अध्याय में प्रकाश डालेंगे।

(लेखक की यह पुस्तक दिल्ली के सुप्रसिद्ध प्रकाशन ‘प्रभात प्रकाशन ‘ से शीघ्र ही प्रकाशित होकर आने वाली है )

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version